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अमितगतिविरचिता
नास्ति स्वस्वामिसंबन्धो नान्यगेहे गमागमौ । न होनो नाधिकस्तत्र न व्रतं नापि संयमः ॥११ सप्तभिः सप्तकैस्तत्र दिनानां जायते ऽङ्गिनाम् । सर्वभोगक्षमो देहो नवयौवनभूषणः ॥१२ स्त्रीपुंसयोर्युगं तत्र जायते सहभावतः । कान्तिद्योतितसर्वाङ्ग ज्योत्स्नाचन्द्रमसोरिव ॥ १३
मानार्थ प्रेयसी प्रियभाषिणी । तत्रासौ' प्रेयसीमार्यां चित्रचाटुक्रियोद्यतः ॥१४ दशाङ्गो दीयते भोगस्तेषां कल्पमहीरुहैः । दशाङ्गेनिविकारैश्च धर्मैरिव सविग्रहैः ॥ १५ मद्ययंग्रह ज्योतिर्भूषा भोजनविग्रहाः । arदीपवस्त्रपात्राङ्गा दशधा कल्पपादपाः ॥ १६
१४) १. आयः ।
इन कालोंमें प्राणियोंके मध्य में स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध - सेवक व स्वामीका व्यवहार — नहीं रहता, दूसरोंके घरपर जाना-आना भी नहीं होता, हीनता व अधिकता (नीच ऊँच) का भी व्यवहार नहीं होता, तथा उस समय व्रत व संयमका भी परिपालन नहीं होता ॥ ११ ॥
न कालोंमें प्राणियों का शरीर जन्म लेनेके पश्चात् सात सप्ताह - उनचास दिनोंमेंनवीन यौवन से विभूषित होकर समस्त भोगोंके भोगने में समर्थ हो जाता है ||१२||
उस समय चाँदनी और चन्द्रमाके समान कान्तिसे सब ही शरीरको प्रतिभासित करनेवाला स्त्री व पुरुषका युगल साथ ही उत्पन्न होता है ||१३||
भोगभूमियों स्नेहपूर्वक मधुर भाषण करनेवाली प्रिय स्त्री अपने स्वामीको 'आर्य' इस शब्द के द्वारा बुलाती है तथा वह स्वामी भी उस प्रियतमाको अनेक प्रकारकी खुशामदमें तत्पर होता हुआ 'आर्या' इस शब्द से सम्बोधित करता है ||१४||
उक्त कालों में शरीरधारी दस धर्मोंके समान जो दस प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं वे सब प्रकार से विकार से रहित होकर उन आर्य जनोंके लिए दस प्रकारके भोगको प्रदान किया करते हैं ॥१५॥
वे दस प्रकारके कल्पवृक्ष ये हैं- मद्यांग, तूर्यांग, गृहांग, ज्योतिरंग, भूषणांग, भोजनांग, मालांग, दीपांग, वस्त्रांग, और पात्रांग ||१६||
११) अकड गेहगमा ; ड न दीनो । १३ ) ब शुभभावतः ड महतावतः अद्योतितसर्वांशम् | १४) अ प्रेमभाषिणी.... प्रेयसीनार्या....चित्रवाटक्रियोदितः, ब चित्रचारिव क्रिया । १५) ब क 'निर्मलाकारैर्धर्मे ।
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