Book Title: Dharmapariksha
Author(s): Amitgati Acharya, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 307
________________ २८६ अमितगतिविरचिता मिथ्यात्वाव्रतकोपादियोगैः कर्म यदज्यंते । कथं तच्छक्यते हन्तुं तदभावं विनाङ्गिभिः ॥६२ फलं 'निर्वतदीक्षायां निर्वाणं वर्णयन्ति ये । आकाशवल्लरीपुष्प सौरम्यं वर्णयन्तु ते ॥ ६३ सूरीणां यदि वाक्येन पुंसां पापं पलायते । क्षीयन्ते वैरिणो राज्ञां बन्धूनां वचसा तदा ॥६४ नाश्यन्ते दीक्षया रागा यया नेह शरीरिणाम् । न सा नाशयितुं शक्ता कर्मबन्धं पुरातनम् ॥६५ गुरूणां वचसा ज्ञात्वा रत्नत्रितयसेवनम् । कुर्वतः क्षीयते पापमिति सत्यं वचः पुनः ॥६६ ६२) १. तत् कर्मं । २. सम्यक्त्वेन विना । ६३) १. व्रत रहितेन । ६६) १. यथायोग्यम् । कभी शत्रुका सिर नहीं छेदा जा सकता है उसी प्रकार संयम एवं ध्यानादिसे रहित नाम मात्र - की दीक्षा से कभी पापका विनाश नहीं हो सकता है ॥ ६१ ॥ मिथ्यात्व अविरति, क्रोधादि कषाय और योगके द्वारा जिस कर्मको उपार्जित करते हैं उसे वे उक्त मिथ्यात्वादिके अभाव के बिना कैसे नष्ट कर सकते हैं ? नहीं नष्ट कर सकते हैं ||६२|| व्रतहीन दीक्षा के होनेपर मोक्षपदरूप फल प्राप्त होता है, इस प्रकार जो कथन करते हैं, उन्हें आकाशवेलिके पुष्पोंकी सुगन्धिका वर्णन भी करना चाहिए। तात्पर्य यह कि व्रतहीन दीक्षा से मोक्षकी प्राप्ति इस प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार कि आकाशलता के फूलोंसे सुगन्धिकी प्राप्ति || ६३॥ आचार्योंके वचनसे - ऋषि-मुनियोंके आशीर्वादात्मक वाक्यके उच्चारण मात्रसे - यदि प्राणियों का पाप नष्ट होता है तो फिर बन्धुजनोंके कहने मात्र से ही राजाओंके शत्रु भी नष्ट हो सकते हैं ||६४|| जिस दीक्षाके द्वारा यहाँ प्राणियोंके रोग भी नहीं नष्ट किये जा सकते हैं वह दीक्षा भला उनके पूर्वकृत कर्मबन्धके नष्ट करने में कैसे समर्थ हो सकती है ? नहीं हो सकती है ॥६५॥ Jain Education, International परन्तु गुरुओंके वचनसे – उनके सदुपदेश से - रत्नत्रय के स्वरूपको जानकर जो उसका परिपालन करता है उसका पाप नष्ट हो जाता है, यह कहना सत्य है ||६६ || ६२) अकोपादियोगिनः कर्म दीर्यते, ब क इ यदर्यते । ६३) क ड इ वर्णयन्ति । ६५) इ नाश्यते .... रागो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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