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धर्मपरीक्षा - १७
मलो विशोध्यते बाह्यो जलेनेति निगद्यताम् । पापं निहन्यते न कस्येदं हृदि वर्तते ॥३६ मिथ्यात्वा संयमाज्ञानैः कल्मषं प्राणिनाजितम् । सम्यक्त्वसंयमज्ञानैर्हन्यते नान्यथा स्फुटम् ॥३७ कषायैरजितं पापं सलिलेन निवार्यते । एतज्जडात्मनो ब्रूते नान्यो मीमांसको ध्रुवम् ॥३८ यदि शोधयितुं शक्तं शरीरमपि नो जलम् । अन्तःस्थितं मनो दुष्टं कथं तेने विशेोध्यते ॥ ३९ गर्भादिमृत्युपर्यन्तं चतुर्भूतभवो भव । नापरो विद्यते येषां तैरात्मा वञ्च्यते ध्रुवम् ॥४०
३६) १. जलेन ।
३८) १. मानविचारणे ।
३९) १. जलेन ।
४०) १. जीव: । २. मते ।
करनेपर भी वह कभी पवित्र नहीं हो सकता है; उसी प्रकार स्वभावतः मलसे परिपूर्ण शरीर बाह्यमें जलसे स्नान करने पर वह कभी पवित्र नहीं हो सकता है ||३५||
जलसे बाहरी मल शुद्ध होता है - वह शरीर के ऊपरसे पृथकू हो जाता है, यह तो कहा जा सकता है; परन्तु उसके द्वारा पापरूप मल नष्ट किया जाता है, यह विचार भला किसके हृदय में उदित हो सकता है - इस प्रकारका विचार कोई भी बुद्धिमान् नहीं कर सकता है ||३६||
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पापी प्राणी मिथ्यात्व, असंयम और अज्ञानताके द्वारा जिस पापको संचित करता है वह सम्यक्त्व, संयम और विवेक ज्ञानके द्वारा ही नष्ट किया जा सकता है; उसके नष्ट करनेका और दूसरा कोई उपाय नहीं है; यह स्पष्ट है ||३७||
क्रोधादिकषायों द्वारा उपार्जित पाप जलसे धोया जाता है, इस बातको जडात्मा से अन्य - विवेकहीन मनुष्यको छोड़कर और दूसरा - कोई भी विचारशील मनुष्य नहीं कह सकता है, यह निश्चित है ||३८||
जब कि वह जल पूर्णतया शरीरको ही शुद्ध नहीं कर सकता है तब भला उसके द्वारा उस शरीरके भीतर अवस्थित दोषपूर्ण मन कैसे निर्मल किया जा सकता है ? कभी नहीं ||३९||
जो पृथिवी आदि चार भूतोंसे उत्पन्न होकर गर्भसे लेकर मरण पर्यन्त ही रहता है उसीका नाम प्राणी या जीव है, उसको छोड़कर गर्भ से पूर्व व मरणके पश्चात् भी रहने वाला कोई जीव नामका पदार्थ नहीं है; इस प्रकार जो चार्वाक मतानुयायी कहते हैं वे निश्चयसे अपने आपको ही धोखा देते हैं ||४०||
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३६) अविशुद्धयते; व निहन्यतेनेन । ३७) अ पापिनाजितम् । ३८) ब क नान्ये for नान्यो; ड इदं for ध्रुवम् । ३९) अ विशुध्यति । ४० ) अ पर्यन्तश्चतु ।
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