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अमितगतिविरचिता दृष्टवा योजनगन्धादिप्रसूतानां तपस्विनाम् । व्यासादीनां महापूजां तपसि क्रियतां मतिः ॥३० शोलवन्तो गताः स्वर्ग नीचजातिभवा अपि । कुलीना नरकं प्राप्ताः शीलसंयतनाशिनः ॥३१ गुण: संपद्यते जातिगुणध्वंसे विपद्यते । यतस्ततो बुधैः कार्यो गुणेष्वेवादरः परः ॥३२ जातिमात्रमदः कार्यों न नीचत्वप्रवेशकः । उच्चत्वदायकः सद्धिः कार्यः शीलसमादरः॥३३ मन्यन्ते स्नानतः शौचं शीलसत्यादिभिविना। ये तेभ्यो न परे सन्ति पापपादपवर्धकाः ॥३४ शक्रशोणितनिष्पन्नं मातुरुद्गालवधितम् ।
पयसा शोध्यते गात्रमाश्चर्य किमतः परम् ॥३५ ३२) १. प्राप्यते । २. विनश्यति । ३५) १. शुद्धं भवति ।
योजनगन्धा (धीवरकन्या ) आदिसे उत्पन्न होकर तपश्चरणमें रत हुए व्यासादिकोंकी की जानेवाली उत्तम पूजाको देखकर तपश्चरणमें अपनी बुद्धिको लगाना चाहिए ॥३०॥
शीलवान मनुष्य नीच जातिमें उत्पन्न होकर भी स्वर्गको प्राप्त हुए हैं तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर भी कितने ही मनुष्य शील व संयम को नष्ट करनेके कारण नरकको प्राप्त हुए हैं ॥३१॥
चूंकि गुणोंके द्वारा उत्तम जाति प्राप्त होती है और उन गुणोंके नष्ट होनेपर वह विनाशको प्राप्त होती है, अतएव विद्वानोंको गुणोंके विषयमें उत्कृष्ट आदर करना चाहिए ॥३२॥ __सज्जनोंको केवल-शील-संयमादि गुणोंसे रहित-जातिका अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि, वह कोरा अभिमान नीचगतिमें प्रवेश करानेवाला है। किन्तु इसके विपरीत उन्हें शीलका अतिशय आदर करना चाहिए, क्योंकि, वह ऊँच पदको प्राप्त करानेवाला है ॥३३॥
जो लोग शील और सत्य आदि गुणोंके बिना केवल शरीरके स्नानसे पवित्रता मानते हैं उनके समान दूसरे कोई पापरूप वृक्षके बढ़ानेवाले नहीं हैं-वे अतिशय पापको वृद्धिंगत करते हैं ॥३४॥ ____ जो शरीर वीर्य और रुधिरसे परिपूर्ण होकर मलसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है वह जलके द्वारा शुद्ध किया जाता है-स्नानसे शुद्ध होता है, इससे भला अन्य क्या आश्चर्यजनक बात हो सकती है ? अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार स्वभावतः काला कोयला जलसे धोये जानेपर कभी श्वेत नहीं हो सकता है, अथवा मलसे परिपूर्ण घटको बाह्य भागमें स्वच्छ
३०) क इ दृष्टा for दृष्ट्वा....महापूजा । ३१) अनाशतः । ३२) इ°ध्वंसविपद्यते । ३४) ब ड इ शौचशील; ब पापपावक । ३५) अशोणितसंपन्नम्; ब क इ मात्र्युद्गालविवर्धितम्, ड मातुर्गात्रं मलविवर्धितम् ।
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