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धर्मपरीक्षा - १७
दुग्धाम्भसोयथा भेदो विधानेन विधीयते । तथात्मदेहयोः प्राज्ञैरोत्मतत्त्वविचक्षणैः ॥४६ बन्धमोक्षादितत्त्वानामभावः क्रियते यकैः 1 अविश्वदृश्वभिः सद्भिस्तेभ्यो घृष्टो' ऽस्ति कः परः ॥४७ कर्मभिर्बंध्यते नात्मा सर्वथा यदि सर्वदा । संसारसागरे घोरे बंभ्रमीति तदा कथम् ॥४८ सदा नित्यस्य शुद्धस्य ज्ञानिनः परमात्मनः । व्यवस्थितिः कुतो देहे दुर्गन्धामेध्यमन्दिरे ॥४९ सुखदुःखादिसंवित्तिर्यदि देहस्य जायते । निर्जीवस्य तदा नूनं भवन्ती केन वार्यते ॥५०
४६) १. क्रियते ।
४७) १. येः । २. अभिभवः ।
जिस प्रकार मिले हुए दूध और पानीमें विधिपूर्वक भेद किया जाता है - हंस उन दोनोंको पृथक्-पृथक् कर देता है-उसी प्रकार वस्तुस्वरूपके ज्ञाता विद्वान् अभिन्न दिखनेवाले आत्मा और शरीर में से आत्माको पृथक् कर देते हैं ॥ ४६ ॥
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जो लोग विश्वके ज्ञाता द्रष्टा न होकर भी - अल्पज्ञ होते हुए भी -बन्ध - मोक्षादि तत्त्वों का अभाव करते हैं उनसे घीठ और दूसरा कौन हो सकता है - वे अतिशय निर्लज्ज हैं ॥ ४७ ॥
यदि प्राणी सदा काल ही कर्मोंसे किसी प्रकार सम्बद्ध नहीं होता है तो फिर वह इस भयानक संसाररूप समुद्रमें कब और कैसे घूम सकता था ? अभिप्राय यह है कि प्राणीका जो संसारमें परिभ्रमण हो रहा है वह कार्य है जो अकारण नहीं हो सकता है । अतएव इस संसारपरिभ्रमणरूप हेतुसे उसकी कर्मबद्धता निश्चित सिद्ध होती है ||४८||
यदि आत्मा सर्वथा नित्य, सदा शुद्ध, ज्ञानी और परमात्मा - स्वरूप होकर उस कर्मबन्धनसे एकान्ततः रहित होता तो फिर वह दुर्गन्धयुक्त इस अपवित्र शरीर के भीतर कैसे अवस्थित रह सकता था ? नहीं रह सकता था - इसीसे सिद्ध है कि वह स्वभावतः शुद्ध-बुद्ध होकर भी पर्यायस्वरूपसे चूँकि अशुद्ध व अल्पज्ञ है, अतएव वह कर्म से सम्बद्ध
॥४९॥
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यदि सुख-दुख आदिका संवेदन शरीरको प्रकृतिको - होता है तो फिर वह निर्जीव (मृत) शरीर के क्यों नहीं होता है व उसे उसके होनेसे कौन रोक सकता है ? अभिप्राय यह सुख-दुख आदि के वेदनको जड़ शरीर में स्वीकार करनेपर उसका प्रसंग मृत शरीरमें भी अनिवार्य स्वरूप से प्राप्त होगा ||५० ||
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४७) अ ब न्धो मोक्षादि ; ड कं परम् । ४८) अ कदा for तदा ।
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