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अमितगतिविरचिता कृत्रिमेभ्यो न शास्त्रेभ्यो विशेषः कोऽपि दृश्यते। अपौरुषेयता तस्य वैदिकः कथ्यते कथम् ॥११ व्यज्यन्ते व्यापका वर्णाः सर्वे ताल्वादिभिनं किम् । व्यञ्जकैरेकदा कुम्भा दीपकैरिव सर्वथा ॥१२ सर्वज्ञेन विना तस्य केनार्थः कथ्यते स्फुटम् । न स्वयं भाषते स्वार्थ विसंवादोपलब्धितः ॥१३ ऐदंयुगीनगोत्रर्षि शाखादीनि सहस्रशः ।
अनादिनिधनो वेदः कथं सूचयितुं क्षमः ॥१४ ११) १. वेदज्ञैः। १२) १. अपि तु न । २. प्रकटनसमर्थैः । कि तालु आदि कारण वेदके व्यंजक नहीं हैं, किन्तु उत्पादक ही हैं। तब ऐसी अवस्थामें उसकी अपौरुषेयता सिद्ध नहीं होती है ॥९-१०।।
___दूसरे, जो कृत्रिम-पुरुषविरचित-शास्त्र हैं उनसे प्रस्तुत वेदमें जब कोई विशेषता नहीं देखी जाती है तब वेदके उपासक जन उसे अपौरुषेय कैसे कहते हैं-पुरुषविरचित अन्य शास्त्रोंके समान होनेसे वह अपौरुषेय नहीं कहा जा सकता है ॥११॥
. इसके अतिरिक्त मीमांसकोंके मतानुसार जब अकारादि सब ही वर्ण व्यापक हैंसर्वत्र विद्यमान हैं-तब उनके व्यंजक वे तालु व कण्ठ आदि उन सबको एक साथ ही क्यों नहीं व्यक्त करते हैं। कारण कि लोकमें यह देखा जाता है कि जितने क्षेत्रमें जो भी घट-पटादि पदार्थ विद्यमान हैं उतने क्षेत्रवर्ती उन घट-पटादि पदार्थोंको उनके व्यंजक दीपक आदि व्यक्त किया ही करते हैं। तदनुसार उक्त अकारादि वर्गों के उन तालु आदिके द्वारा एक स्थानमें व्यक्त होनेपर सर्वत्र व्यक्त हो जानेके कारण उनका श्रवण सर्वत्र ही होना चाहिए, सो होता नहीं है ॥१२॥ _ और भी-वेद जब अनादि व अपौरुषेय है तब सर्वज्ञके बिना उसके अर्थको स्पष्टतापूर्वक कौन कहता है ? कारण कि वह स्वयं ही अपने अर्थको कह नहीं सकता है। यदि कदाचित् यह भी स्वीकार किया जाय कि वह स्वयं ही अपने अर्थको व्यक्त करता है तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसी अवस्थामें उसके माननेवालोंमें विवाद नहीं पाया जाना चाहिए था; परन्तु वह पाया ही जाता है। यदि उसके व्याख्याता किन्हीं अल्पज्ञ जनोंको माना जाये तो उस अवस्थामें उसके अर्थके विषयमें परस्पर विवादका रहना अवश्यम्भावी है, जो कि उसको समानरूपसे प्रमाण माननेवाले मीमांसक एवं नैयायिक आदिके मध्यमें पाया ही जाता है ॥१३॥
तथा यदि वह वेद अनादि निधन है तो फिर वह वर्तमानकालीन गोत्र और मुनियोंकी शाखाओं आदिकी, जो कि हजारोंकी संख्या में वहाँ प्ररूपित हैं, सूचना कैसे कर सकता था ? अभिप्राय यह है कि जब उस वेदमें वर्तमान काल, कालवर्ती ऋषियोंकी अनेक शाखाओं आदिका उल्लेख पाया जाता है तब वह अनादि-निधन सिद्ध नहीं होता, किन्तु सादि व पौरुषेय ही सिद्ध होता है ॥१४॥ १२) अ क व्यञ्ज्यन्ते । १३) इ क्रियते स्फुटम्....ते for न। १४ ) अ ब देवः कथम् ।
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