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धर्मपरीक्षा-१७ वेदे निगदिता हिंसा जायते धर्मकारणम् । न पुनष्ठकशास्त्रेण न विशेषोऽत्र दृश्यते ॥६ नापौरुषेयताहेतुर्वेदे धर्मनिवेदने । तस्या विचार्यमाणायाः सर्वथानुपपत्तितः॥७ अकृत्रिमः कथं वेदः कृतस्ताल्वादिकारणः। प्रासादो ऽकृत्रिमो नोक्तस्तक्षव्यापारनिर्मितः ॥८ ताल्वादिकारणं तस्य व्यञ्जकं' न तु कारकम् । नात्रावलोक्यते हेतुः कोऽपि निश्चयकारणम् ॥९ यथा कुम्भावयो' व्यञ्ज्या दोपकैय॑ञ्जकैविना ।
विज्ञायन्ते तथा शब्दा विना ताल्वादिभिनं किम् ॥१० ७) १. अकृत्रिमता । २. अकृत्रिमतायाः। ३. अघटनात् । ९) १. प्रकाशकम् । १०) १. पदार्थाः।
कारण इसका यह है कि वेदमें कही गयी हिंसा-यज्ञादिमें किया जानेवाला प्राणिविघात-तो धर्मका कारण है, परन्तु ठगशास्त्रके द्वारा प्ररूपित हिंसादि धर्मका कारण नहीं है-वह पापका कारण है। इस प्रकार इन दोनोंमें कोई विशेषता नहीं देखी जाती है-ठगशास्त्रविहित हिंसाके समान ही यज्ञविहित हिंसाको भी पापका ही कारण समझना चाहिए ॥६॥
यदि कहा जाये कि वेद जो धर्मादिके निरूपणमें प्रमाण माना जाता इसका कारण उसकी अपौरुषेयता है-राग, द्वेष एवं अज्ञानता आदि दोषोंसे दूषित पुरुषविशेषके द्वारा उसका न रचा जाना (अनादि-निधनता) है तो यह भी योग्य नहीं है, क्योंकि, जब उसकी इस अपौरुषेयतापर विचार करते हैं तब वह किसी प्रकारसे बनती नहीं है-विघटित हो जाती है ॥७॥
___ यथा-यदि वह वेद अकृत्रिम है-किसीके द्वारा नहीं किया गया है तो फिर वह तालु एवं ओष्ठ आदि कारणोंके द्वारा कैसे किया गया है ? कारण कि बढ़ई और राज आदिके व्यापारसे निर्मित हुआ भवन अकृत्रिम नहीं कहा जाता है ॥८॥
इसपर यदि यह कहा जाये कि उक्त तालु आदि कारण उसके व्यंजक हैं, न कि कारण -वे उस विद्यमान वेदको प्रकट करते हैं, न कि उसे निर्मित करते हैं तो यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि, इसका नियामक यहाँ कोई भी हेतु नहीं देखा जाता है। कारण कि जिस प्रकार प्रगट करने योग्य घट-पटादि पदार्थ उन्हें प्रकाशित करनेवाले दीपक व प्रकाश आदिरूप व्यंजक कारणोंके बिना भी जाने जाते हैं उस प्रकार शब्द भी तालु आदिरूप उन व्यंजक कारणोंके बिना क्यों नहीं जाने जाते हैं-उक्त घटादिके समान उन शब्दोंका भी परिज्ञान बिना व्यंजक कारणोंके होना चाहिए था, सो होता नहीं है। अतः सिद्ध होता है ६) क ड इ वेदेन गदिता; ड धर्मकारकम् ; अ ब पुनर्लक; इ विशेषस्तत्र दृश्यते । ८) अ क इ प्रसादो । ९) ड निश्चयकारकम् । १०) अ ब व्यङ्ग्या ।
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