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अमितगतिविरचिता
आख्यदेषे न जानामि किचिच्छास्त्रमहं द्विजाः । अपूर्व भेरिमाताड्य निविष्टोऽष्टापदासने ॥७१ ते प्रोचुर्मुञ्च भद्र त्वं वर्करं प्राञ्जलं वद । सद्भाववादिभिः सार्धं तत्कुर्वाणो विनिन्द्यते ॥७२
प्राह दृष्टमाश्चर्यं सूचयामि परं चके । निविचारतया यूयं मा ग्रहीथान्यथा स्फुटम् ॥७३
वादिषुस्त्वमाचक्ष्व मा भैषीभंद्र सर्वथा । वयं विवेचकाः सर्वे न्यायवासितमानसाः ॥७४ ततो रक्तपटः प्राह यद्येवं श्रूयतां तदा । उपासक सुतावावां' वन्दकीनामुपासकौ ॥७५
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एकदा रक्षणायावां' दण्डपाणी नियोजितौ । शोषणाय स्ववासांसि क्षोण्यां निक्षिप्य भिक्षुभिः ॥७६
७१) १. मनोवेगः ।
७२) १. वर्करम् ।
७५) १. आवाम् । २. बौद्धानाम् ।
७६) १. आवाम् । २. स्ववस्त्राणि ।
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इसपर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! मैं किसी शास्त्रको नहीं जानता हूँ । मैं तो केवल अपूर्व भेरीको ताड़ित करके यों ही सुवर्ण सिंहासनके ऊपर बैठ गया हूँ || ७२ ॥
मनोवेग इस उत्तरको सुनकर ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! तुम परिहास न करके सीधासच्चा अभिप्राय कहो । कारण यह कि जो समीचीन अभिप्राय प्रकट करनेवाले सत्पुरुषों के साथ हास्यपूर्ण व्यवहारको करता है उसकी लोकमें निन्दा की जाती है ||७२ ।।
मनोवेगने कहा कि मैं देखे हुए आश्चर्यकी सूचना तो करता हूँ, परन्तु ऐसा करते हुए भयभीत होता हूँ । आप लोग उसे अविवेकतासे विपरीत रूप में ग्रहण न करें ||७३ || पर ब्राह्मण बोले कि भद्र ! तुमने जो देखा है उसे कहो, इसमें किसी भी प्रकारका भय न करो । कारण कि हम सब विचारशील हैं व हमारा मन न्याय से संस्कारित हैवह पक्षपातसे दूषित नहीं है, अतः हम न्यायसंगत वस्तुस्वरूपको ही ग्रहण किया करते हैं ||७४||
तत्पश्चात् लाल वस्त्रका धारक वह मनोवेग बोला कि यदि ऐसा है तो फिर मैं कहता हूँ, सुनिये। हम दोनों उपासक - बुद्धभक्त गृहस्थ - के पुत्र व वन्दकोंके - बौद्धभिक्षुओंके - आराधक हैं ।।७५।।
एक बार भिक्षुओंने अपने वस्त्रोंको सुखानेके लिए पृथिवीपर फैलाया और उनकी रक्षा के लिये हाथ में लाठी देकर हम दोनोंको नियुक्त किया ||७६ ||
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७१) अपूर्वे.... विष्टिष्टां । ७२ ) अ ब ड ते प्राहुर्मुञ्च; अ त्वं कर्बरं ७३) क ग्रहीष्टान्यथा, ड गृह्णीयान्यथा, इ गृह्णीष्वान्यथा । ७४) क भिक्षुकाः ।
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प्राञ्जलं वदः । सद्भाव - वाचिभिः । माचष्ट । ७६ ) अब यष्टिपाणी; इ
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