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________________ २५२ अमितगतिविरचिता आख्यदेषे न जानामि किचिच्छास्त्रमहं द्विजाः । अपूर्व भेरिमाताड्य निविष्टोऽष्टापदासने ॥७१ ते प्रोचुर्मुञ्च भद्र त्वं वर्करं प्राञ्जलं वद । सद्भाववादिभिः सार्धं तत्कुर्वाणो विनिन्द्यते ॥७२ प्राह दृष्टमाश्चर्यं सूचयामि परं चके । निविचारतया यूयं मा ग्रहीथान्यथा स्फुटम् ॥७३ वादिषुस्त्वमाचक्ष्व मा भैषीभंद्र सर्वथा । वयं विवेचकाः सर्वे न्यायवासितमानसाः ॥७४ ततो रक्तपटः प्राह यद्येवं श्रूयतां तदा । उपासक सुतावावां' वन्दकीनामुपासकौ ॥७५ ។ एकदा रक्षणायावां' दण्डपाणी नियोजितौ । शोषणाय स्ववासांसि क्षोण्यां निक्षिप्य भिक्षुभिः ॥७६ ७१) १. मनोवेगः । ७२) १. वर्करम् । ७५) १. आवाम् । २. बौद्धानाम् । ७६) १. आवाम् । २. स्ववस्त्राणि । 1 इसपर मनोवेग बोला कि हे ब्राह्मणो ! मैं किसी शास्त्रको नहीं जानता हूँ । मैं तो केवल अपूर्व भेरीको ताड़ित करके यों ही सुवर्ण सिंहासनके ऊपर बैठ गया हूँ || ७२ ॥ मनोवेग इस उत्तरको सुनकर ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! तुम परिहास न करके सीधासच्चा अभिप्राय कहो । कारण यह कि जो समीचीन अभिप्राय प्रकट करनेवाले सत्पुरुषों के साथ हास्यपूर्ण व्यवहारको करता है उसकी लोकमें निन्दा की जाती है ||७२ ।। मनोवेगने कहा कि मैं देखे हुए आश्चर्यकी सूचना तो करता हूँ, परन्तु ऐसा करते हुए भयभीत होता हूँ । आप लोग उसे अविवेकतासे विपरीत रूप में ग्रहण न करें ||७३ || पर ब्राह्मण बोले कि भद्र ! तुमने जो देखा है उसे कहो, इसमें किसी भी प्रकारका भय न करो । कारण कि हम सब विचारशील हैं व हमारा मन न्याय से संस्कारित हैवह पक्षपातसे दूषित नहीं है, अतः हम न्यायसंगत वस्तुस्वरूपको ही ग्रहण किया करते हैं ||७४|| तत्पश्चात् लाल वस्त्रका धारक वह मनोवेग बोला कि यदि ऐसा है तो फिर मैं कहता हूँ, सुनिये। हम दोनों उपासक - बुद्धभक्त गृहस्थ - के पुत्र व वन्दकोंके - बौद्धभिक्षुओंके - आराधक हैं ।।७५।। एक बार भिक्षुओंने अपने वस्त्रोंको सुखानेके लिए पृथिवीपर फैलाया और उनकी रक्षा के लिये हाथ में लाठी देकर हम दोनोंको नियुक्त किया ||७६ || Jain Education International ७१) अपूर्वे.... विष्टिष्टां । ७२ ) अ ब ड ते प्राहुर्मुञ्च; अ त्वं कर्बरं ७३) क ग्रहीष्टान्यथा, ड गृह्णीयान्यथा, इ गृह्णीष्वान्यथा । ७४) क भिक्षुकाः । For Private & Personal Use Only प्राञ्जलं वदः । सद्भाव - वाचिभिः । माचष्ट । ७६ ) अब यष्टिपाणी; इ www.jainelibrary.org
SR No.001425
Book TitleDharmapariksha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1998
Total Pages409
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & religion
File Size24 MB
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