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अमितगतिविरचिता गवेषय स्वं पितरं वज त्वं बाला निगद्येति विविग्नचित्ता। मञ्जूषयामा विनिवेश्य बालं प्रवाहयामास सुरापगायाम् ॥९७ दृष्ट्वा तरन्ती त्रिदशापगायामुद्दालकस्तामवतार्य' सद्यः। स्वबोजजं पुत्रमवेत्ये तस्या मध्ये स जग्राह विशुद्धबोधः ॥९८ तत्रागतां चन्द्रमती कुमारी विमार्गयन्ती तनयं विलोक्य । प्रदर्श्य तं तां निजगाद बाले तुष्टस्तवाहं भव मे प्रिया त्वम् ॥९९ साचष्ट साधो जनकेन दत्ता भवामि कान्ता तव निश्चिताहम् । त्वं गच्छ त" प्रार्थय मुक्तशङ्कः स्वयं न गृह्णन्ति पति कुलीनाः ॥१००
९७) १, क सह। ९८) १. उत्तार्य । २. ज्ञात्वा । ९९) १. तं तनयम् । २. चन्द्रमती ताम् । १००) १. पितरम् ।
इस पुत्रोत्पत्तिसे मनमें खेदको प्राप्त होकर कुमारी चन्द्रमतीने 'जा, तू अपने पिताको खोज' ऐसा कहते हुए बालकको एक पेटीमें रखकर उसके साथ उसे गंगामें प्रवाहित कर दिया ।।९७॥
उधर गंगामें तैरती हुई उस पेटीको देखकर उद्दालक मुनिने उसे उसमें से शीघ्र निकाल लिया तथा अपने निर्मल ज्ञानके द्वारा उसके भीतर अपने ही वीयसे उत्पन्न पुत्रको अवस्थित जानकर उसे ग्रहण कर लिया ॥९८।।
पश्चात् जब वहाँ पुत्रको खोजती हुई कुमारी चन्द्रमती आयी तब उसे देखकर उस पुत्रको दिखलाते हुए उद्दालक ऋषिने उससे कहा कि हे बाले ! मैं तेरे ऊपर सन्तुष्ट हूँ, तू मेरी वल्लभा हो जा ॥९९।।
इसपर कुमारी चन्द्रमती बोली कि हे मुने! यदि मेरा पिता मुझे तुम्हारे लिए प्रदान कर देता है तो मैं निश्चित ही तुम्हारी पत्नी हो जाऊँगी। इसलिए तुम जाओ और निर्भय होकर पितासे याचना करो। कारण यह कि उन्नत कुलकी कन्याएँ स्वयं ही पतिका वरण नहीं किया करती हैं, किन्तु वे अपने माता-पिता आदिकी सम्मतिपूर्वक ही उसे वरण किया करती हैं ॥१०॥
९७) ब मञ्जूषायां मां विनिवेशगालम्; अ इ प्रवेशयामास । ९८) इमवतीर्य.... स्ववीर्यजम् । ९९) इ तत्रागमच्चन्द्रमती कुमारी विमार्गती सा.... बालाम् । १००) ब तां प्रार्थय; इ गृह्णाति....कुलीना ।
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