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अमितगतिविरचिता एते नष्टा यतो दोषा भानोरिव तमश्चयाः । स स्वामी सर्वदेवानां पापनिदलनक्षमः ॥७८ ब्रह्मणा यज्जलस्यान्तर्बोज' निक्षिप्तमात्मनः । बभूव बुबुदस्तस्मादेतस्माज्जगदण्डकम् ॥७९ तंत्र द्वधा कृते जाता लोकत्रयव्यवस्थितिः । यद्येवमागमे प्रोक्तं तदा तत्व स्थितं जलम् ॥८० निम्नगापर्वतक्षोणीवृक्षात्पत्तिकारणम् । समस्तकारणाभावे' लभ्यते व विहायसि ॥८१ एकस्यापि शरीरस्य कारणं यत्र दुर्लभम् । त्रिलोककारणं मूतं द्रव्यं तत्र व लभ्यते ॥८२
७८) १. यस्मात् कारणात्, देवात् । ७९) १. जलमध्ये । २. वीर्यम् । ३. बीजात् । ८०) १. अण्डके । २. जलम् । ८१) १. कार्यकारणाभावे । २. शून्याकाशे। ८२) १. शून्याकाशे । २. क ब्रह्मणि ।
जिस प्रकार सूर्यके पाससे स्वभावतः अन्धकार दूर रहता है उसी प्रकार जिस महापुरुषके पाससे उपर्युक्त अठारह दोष दूर हो चुके हैं वह सब देवोंका प्रभु होकर पापके नष्ट करने में समर्थ है-इसके विपरीत जिसके उक्त दोष पाये जाते हैं वह न तो देव हो सकता है और न पापको नष्ट भी कर सकता है ।।७८॥
ब्रह्माने जलके मध्यमें जिस अपने बीज (वीर्य) का क्षेपण किया था वह प्रथमतः बुबुद हुआ। पश्चात् उसके दो भागोंमें विभक्त किये जानेपर तीन लोकोंकी व्यवस्था हुई। इस प्रकार जब आगममें निर्दिष्ट किया गया है तब यहाँ एक विचारणीय प्रश्न उपस्थित होता है कि उस लोककी उत्पत्तिके पूर्व में वह जल-जिसके मध्यमें ब्रह्माने वीर्यका क्षेपण किया था-कहाँपर अवस्थित था । ७९-८०।।
लोककी उत्पत्ति के पूर्व में जब कुछ भी नहीं था तब समस्त-निमित्त व उपादान स्वरूप -कारणों के अभाव में नदी, पर्वत, पृथिवी एवं वृक्ष आदिकी उत्पत्तिके कारण शून्य आकाशमें कहाँसे प्राप्त होते हैं ? ||८१॥
___जिस शून्य आकाशमें एक ही शरीरकी उत्पादक सामग्री दुर्लभ है उसमें भला तीनों लोकोंकी उत्पत्तिका कारणभूत मूर्तिक द्रव्य-निमित्त व उपादान स्वरूप कारणसामग्री-कहाँसे प्राप्त हो सकती है ? उसकी प्राप्ति सर्वथा असम्भव है ॥८२॥
७८) ब तेन नष्टा। ७९) अ क ड इजलस्यान्ते; अस्तस्माद्वितयं जगद।
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