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अमितगतिविरचिता यावज्जिनेन्द्रवचनानि न सन्ति लोके
तावल्लसन्ति विपरीतदृशां वचांसि । लोकप्रकाशकुशले सति तिग्मरश्मो२
तेजांसि कि ग्रहगणस्य परिस्फुरन्ति ॥९३ शुद्धैरभव्यमपहाये विरुद्धदृष्टि
वाक्यजिनेन्द्रगदितैर्न विबोध्यते कः । ध्वान्तापहारचतुरै रविरश्मिजाल
धुकं विमुच्य सकलो ऽपि विलोकते ऽर्थम् ॥९४ श्रुत्वेति वाचमवनम्ये गुरुप्रमोदेः
पापापनोदि जिनदेवपदारविन्दम् । खेटाङ्गजो ऽमितगतिः सं जगाम गेहं विद्याप्रभावकृतदिव्यविमानवर्ती ॥१५ इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां
द्वितीयः परिच्छेदः ॥२
९३) १. क दीप्यन्ति । २. क सूर्ये । ९४) १. विना। ९५) १. क नत्वा । २. क गुरुतरहर्षः । ३. क पापस्फेटकम् । ४. क मनोवेगः । प्रचुर दोषयुक्त उस मिथ्यात्वरूप अन्धकारको छोड़ता हुआ ज्ञानरूप प्रकाशको प्राप्त करेगा । ९२॥
लोकमें जब तक जिनेन्द्रके वचन नहीं है-जैन धर्मका प्रचार नहीं है तब तक ही मिथ्यादृष्टियोंके वचन ( उपदेश ) प्रकाशमें आते हैं। ठीक है-लोकमें प्रकाश करनेमें कुशल ऐसे सूर्यके विद्यमान होनेपर क्या ग्रहसमूहकी प्रभा दिखती है ? नहीं दिखती है ॥९३।।
जिनेन्द्र भगवानके द्वारा कहे गये शुद्ध वाक्योंके द्वारा अभव्यको छोड़कर और दूसरा कौन प्रतिबोधको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् अभव्यको छोड़कर शेष सब ही प्राणी जिनप्ररूपित तत्त्वस्वरूपके द्वारा प्रतिबुद्ध होते हैं । ठीक है-अन्धकारके नष्ट करने में प्रवीण सूर्यकी किरणोंके समूहोंसे उल्लूको छोड़कर शेष सब ही प्राणी पदार्थका अवलोकन करते हैं ।।९४।।
इस प्रकार केवलीकी वाणीको सुनकर वह विद्याधरकुमार (मनोवेग) अतिशय आनन्दको प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वह पापको नष्ट करनेवाले जिनदेवके चरणकमलों में नमस्कार करता हुआ विद्याके प्रभावसे दिव्य विमानको निर्मित करके व उसमें बैठकर अपरिमित गतिके साथ घरको चला गया ॥९५।।
इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें
___ द्वितीय परिच्छेद समाप्त हुआ । २॥ ९४) अ बुद्धरभव्यं । ९५) ब इ प्रमोदं; अ गेहे; व इति द्वितीयः परिच्छेदः ।
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