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अमितगतिविरचिता गृह्णामोदमपि क्षेत्रं करिष्यामि स्वयं शुभम् । यदीवमपि नो वत्ते राजा कि क्रियते तदा ॥२८ ततः प्रसाद इत्युक्त्वा गेहमागत्य हालिकः । कुठारं शातंमावाय कुषीः क्षेत्रमशिश्रियत् ॥२९ व्याकृष्टभङ्गसौरम्यव्यामोदितदिगन्तराः । उन्नताः सरलाः सेव्याः सज्जना इव शर्मवाः ॥३० दुरापा द्रव्यवाछित्त्वा दग्धास्तेनागुरुवमाः। निर्विवेका न कुर्वन्ति प्रशस्तं क्वापि सैरिकाः ॥३१ कृषिकर्मोचितं सद्यः शुद्ध हस्ततलोपमम् । अकारि हालिकेनेवमन्यायेनेव मन्दिरम् ॥३२ तोषतो दर्शितं तेन राज्ञः क्षेत्र विशोधितम् । अज्ञानेनापि तुष्यन्ति नीचा दर्पपरायणाः ॥३३
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२९) १. तीक्ष्णम् । २. आश्रितवान्; क अच्छेदयत् । ३१) १. मूर्खाः ; क स्वेच्छाचारिणः। ३३) १. क हर्षतः । २. क हालिकेन । ३. कुकर्मणा।
अब मैं इसी खेतको लेकर उसे स्वयं उत्तम बनाऊँगा। यदि राजा इसको भी न देता तो मैं क्या कर सकता था ॥२८॥
। इस प्रकार विचार करके उसने राजाका आभार मानते हुए उस खेतको ले लिया। तत्पश्चात् वह मूख हालिक घर आया और तीक्ष्ण कुठारको लेकर उस खेतपर जा पहुँचा ॥२९॥
इस प्रकार उसने उक्त खेतमें भौंरोंको आकृष्ट करनेवाली सुगन्धसे दिङमण्डलको सुगन्धित करनेवाले, ऊँचे, सीधे, सत्पुरुषोंके समान सेवनीय, सुखप्रद, दुर्लभ व धनको देनेवाले जो अगुरुके वृक्ष थे उनको काटकर जला डाला । ठीक है, विवेक-बुद्धिसे रहित किसान कहींपर भी उत्तम कार्य नहीं कर सकते हैं ।।३०-३१॥
जिस प्रकार न्याय-नीतिसे रहित कोई मनुष्य सुन्दर भवनको कृषिके योग्य बना देता है-उसे धराशायी कर देता है उसी प्रकार उस मूर्ख हलवाहकने उस खेतको निर्मल हथेलीके समान शीघ्र ही खेतीके योग्य बना दिया ॥३२॥
तत्पश्चात् उन अगुरुके वृक्षोंको काटकर विशुद्ध किये गये उस खेतको उसने हर्षपूर्वक राजाको दिखलाया। ठीक है, अभिमानी नीच मनुष्य अज्ञानतासे भी सन्तुष्ट हुआ करते हैं ॥३३॥
२९) अ°मशिश्रयत्; क असिश्रियत् । ३३) व नीचदर्प ।
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