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अमितगतिविरचिता विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरि मे क्रमः। भग्नो मुसलमादाय दत्तनिष्ठुरघातया ॥२७ ऋक्ष्या खरी ततोऽभाणि बोडे' दुष्कृतकारिणि । किमद्य ते ऽर्गलं जातं यत्करोषीदृशीं क्रियाम् ॥२८ पतिव्रतायसे दुष्टे भोज भोजमनारतम् । विटानां हि सहस्राणि खराणामिव रासभी ॥२९ ऋक्षी निगदिता खर्या विटवृन्दमनेकधा। जननी निषेव्य त्वं दोषं यच्छसि मे खले ॥३० मुण्डयित्वा शिरो बोडे कृत्वा पञ्चजटी शठे। शरावमालयाचित्वा भ्रामयामि पुरान्तरे ॥३१ इत्थं तयोर्महाराटी प्रवृत्ता दुनिवारणा।
लोकानां प्रेक्षणीभूता राक्षस्योरिव रुष्टयोः ॥३२ २८) १. हे रंडे। २९) १. भुक्त्वा भुक्त्वा । ३०) १. स्वमातेव।
सुखका उपभोग करते हुए मेरा समय जा रहा था। इस बीच प्राणोंसे भी अतिशय प्यारी ऋक्षीने प्रसन्नचित्त होकर मेरे एक पाँवको धोया और दूसरे पाँवके ऊपर रख दिया ॥२५-२६।।
यह देखकर खरीने शीघ्र ही पाँवके ऊपर स्थित उस पाँवको निर्दयतापूर्वक मसलके प्रहारसे आहत करते हुए तोड़ डाला ॥२७॥
___ इसपर ऋक्षीने खरीसे कहा कि दुराचरण करते हुए धर्मिष्ठा बननेवाली ( या युवती) हे खरी! आज तुझे क्या बाधा उपस्थित हुई है जो इस प्रकारका कार्य (अनर्थ ) कर रही है ॥२८॥
_हे दुष्टे ! जिस प्रकार गधी अनेक गधोंका उपभोग किया करती है उसी प्रकार तू हजारों जारोंको निरन्तर भोगकर भी पतिव्रता बन रही है ।।२९।।
यह सुनकर खरीने ऋक्षीसे कहा कि हे दुष्टे! तू अपनी माँके समान अनेक प्रकारसे व्यभिचारियोंके समूहका स्वयं सेवन करके मुझे दोष देती है ॥३०॥
दुराचरण करके स्वयं निर्दोष बननेवाली हे धूर्त ऋक्षे ! मैं तेरे शिरका मुण्डन कराकर और पाँच जटावाली करके सकोरोंकी मालासे पूजा करती हुई तुझे नगरके भीतर घुमाऊँगी ॥३१॥
इस प्रकार क्रुद्ध हुई राक्षसियोंके समान उन दोनोंके बीच जो दुर्निवार महा कलह हुआ वह लोगोंके देखने के लिए एक विशेष दृश्य बन गया था ॥३२।।
२८) अंब बोटे; ब ऽधिकं for ऽर्गलम्; अ यां for यत् । ३०) अ ड इ ऋक्षीति गदिता। ३१) अ सारावं; ड इ पुरान्तरम् । ३२) अ दुर्निवारिणी, ब प्रवृत्ताश्चर्यकारिणी; ब कष्टयोः, इ दुष्टयोः for रुष्टयोः ।
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