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धर्मपरीक्षा-९ मखंत्वं'प्रतिपाद्येति तृतीये ऽवसिते सति । प्रारेभे बालिशस्तुर्यो भाषितुं लोकभाषितः ॥५९ गतो ऽहमेकदानेतुं श्वाशुरं निजवल्लभाम् । मनोषितसुखाधारं स्वर्गवासमिवापरम् ॥६० विचित्रवर्णसंकीर्ण स्निग्धं प्रह्लादनक्षमम् । श्वश्रवा मे भोजनं दत्तं जिनवाक्यमिवोज्ज्वलम् ॥६१ न लज्जा वहमानेन मयाभोजि प्रियंकरम् । विकलेन दुरुच्छेदां मारीमिव दुरुत्तराम् ॥६२ ग्रामेयकवधूदृष्ट्वा न मयाकारि भोजनम् । द्वितीये ऽपि दिने तत्र व्यथा इव सविग्रहाः ॥६३ तृतीये वासरे जातःप्रबलो जठरानलः । सर्वाङ्गीणमहादाहक्षयकालानलोपमः॥६४
५९) १. क प्रतिपादयित्वा । २. लोकवचनतः । ६४) १. प्रलयकालोपमः।
इस प्रकार अपनी मूर्खताका प्रतिपादन करके उस तृतीय मुर्खके चुप हो जानेपर जब लोगोंने चौथे मूर्खसे अपनी मूर्खताविषयक वृत्तान्तके कहनेको कहा तब उसने भी अपनी मूर्खताके विषयमें इस प्रकारसे कहना प्रारम्भ किया ॥५९।।
एक बार मैं अपनी पत्नीको लेने के लिए ससुरके घर गया था। अभीष्ट सुखका स्थानभूत वह घर मुझे दूसरे स्वर्गके समान प्रतीत हो रहा था ॥६॥
वहाँ मुझे मेरी सासने जो भोजन दिया था वह उज्ज्वल जिनागमके समान था-जिस प्रकार जिनागम अनेक वर्णों (अकारादि अक्षरों) से व्याप्त है उसी प्रकार वह भोजन भी अनेक वर्णों ( हरित-पीतादि रंगों ) से व्याप्त था, जैसे जिनागम स्नेहसे परिपूर्ण-अनुरागका विषय होता है वैसे ही वह भोजन भी स्नेहसे-घृतादि चिक्कण पदार्थोंसे परिपूर्ण था, तथा जिस प्रकार प्राणियोंके मनको आह्लादित (प्रमुदित ) करने में वह आगम समर्थ है उसी प्रकार वह भोजन भी उनके मनको आह्लादित करने में समर्थ था ।।६१॥
परन्तु दुर्विनाश व दुर्लध्य मारी ( रोगविशेष-प्लेग ) के समान लज्जाको धारण करते हुए मैंने विकलतावश उस प्रिय करनेवाले ( हितकर ) भोजनको नहीं किया ॥६२॥
मैंने वहाँ ग्रामीण स्त्रियोंको मूर्तिमती पीड़ाओं के समान देखकर दूसरे दिन भी भोजन नहीं किया ॥६३।।
इससे तीसरे दिन समस्त शरीरको प्रज्वलित करनेवाली व प्रलयकालीन अग्निके समान भयानक औदर्य अग्नि-भूखकी अतिशय बाधा-उद्दीप्त हो उठी ॥६४।।
५९) इ विरते for ऽवसिते । ६०) अ स्व।सुरं, ब श्वासुरं, क सासुरं। ६१) अ निजवाक्यं । ६२) ब om. this verse । ६४) अ प्रवरो for प्रबलो।
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