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अमितगतिविरचिता कुरुष्वानुग्रहं साधो ब्रह्महत्या कृता मया। इत्येवं गदितो ब्रह्मा तमूचे पार्वतीपतिम् ।।५३ असृजा' पुण्डरीकाक्षो यदेदं पूरयिष्यति । हस्ततस्ते तदा शम्भो पतिष्यति शिरो मम ॥५४ प्रतिपद्य वचस्तस्यै कपालवतमग्रहीत् । प्रपञ्चो भुवनव्यापी देवानामपि दुस्त्यजः ॥५५ ब्रह्महत्यानिरासाथं सो ऽगमद्धरिसंनिधिम् । पवित्रीकर्तुमात्मानं न हि कंश्रयते जनः ॥५६ ब्रह्मा मृगगणाकोणमविक्षद् गहनं वनम् । तीवकामाग्निसंतप्तः क्व न याति विचेतनः ॥५७ विलोक्यतु मतीमृक्षों ब्रह्मा तत्रे निषेवते । ब्रह्मचर्योपतप्तानां रासभ्यप्यप्सरायते ॥५८
५३) १. प्रसाद, कृपाम् । २ ईश्वरेण । ५४) १. रुधिरेण । २. ब्रह्मा [ विष्णुः ] । ५५) १. ब्रह्मणः। ५६) १. स्फेटनाय । २. आश्रयते । ५८) १. रीछणीम् । २. वने। ३. सेवयामास ।
इस प्रकारका शाप दे-देनेपर जब महादेवने उनसे यह प्रार्थना की कि हे साधो ! ब्रह्महत्या करनेवाले मेरे ऊपर आप अनुग्रह करें-मुझे किसी प्रकार इस शापसे मुक्त कीजिएतब वे पार्वतीके पति-महादेव-से बोले कि जब विष्णु भगवान् इसे रुधिरसे पूर्ण करेंगे तब यह मेरा शिर तुम्हारे हाथसे नीचे गिर जायेगा ॥५३-५४॥
ब्रह्माके इस कथनको स्वीकार करके महादेवने कपाल व्रतको ग्रहण कर लिया। ठीक है-यह लोकको व्याप्त करनेवाला प्रपंच देवताओंके भी बड़ी कठिनाईसे छूटता है ।।५।।
फिर वह इस ब्रह्महत्याके पापको नष्ट करनेके लिए विष्णुके पास गया। ठीक हैमनुष्य अपनेको पवित्र करनेके लिए किसका आश्रय नहीं लेता है वह इसके लिए किसी न किसीका आश्रय लेता ही है ॥५६।।।
__ तत्पश्चात् ब्रह्मा मृगसमूहसे-मृगादि वन्य पशुओंसे-व्याप्त दुर्गम वनके भीतर प्रविष्ट हुआ । ठीक है, तीव्र कामरूप अग्निसे सन्तप्त हुआ अविवेकी प्राणी किस-किस स्थानको नहीं जाता है-वह उसको शान्त करने के लिए किसी भी योग्य-अयोग्य स्थानको प्राप्त होता है।।५।।
वहाँ ब्रह्माने किसी रजस्वला रीछनीको देखकर उसका सेवन किया। ठीक भी है, क्योंकि, ब्रह्मचर्यसे पीड़ित-कामके वशीभूत हुए-प्राणियोंको गर्दभी भी अप्सरा जैसी दिखती है ॥५८॥ ५३) ब कुरुष्व निग्रहं; ब ड कृता मम । ५४) अ यदीदं, ब यदिदं; अ ब पूरयिष्यते; ब पतितस्य शिरो मम । ५६) क इ संनिधौ; ब किं for कं । ५७) अ इ अवैक्षद्; अ कं न; द विचेतनम् । ५८) अ निषेव्यते, क ड निषेवत, इ निषेव्यत; अ रासभ्यप्सरसायते ।
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