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धर्मपरीक्षा-१२
१८९ योषा गिलति या वह्नि ज्वलन्तं मदनातुरा । दुष्करं दुर्गमं वस्तु न तस्या विद्यते ध्रुवम् ॥६ क्रुद्धोऽनलं यमो दृष्ट्वा दण्डमादाय धावितः। जारे निरीक्षिते ऽध्यक्षे कस्य संपद्यते क्षमा ॥७ दण्डपाणि यमं दृष्टवा जातवेदाः पलायितः। नोचानां जारचौराणां स्थिरता जायते कुतः ॥८ तरुपाषाणवर्गेषु प्रविश्य चकितः स्थितः । जाराश्चौरा न तिष्ठन्ति विस्पष्टा हि कदाचन ॥१ यः प्रविष्टस्तदा वह्निस्तरुजालोपलेष्वयम् । स्पष्टत्वं याति नाद्यापि प्रयोगव्यतिरेकतेः॥१० पुराणमीदशं दृष्टं जायते भवतां न वा।
खेटेनेत्युदिते विप्रैर्भवमिति भाषितम् ॥११ ७) १. क समीपे। ८) १. अग्निः । ९) १. व्यक्ताः; क प्रकटाः । १०) १. प्रयोग प्रतिकारम् उपचारं विना; क कारणं विना। ११) १. भवति ।
जो स्त्री कामातुर होकर जलती हुई अग्निको निगल जाती है उसको निश्चयसे कोई भी कार्य दुष्कर-करनेके लिए अशक्य-व कोई भी वस्तु दुर्गम (दुर्लभ ) नहीं है ॥६॥
तब वह यम अग्निको देखकर अतिशय ऋद्ध होता हुआ दण्डको लेकर उसे मारनेके लिए दौड़ा। सो ठीक है-जारके प्रत्यक्ष देख लेनेपर किसके क्षमा रहती है ? किसीके भी वह नहीं रहती-सब ही क्रोधको प्राप्त होकर उसके ऊपर टूट पड़ते हैं ॥७॥
यमको इस प्रकारसे दण्डके साथ आता हुआ देखकर अग्निदेव भाग गया। सो ठीक भी है-नीच जार और चोर जनोंके दृढ़ता कहाँसे हो सकती है ? नहीं हो सकती ॥८॥
इस प्रकार भागता हुआ वह भयभीत होकर वृक्षों और पत्थरोंके समूहके भीतर प्रविष्ट हुआ वहींपर स्थित हो गया। सो ठीक है, क्योंकि, जार और चोर कभी प्रकटरूपमें स्थित नहीं रहते हैं ।।९।।
जो यह अग्नि उस समय वृक्षसमूहों और पत्थरोंके भीतर प्रविष्ट होकर स्थित हुआ था वह आज भी प्रयोगके विना-परस्पर घर्षण आदिके बिना-प्रकट नहीं होता है ॥१०॥
हे ब्राह्मणो! आप लोगोंके यहाँ ऐसा पुराण-पूर्वोक्त पौराणिक कथा-प्रचलित है कि नहीं, इस प्रकार उस मनोवेग विद्याधरके कहनेपर वे ब्राह्मण बोले कि हे भद्र ! वह उसी प्रकारका है ।।११।।
६) इ दुर्गमं दुष्करं । ७) ड इ धावति । ९) ब विस्पष्टाश्च । ११) अ विप्रा for दृष्टम्; इ भवतां जायते ।
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