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अमितगतिविरचिता समेत्य वेगेन विरुद्धमानसः प्रविश्य तत्रैवे मतङ्गजाधिपः। क्रुधा गृहीत्वा रुदतो ममाम्बरं स पाणिना पारयितुं समुद्यतः ॥८५ विलोक्य तत्पाटनसक्तचेतसं करेणुराज तरसाहमाकुलः । कमण्डलोबिलेन निर्गतो भवन्त्युपायाः सति जीविते ऽङ्गिनाम् ॥८६ गजो ऽपि तेनैव बिलेन निर्गतो विलग्नमेकं विवरे कमण्डलोः।। व्यपासितुं' वालधिबालेमक्षमः पपात संक्लिश्य चिरं विषण्णधीः ॥८७ निरीक्ष्य नागं पतितं महीतले म्रियस्व शत्रो' त्वमिहैव दुर्मते । इदं निगद्याहमभोतिवेपथुस्ततो ऽगमं स्वस्थमनाः पुरान्तरम् ॥८८ मनोरमं तत्र जिनेन्द्रमन्दिरं विलोक्य कृत्वा जिननाथवन्दनाम ।
श्रमातुरस्तत्र निरम्बरो निशामनैषमेकां शयितो धरातले ॥८९ ८५) १. क कमण्डलौ । २. क वस्त्रम् । ३. क हस्ती। ४. सुंढेन; क शुण्डादण्डेन । ८६) १. क हस्तिनम्। ८७) १. आकर्षितुम्; क निष्कासितुम् । २. पुच्छस्यैकबालम् । ८८) १. हे शत्रो। ८९) १. पुरे । २. जिनालये । ३. नीतवान् नीगमि (?) ।
विचारवाला वह गजराज भी शीघ्रतासे आकर उसी कमण्डलुके भीतर आ घुसा। उसने वहाँ क्रोधके वश होकर रोते हुए मेरे वस्त्रको पकड़ लिया; उसे सँड़से फाड़ने में उद्यत हो गया ॥८४-८५॥
इस प्रकार उस गजराजको वस्त्रके फाड़नेमें दत्तचित्त देखकर मैं व्याकुल होता हुआ शीघ्र ही उस कमण्डलुके ऊपरके बिलसे-उसकी टोंटीसे-निकल गया। ठीक है, आयुके शेष रहनेपर प्राणियोंको रक्षाके उपाय मिल ही जाते हैं ॥८६॥
तत्पश्चात् वह गजराज भी उसी बिलसे निकल गया। परन्तु कमण्डलुके छेदमेंउसकी टोंटीके भीतर-उसकी पूँछका एक बाल अटक गया, उसे निकालनेके लिए वह असमर्थ हो गया और तब खेदखिन्न होता हुआ संक्लेशपूर्वक वहीं पड़ गया ॥८७॥
इस प्रकार पृथिवी-पृष्ठपर पड़े हुए उस हाथीको देखकर मैं 'हे दुर्बुद्धि शत्रु ! अब तू यहीं पर मर' ऐसा कहता हुआ भय व कम्पनसे मुक्त हुआ और तब स्वस्थचित्त होकर दूसरे नगरको चला गया ॥८॥
वहाँ एक जिनमन्दिरको देखकर मैंने जिनेन्द्रदेवकी वन्दना की और वस्त्रसे रहित (नग्न) व मार्गश्रमसे पीड़ित होकर वहींपर पृथिवीके ऊपर सो गया। इस प्रकारसे मैंने एक रात वहींपर बितायी ।।८९॥
८५) ब क्रुद्ध्वा । ८६) इ सक्तमानसम् । ८७) ब विपाशितुम् । ८८) क इमभीतवेपथुम् । ८९) अ विलोकयित्वा for विलोक्य कृत्वाअ मनैषमेकः।
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