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धर्मपरीक्षा-१२ नाशे त्रिशूलविद्यायाः से साधयितुमुद्यतैः । ब्रह्माणीमपरां विद्यामभिमानपरायणः ॥४२ निधाय प्रतिमामने'तदीयां कुरुते जपम । यावत्तावदसौ विद्या विक्रियां कर्तुमुद्यता ॥४३ वादनं नर्तनं गानं प्रारब्धं गगने तया। यावन्निरीक्षते तावद्ददर्श वनितोत्तमाम् ॥४४ अधःकृत्य मुखं यावत् प्रतिमां स निरीक्षते। तावत्तत्र नरं दिव्यं ददर्श चतुराननम् ॥४५ बालेयकशिरो' मूनि वर्धमानमवेक्ष्य सः। चकर्त तरसा तस्ये शतपत्रमिवोजितम् ॥४६ लगित्वा तेत्स्थिरीभूय न पपातास्य पाणितः । सुखसौभाग्यविध्वंसि हृदयादिव पातकम् ॥४७ व्यर्थीकृत्य गता विद्या तं' सा संहृत्य विक्रियाम् ।
निरर्थके नरे नारी न क्वापि व्यवतिष्ठते ॥४८ ४२) १. ईश्वरः । २. प्रारब्धः [प्रारब्धवान् ] । ४३) १. गगने। ४६) १. गर्दभशिरः। २. दिव्यनरस्य । ३. क कमलम् । ४७) १. मस्तकम् । २. शंभोः । ४८) १. ईश्वरम् ।
इस प्रकार उस त्रिशूलविद्याके नष्ट हो जानेपर वह अभिमानमें चूर होता हुआ दूसरी ब्रह्माणी (या ब्राह्मणी ) विद्याको सिद्ध करने के लिए उद्यत हुआ ॥४२॥
जबतक वह उसकी प्रतिमाको आगे रखकर जप करता है तबतक उक्त विद्या विक्रिया करनेमें उद्यत हो जाती है-वह उसे भ्रष्ट करनेके लिए अनेक प्रकारके विकारोंको करती है । यथा-उस समय उसने आकाशमें बजाना, नाचना एवं गाना प्रारम्भ किया। जब महेश्वरने ऊपर देखा तब उसे वहाँ एक उत्तम स्त्री दिखी। तत्पश्चात् जब उसने मुखको नीचा करके उस प्रतिमाको देखा तब उसे वहाँ एक चार मुखवाला दिव्य मनुष्य दिखाई दिया। उसने उक्त दिव्य मनुष्यके सिरपर वृद्धिंगत होते हुए गधेके सिरको देखकर उसे बढ़ते हुए कमलके समान शीघ्र ही काट डाला। परन्तु जिस प्रकार सुख एवं सौभाग्यको नष्ट करनेवाला पाप हृदयसे नहीं गिरता है-उससे पृथक् नहीं होता है उसी प्रकार वह शिर उसके हाथसे गलकर गिरा नहीं, किन्तु वहींपर स्थिर रहा। इस प्रकारसे उक्त विद्याने उसे व्यर्थ करके--उसके जपको निरर्थक करके-अपनी विक्रियाको समेट लिया व वहाँसे चली गयी। ठीक है-स्त्री किसी भी निरर्थक मनुष्यके विषयमें व्यवस्थित नहीं रहा करती है ।।४३-४८॥ ४२) ब ब्राह्मणी परमां । ४३) क ड इ विधाय । ४६) ब यस्य for तस्य । ४७) ब पावकं for पातकम् ।
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