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अमितगतिविरचिता
रक्तं विज्ञाय तं दृष्ट्या दक्षिणपश्चिमोत्तराः । भ्रमयन्ती मनस्तस्य बभ्राम क्रमतो दिशः ॥४१ लज्जमानः स देवानां वलित्वा न निरैक्षत । लज्जाभिमानमायाभिः सुन्दरं क्रियते कुतः ॥४२ तपो वर्षसहस्त्रोत्थं दत्त्वा प्रत्येकमस्तधीः । एकैकस्यां काष्ठायां दिदृक्षुस्तां' व्यधान्मुखम् ॥४३ भृशं सक्तदृशं दृष्ट्वा सारुरोह नभस्तलम् । योषितो रक्तचित्तानां वञ्चनां कां न कुर्वते ॥४४ पञ्चवर्षशतोत्थस्य तपसो महसा स ताम् । दिदृक्षुरकरोद् व्योम्नि रासभीयमसौ शिरः ॥४५ न बभूव तपस्तस्य न नर्तनविलोकनम् । अभूदुभयविभ्रंशो ब्रह्मणो रागसंगिनः ॥४६
४१) १. अवलोकनेन ।
४३) १. विलोकनवाञ्छया ।
४४) १. तिलोत्तमा ।
फिर वह दृष्टिपात से उन्हें अनुरक्त जानकर उनके मनको दक्षिण, पश्चिम और उत्तरकी ओर घुमाती हुई क्रमसे इन दिशाओं में परिभ्रमण करने लगी ||४१||
उस समय ब्रह्माजीने देवोंकी ओरसे लज्जित होकर उन-उन दिशाओंकी ओर मुखको घुमाते हुए उसे नहीं देखा। ठीक है - लज्जा, अभिमान और मायाचार के कारण भला सुन्दर (उत्तम) कार्य कहाँ से किया जा सकता है ? नहीं किया जा सकता है ॥ ४२ ॥
तब उन-उन दिशाओंमें उसके देखने की इच्छासे उन ब्रह्माजीने बुद्धिहीन होकर एकएक हजार वर्ष के उत्पन्न तपके प्रभावको देते हुए एक-एक दिशा में एक-एक मुखकी रचना की ॥ ४३ ॥
इस प्रकार वह उनको अपने में अतिशय आसक्तदृष्टि - अत्यधिक अनुरक्त — देखकर आकाशमें ऊपर चली गई । ठीक ही है, स्त्रियाँ अपने में अनुरक्त हृदयवाले पुरुषोंकी कौन-सी वंचना नहीं किया करती हैं - वे उन्हें अनेक प्रकारसे ठगा ही करती हैं ॥४४॥
देखनेकी इच्छासे पाँच सौ वर्षोंमें उत्पन्न तपके तेज से
तब उन्होंने उसे आकाशमें गर्दभ जैसे शिरको किया || ४५ ||
इस प्रकार से रागमें निमग्न हुए उन ब्रह्माजीका न तो तप स्थिर रह सका और न नृत्यका अवलोकन भी बन सका, प्रत्युत वे उन दोनोंसे ही भ्रष्ट हुए ||४६ ||
४१) ब क दृष्ट्वा f. r दृष्ट्या; व पश्चिमोत्तराम्; इ दश for दिशः । ४२ ) अ निरीक्षिता, ड निरीक्षते । ४४) अ क ड इ भृशासक्तं ; इ नभःस्थलम् । ४६ ) क संगितः ।
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