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धर्मपरीक्षा-११ इत्थं तया समं तस्य भुञ्जानस्य रतामृतम् । कालः प्रावर्तता'त्मानं पश्यतस्त्रिदशाधिकम् ॥७१ खटिका पुस्तिका रामा परहस्तगता सती। नष्टा ज्ञेयाथवा पुंसा घृष्टा स्पृष्टोपलभ्यते ॥७२ पवनेनैकदावाचि पावको भद्र सर्वदा। एकः सुबाभुजां मध्ये यमो जीवति सौख्यतः ॥७३ तेनैका सा वधूलब्धा सुरतामृतवाहिनी। 'यामालिङ्ग्य दृढं शेते सुखसागरमध्यगः ॥७४ न तया दीयमाने ऽसौ सुखे तप्यति पावने । नितम्बिन्या जले नित्यं गङ्गयेव पयोनिधिः ॥७५ कथं मे जायते संगस्तयामा मृगचक्षुषा ।
पावकेनेति पृष्टो ऽसौ निजगाद समीरणः ॥७६ ७१) १. प्रवर्तमान । ७३) १. देवानाम् । २. तिष्ठति । ७४) १. वधूम्। ७५) १. यमः। ७६) १. क पवनः।
इस प्रकारसे उस छायाके साथ सुरतरूप अमृतका-विषयोपभोगका अनुभव करता हुआ वह यमराज अपनेको देव ( इन्द्र) से भी उत्कृष्ट समझ रहा था। उस समय उसका काल सुखपूर्वक बीत रहा था ॥७॥
खड़ी (खडू-लेखनी ), पुस्तक और स्त्री ये दूसरेके हाथमें जाकर या तो नष्ट ही हो जाती हैं-वापस नहीं मिलती हैं या फिर घिसी पिसी हुई प्राप्त होती हैं ॥७२।।
एक समय पवनदेवने अग्निदेवसे कहा कि हे भद्र ! देवोंके मध्यमें एक यम देवका जीवन अतिशय सुखपूर्वक बीत रहा है ।।७३।।
उसने सुरतरूप अमृतको बहानेवाली एक स्त्री प्राप्त की है, जिसका दृढ़तापूर्वक आलिंगन करता हुआ वह सुखरूप समुद्रके मध्यमें सोता है ॥७४॥
___ जिस प्रकार गंगाके द्वारा दिये गये पवित्र जलसे कभी समुद्र सन्तुष्ट नहीं होता है उसी प्रकार उस रमणीके द्वारा दिये जानेवाले पवित्र सुखमें वह यम भी सन्तुष्ट नहीं होता है ।।७।।
हिरण-जैसे नेत्रोंवाली उस सुन्दरीके साथ मेरा संयोग कैसे हो सकता है, इस प्रकार अग्निदेवके द्वारा पूछे जानेपर वह पवनदेव बोला कि उक्त यम उस कृश शरीरवाली
७२) ब हस्ते गता''ज्ञेया यथा पुसां । ७५) क दीव्यमाने; ब जने नित्यं । ७६) अ इ जायताम् ।
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