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अमितगतिविरचिता वरं तवाने दयिते हतो ऽहं यमेन रुष्टेन निशातबाणैः । दुरन्तकामज्वलनेन दग्धस्त्वया विना न ज्वलता सदापि ॥८८ वदन्तमित्थं रभसा गृहीत्वा साग्नि गिलित्वा विदधे ऽन्तरस्थम् । न रोचमाणस्य नरस्य नार्याः खल्वस्ति चित्तं हृदयप्रवेशे ॥८९ तदन्तरस्थं तमबुध्यमानः कृत्वा कृतान्तो नियम समेत्य । चकार मध्ये जठरस्य कान्तां स्त्रीणां प्रपञ्चो विदुषामगम्यः ॥९० सर्वत्र लोके ऽशनपाकहोमप्रदोपयागप्रमुख क्रियाणाम् । विना हताशेन विलोक्य नाशं प्रपेदिरे व्याकुलतां नदेवाः ॥९१ बिडोजसावाचि ततः समोरो विमान्य त्वं ज्वलनं चरण्यो। सर्वत्रगामी त्रिदशेषु मध्ये त्वं वेत्सि सख्येन निवासमस्य ॥९२ ऊचे चरेण्यः' परितस्त्रिलोके गवेषितो देव मया न दृष्टः ।
एकत्र देशे न गवेषितो ऽसौ देवेश तत्रापि गवेषयामि ॥९३ ९०) १. क न ज्ञायमानः। २. स्नानादि। ९२) १. क इन्द्रेण । २. हे वायो। ३. मित्रत्वेन । ९३) १. क पवनः।
हे प्रिये ! क्रुद्ध यमके द्वारा तीक्ष्ण बाणोंसे तेरे आगे मारा जाना अच्छा है, परन्तु तेरे बिना हृदयमें सदा जलती हुई कामरूप दुर्विनाश अग्निसे सन्तप्त रहना अच्छा नहीं है ।।८८।।
तब ऐसा बोलते हुए उस अग्निको छायाने शीघ्रतासे ग्रहण करके निगल लिया और अपने भीतर अवस्थित कर लिया। ठीक है, जो पुरुष स्त्रीको रुचिकर होता है उसे यदि उसके हृदयमें स्थान मिल जाता है तो यह कुछ आश्चर्यकी बात नहीं है ॥८९॥
तत्पश्चात् जब यम अपने नियमको पूरा करके वहाँ आया तब उसने छायाके उदरमें स्थित अग्निदेवको न जानते हुए उस छाया कान्ताको अपने उदरके भीतर कर लिया । ठीक है-स्त्रियोंकी धूर्तता विद्वानोंके द्वारा भी नहीं ज्ञात की जा सकती है ॥९०॥
उस समय अग्निके बिना लोकमें सर्वत्र भोजनपाक, हवन, दीप जलाना और यज्ञ करना आदि क्रियाओंके नाशको देखकर मनुष्य और देव सब ही व्याकुलताको प्राप्त हुए ॥२१॥
यह देखकर इन्द्र वायुसे बोला कि हे वायुदेव ! तुम अग्निकी खोज करो। कारण यह कि देवोंके मध्यमें तुम सर्वत्र संचार करनेवाले हो तथा मित्रभावसे तुम उसके निवासस्थानको भी जानते हो ॥९२।।
इसपर वायुने कहा कि हे देव ! मैंने तीनों लोकोंमें उसे सर्वत्र खोज डाला है, परन्तु वह मुझे कहीं भी नहीं दिखा । केवल एक ही स्थानमें मैंने उसे नहीं खोजा है, सो हे देवेन्द्र ! अब वहाँपर भी खोज लेता हूँ ॥९३।।
८८) अ हतो ऽयं; इ दुष्टेन for रुष्टेन; अ दुग्धस्त्रिया। ८९) अ हृदये प्रवेशः । ९०) अ तदम्बरस्थं तव बुध्यमानः कृतान्ततोयं नियम; ब कान्ता । ९२) क सख्युन निवासं । ९३) अ ब चरण्युः, इ वरेण्यः ।
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