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अमितगतिविरचिता क्षिप्रं गत्वा तस्य साधोः समीपं भद्रा मौख्यं शोषयध्वं स्वकीयम् । पौरैरुक्ता वाचमेवं विसृष्टीः सन्तो ऽसाध्ये कुर्वते न प्रयत्नम् ॥८९ सारासाराचारसंचारहारी' विप्रा मूर्यो भाषितो यश्चतुर्धा। युष्मन्मध्ये कोऽपि यद्यस्ति तादृक् तत्त्वं वक्तुं भो तदाहं बिभेमि ॥९० वेश्या लज्जामीश्वरस्त्यागमुग्रं भत्यो गवं भोगतां ब्रह्मचारी। भण्डः शौचं शोलनाशं पुरन्ध्री कुर्वन्नाशं याति लोभं नरेन्द्रः ॥९१ न कीतिर्न कान्तिनं लक्ष्मीनं पूजा न धर्मो न कामो न वित्तं न सौख्यम् । विवेकेन हीनस्य पुंसः कदाचित यतः सर्वदातो' विवेको विधेयः ॥९२ विना यो ऽभिमानं विधत्ते विधेयं जनैनिन्दनीयस्य तस्यापबुद्धः । विनश्यन्ति सर्वाणि कार्याणि पुंसः समं जीवितव्येन लोकद्वये ऽपि ॥९३
८९) १. ते मूर्खा मुक्ताः । ९०) १. विवेचनरहितः । ९२) १. भो विप्राः। ९३) १. कार्यम् । २. नष्टबुद्धेः ।
इस प्रकार उपर्युक्त चारों मुल्की मुर्खताके इस वृत्तको सुनकर नगरवासियोंने उनसे कहा कि हे भद्र पुरुषो! तुम लोग शीघ्र ही उस साधुके समीपमें जाकर अपनी मूर्खताको शुद्ध कर लो, इस प्रकार कहकर उन सबने उनको बिदा कर दिया। ठीक है, जो कार्य सिद्ध ही नहीं हो सकता है उसके विषयमें सत्पुरुष कभी प्रयत्न नहीं किया करते हैं ।।८९॥
मनोवेग कहता है कि हे विप्रो ! जो मूर्ख योग्य-अयोग्य आचरण और गमनका अपहरण करता है-उसका विचार नहीं किया करता है-उसके चार भेदोंका मैंने निरूपण किया है। ऐसा कोई भी मूर्ख यदि आप लोगोंके बीच में है तो मैं उस प्रकारके तत्त्वकोयथार्थ वस्तु स्वरूपको-कहनेके लिए डरता हूँ ॥१०॥
लज्जा करनेसे वेश्या, अत्यधिक दान करनेसे धनवान, अभिमानके करनेसे सेवक, भोग भोगनेसे ब्रह्मचारी, पवित्र आचरणसे भाँड, शीलको नष्ट करनेसे पतिव्रता पुत्रवती स्त्री और लोभके करनेसे राजा नाशको प्राप्त होता है-ये सब ही उक्त व्यवहारसे अपने-अपने प्रयोजनको सिद्ध नहीं कर सकते हैं ॥९१।।
विवेकहीन मनुष्यको न कीर्ति, न कान्ति, न लक्ष्मी, न प्रतिष्ठा, न धर्म, न काम, न धन और न सुख कुछ भी नहीं प्राप्त होता। इसीलिए इनकी अभिलाषा करनेवाले मनुष्योंको सदा विवेकको करना चाहिए ||९२॥
__ जो कर्तव्य कार्यके बिना ही अभिमान करता है उस दुर्वद्धि मनुष्यकी जनोंके द्वारा निन्दा की जाती है व उसके दोनों ही लोकोंमें जीवितके साथ सब कार्य भी विनष्ट होते हैं ।।९३॥
८९) अ मूर्ख for मौख्यं; अ पौरैरुक्त्वा । ९०) ब चतुर्थः for चतुर्धा । ९१) अ ईश्वरत्याग'; अ भोगिनां, क भोगितां । ९३) अ यो विधेयं विधत्ते ऽभिमानम् ।
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