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धर्मपरीक्षा-१० प्रबोधितास्त्वया भद्र विमूढमनसो वयम् । दीपकेन विना रूपं सचक्षुरपि नेक्षते ॥३१ यदीदक' कुरुते विष्णुः प्रेरितः परमेष्ठिना। तदेषे प्रेरितः पित्रा विधत्ते तृणविक्रयम् ॥३२ देवे कुर्वति नान्यायं शिष्याणां प्रतिषेधनम् । वित्तापहारके भूपे तस्करः केन वार्यते ॥३३ ईदृक्कर्मकरे विष्णौ परस्यास्ति न दूषणम् । श्वश्रर्दश्चारिणी यत्र न स्नुषा तत्र दुष्यति ॥३४ सरागत्वात्तदंशानां' रागो ऽस्ति परमेष्ठिनः। रागत्वेऽवयवानां हि नीरागो ऽवयवी कथम् ॥३५ उदरान्तःस्थिते लोके सीतापहियते कथम् । नाकाशान्तर्गतं वस्तु बहिर्भवितुमर्हति ॥३६
३२) १. कर्म ईदृशम् । २. प्रत्यक्षीभूतः । ३५) १. परमेष्ठिनः । २. सति । ३. पुरुषः ।
हे भद्र ! अभी तक हमारा मन अतिशय मूढ़ हो रहा था। इस समय तुमने हम-जैसे मूढबुद्धि जनोंको प्रबुद्ध कर दिया है। ठीक है-नेत्रोंसे संयुक्त होकर भी प्राणी दीपकके बिना-प्रकाशके अभावमें-रूपको नहीं देख पाता है ॥३१॥
यदि वह विष्णु परमेष्ठीकी-ब्रह्मदेवकी-प्रेरणासे इस प्रकारके कार्यको करता है तो फिर यह ( मनोवेग ) पिताकी प्रेरणा पाकर घास व लकड़ियोंके बेचनेके कामको करता है ॥३२॥
. देवके स्वयं अन्याय करने पर शिष्य जनोंको उस अन्यायसे नहीं रोका जा सकता है । जैसे राजा ही यदि दूसरोंके धनका अपहरण करता हो-स्वयं चोर हो-तो फिर चोरको चोरी करनेसे दूसरा कौन रोक सकता है ? कोई नहीं रोक सकता है ॥३३॥
विष्णुके स्वयं ही ऐसे अयोग्य कार्यों में संलग्न होनेपर अन्य किसीको दोष नहीं दिया जा सकता है । ठीक भी है-जहाँ सास स्वयं दुराचरण करती है वहाँ पुत्रवधूको दोष नहीं दिया जा सकता है ॥३४॥ __इसके अतिरिक्त उस विष्णुके अंशभूत अन्य जनोंके रागयुक्त होनेसे परमेष्ठीके भी राग होना ही चाहिए । कारण यह कि अवयवोंके-अंशोंके-राग होनेपर अवयवी-अंशवान् (ईश्वर)-उस रागसे रहित कैसे हो सकता है ? उसका भी सराग होना अनिवार्य है ॥३५।।
जब समस्त लोक ही विष्णु के उदर में स्थित है तब भला सीताका अपहरण कैसे किया जा सकता है ? उसका अपहरण सम्भव नहीं है । कारण यह कि किसी सुरक्षित स्थानके भीतर अवस्थित वस्तुका बाहर निकलना सम्भव नहीं है ।।३६।। ३२) अ विक्रये । ३३) अ नाज्ञायं, क चान्यायं; अ प्रतिबोधनम् । ३४) अकर्मपरे; ब किं स्नुषा; अ दुष्यते । ३५) ब हि न रागो । ३६) अ नावासान्तर्गतं ।
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