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धर्मपरीक्षा-१० एकत्र वासरे द्रव्यं मूषकैर्यद्विनाश्यते । सहस्रांशो ऽपि नो तस्य मूल्यमेतस्य दीयते ॥७९ मीलयित्वा ततो मूल्यं क्षिप्रमग्राहि से द्विजैः । दुरापे वस्तुनि प्राजन कार्या कालयापनौ ॥८० नभश्चरस्ततो ऽवादीत् परीक्ष्य गृह्यतामयम् । दुरुत्तरान्यथा विप्रा भविष्यति क्षतिधुवम् ॥८१ निरीक्ष्य ते विकर्णकं ततो बिडालमूचिरे। अनश्यदस्य कर्णको निगद्यतामयं कथम् ॥८२ खगेन्द्रनन्दनो ऽगवत्ततः पथि श्रमातुराः। स्थिताः सुरालये वयं विचित्रमूषके निशि ॥८३ समेत्य तो मषकैरभक्ष्यतास्य कर्णकः । क्षुधातुरस्य तस्थुषैः सुषुप्तस्यै विचेतसः ॥८४
७९) १. बिडालस्य । ८०) १. ओतुः । २. कालक्षेपणा। ८१) १. क नाशः। ८२) १. कर्णरहितम्। ८४) १. आगत्य । २. सुरालये। ३. स्थितवतः । ४. सुप्तस्य ।
चूहे एक ही दिनमें जितने द्रव्यको नष्ट किया करते हैं उसके हजारवें भाग मात्र भी यह इसका मूल्य नहीं दिया जा रहा है ।।७९॥
तत्पश्चात् उन ब्राह्मणोंने मिलकर उतना मूल्य एकत्र किया और उसे देकर शीघ्र ही उस बिलावको ले लिया । ठीक भी है-विद्वान् मनुष्योंको दुर्लभ वस्तुके ग्रहण करने में काल-यापन नहीं करना चाहिए-अधिक समय न बिताकर उसे शीघ्र ही प्राप्त कर लेना चाहिए ।।८०॥
उस समय मनोवेग विद्याधर बोला कि हे विप्रो! इस बिलावकी भली भाँति परीक्षा करके उसे ग्रहण कीजिए, क्योंकि, इसके बिना निश्चयसे बहुत बड़ी हानि हो सकती है ॥८॥
तत्पश्चात् वे ब्राह्मण उस बिलावको एक कानसे हीन देखकर बोले कि इसका यह एक कान कैसे नष्ट हो गया है, यह हमें बतलाओ ॥२॥
यह सुनकर विद्याधरकुमार बोला कि हम मार्गमें परिश्रमसे व्याकुल होकर रातमें एक देवालयमें ठहर गये थे। वहाँ विचित्र चूहे थे। वहाँ स्थित होकर जब यह बिलाव भूखसे पीड़ित होता हुआ गहरी नींदमें सो गया था तब उन चूहोंने आकर इसके कानको खा लिया है ।।८३-८४॥
७९) अ सहस्रांशश्चा। ८१) ब दुरन्तरान्यथा द्विजा; अ क्षिति । ८२) इ तं for ते ; अ विकर्ण तं; अ कर्णेको, इ कर्णको। ८३) क पथश्रमा, इ परिश्रमा । ८४) डरभज्यतास्य ; ड इ कर्णको; अ तस्थुषुः ; अ सुषुप्सुप्तो, ब सुषुप्सतो, क ड सुषुप्ससो।
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