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अमितगतिविरचिता इहास्ति पुण्डरीकाक्षो' देवो भुवनविश्रुतेः । सृष्टिस्थिति विनाशानां जगतः कारणं परम् ॥११ यस्य प्रसादतो लोका लभन्ते पदमव्ययम् । व्योमेव व्यापको निलो निमलो यो' ऽक्षयः सदा ॥१२ धनुःशङ्खगदाचक्रभूषिता यस्य पाणयः । त्रिलोकसदनाधारस्तम्भाः शत्रुदवानलाः ॥१३ दानवा येन हन्यन्ते लोकोपद्रवकारिणः। दुष्टा दिवाकरेणेव तरसा' तिमिरोत्कराः॥१४ लोकानन्दकरी पूज्या श्रीः स्थिता यस्य विग्रहे। तापविच्छेदिका हृद्या ज्योत्स्नेव हिमरोचिषः ॥१५ कौस्तुभो भासते यस्य शरीरे विशदप्रभः। लक्ष्म्येव स्थापितो दीपो मन्दिरे सुन्दरे निजे ॥१६ कि द्विजा भवतां तत्र प्रतीतिविद्यते न वा। सर्वदेवाधिके देवे वैकुण्ठे परमात्मनि ॥१७
११) १. नारायणः ; क विष्णुः । २. विख्यातः । ३. पालक । ४. भवति । १२) १. विष्णुदेवः। १३) १. हस्तविशेषः। १४) १. क शीघ्रम् । १५) १. क चन्द्रस्य। १७) १. देवे।
___ यह कहकर मनोवेग बोला कि यहाँ (लोकमें ) प्रसिद्ध वह विष्णु परमेश्वर अवस्थित है जो जगत्की रचना, उसके पालन व विनाशका उत्कृष्ट कारण है; जिसके प्रसादसे लोग अविनश्वर पद ( मुक्तिधाम ) प्राप्त करते हैं; जो आकाशके समान व्यापक, नित्य, निर्मल एवं सदा अविनश्वर है; धनुप, शंख, गढ़ा और चक्रसे सुशोभित जिसके बाहु तीनों लोकरूप धरके आधारभूत स्तम्भोंके समान होकर दावानलके समान शत्रुओंको भस्म करनेवाले हैं; जिस प्रकार सूर्य अन्धकारसमूहको शीघ्र नष्ट कर देता है उसी प्रकार जो लोकमें उपद्रव करनेवाले दुष्ट जनोंको शीघ्रतासे नष्ट कर देता है, जिस प्रकार चन्द्रके शरीरमें सन्तापको नष्ट करनेवाली मनोहर चाँदनी अवस्थित है उसी प्रकार जिसके शरीर में लोगोंको आनन्दित करनेवाली पूज्य लक्ष्मी अवस्थित है, तथा जिसके शरीरमें अवस्थित निर्मल कान्तिवाला कौस्तुभमणि ऐसा प्रतिभासित होता है जैसे मानो वह लक्ष्मीके द्वारा अपने सुन्दर भवनमें स्थापित किया गया दीपक ही हो ॥११-१६।।
हे विप्रो ! इस प्रकारके असाधारण स्वरूपको धारण करके जो सब देवों में श्रेष्ठ देव है उस विष्णु परमात्माके विषयमें आप लोगोंका विश्वास है या नहीं? ॥१७॥
११) अ पुण्डरीकाख्यो । १६) ब क वासितो for भासते ।
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