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धर्मपरीक्षा-८
१२९ लाडलीवास्ति यद्यत्र सारासाराविवेचकः । बिभेमि पृच्छ्यमानो ऽपि तदा वक्तुमहं द्विजाः ॥४८ दुरापागुरुविच्छेदी भाषितो निविचारकः। युष्माकं चन्दनत्यागी श्रूयतां भाष्यते ऽधुना ॥४९ मध्यदेशे सुखाधारे महनीये कुरूपमे । राजा शान्तमना नाम्ना मथुरायामजायत ॥५० एकदा दुनिवारेण ग्रीष्मार्केणेव सिन्धुरः। पित्तज्वरेण धात्रीशो विह्वलो ऽजनि पीडितः॥५१ तीव्रण तेन तापेन तप्तश्चलचलायितः। शयने कोमले ऽर्केण स्वल्पे मत्स्य इवाम्भसि ॥५२ तस्योपचर्यमाणोऽपि भैषज्यैर्वीर्यधारिभिः'।
तापो ऽवर्धत दुश्छेदः काष्ठेरिव विभावसुः ॥५३ ४९) १. एवंविधा निर्विचारका आवां [वयं] न, त्वं कथय । ५०) १. भोगभूमिसदृशे । ५१) १. हस्ती । ५२) १. सन् । ५३) १. प्रबलैः । २. अग्निः ।
हे विप्रो ! यदि यहाँ उस हलवाहकके समान सार व असारका विचार न करनेवाला कोई है तो मैं पूछे जानेपर भी कहने के लिए डरता हूँ॥४८॥
इस प्रकार मैंने आप लोगोंसे दुर्लभ अगुरु वृक्षोंको काटकर जलानेवाले उस अविवेकी हलवाहककी कथा कही है। अब इस समय चन्दनत्यागीके वृत्तको कहता हूँ, उसे सुनिए ॥४९॥
कुरु ( उत्तम भोगभूमि ) के समान सुखके आधारभूत व पूजनीय मध्यदेशके भीतर मथुरा नगरीमें एक शान्तमना नामका राजा था ॥५०॥
एक समय जिस प्रकार दुर्निवार ग्रीष्म ऋतु सम्बन्धी सूर्यके तापसे पीड़ित होकर हाथी व्याकुल होता है उसी प्रकार वह राजा पित्तज्वरसे पीड़ित होकर व्याकुल हुआ॥५१॥
जिस प्रकार अतिशय थोड़े पानीमें स्थित मत्स्य सूर्यके द्वारा सन्तप्त होकर तड़पता है उसी प्रकार वह उस तीव्र ज्वरसे सन्तप्त होकर कोमल शय्याके ऊपर तड़प रहा था ॥५२॥
उसके इस पित्तज्वरकी यद्यपि शक्तिशाली ओषधियोंके द्वारा चिकित्सा की जा रही थी, फिर भी वह दुर्विनाश ज्वर उत्तरोत्तर इस प्रकार बढ़ रहा था जिस प्रकार कि लकड़ियोंके द्वारा अग्नि बढ़ती है ॥५३॥ ४८) क इ°विचारकः । ४२) अ निविचारिणः ब निविचारणः । ५०) इ गुरूपमे । ५२) अ ब चलायते; अ ब कोमलार्केण; व क सो ऽल्पे for स्वल्पे । ५३) भेषज ।
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