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धर्मपरीक्षा-९
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क्रीडतो मे समं ताभ्यां कालो गच्छति सौख्यतः। एकदा शयितो रात्री भव्ये ऽहं शयनोदरे ॥७ एते पाश्र्वद्वये सुप्ते द्वे बाहुद्वितयं प्रिये । अवष्टभ्यं ममागत्य वेगतो गुणभाजने ॥८ विलासाये ममादायि भालस्योपरि दीपकः । कामिनो हि न पश्यन्ति भवन्ती विपदं सदा ॥९ प्रज्वलन्त्यदूर्ध्ववक्त्रस्य मूषकेण दुरात्मना। पातिता नीयमाना मे नेत्रस्योपरि वतिका ॥१० विचिन्तयितुमारब्धं मयेदं व्याकुलात्मना। जागरित्वा ततः सद्यो दह्यमाने विलोचने ॥११ यदि विध्यापयाग्नि हस्तमाकृष्य दक्षिणम् । तदा कुप्यति मे कान्ता दक्षिणाथ परं' परा॥१२ ततो भार्याभयग्रस्तः स्थितस्ताववहं स्थिरः। स्फुटित्वा नयनं यावद् वामं काणं ममाभवत् ॥१३
७) १. शय्या । ८) १. धृत्वा। ९) १. क्रीडनाय। १२) १. वामहस्तम्; क केवलम् । २. वामा भार्या कुप्यति; क परा स्त्री।
उनके साथ रमण करते हुए मेरा समय सुखसे बीत रहा था। एक दिन मैं रातमें सुन्दर शय्याके मध्यमें सो रहा था। उस समय गुणोंकी आश्रयभूत ये दोनों प्रियतमाएँ वेगसे आयीं और मेरे दोनों हाथोंका आलम्बन लेकर-एक-एक हाथको अपने शिरके नीचे रखकर दोनों ओर सो गयीं ॥७-८॥
सोने के पूर्व मैंने विलासके लिए अपने मस्तकके ऊपर एक दीपक ले रखा था। सो ठीक भी है-कामी जन आगे होनेवाली विपत्तिको कभी नहीं देखा करते हैं ॥९॥ . इसी समय एक दुष्ट चूहेने उस दीपककी बत्तीको ले जाते हुए उसे ऊपर मुँह करके सोते हुए मेरी आँखके ऊपर गिरा दी ॥१०॥
तत्पश्चात् आँखके जलनेपर शीघ्र जागृत होकर व्याकुल होते हुए मैंने यह विचार करना प्रारम्भ किया कि यदि मैं अपने दाहिने हाथको खींचकर उससे आगको बुझाता हूँ तो मेरे दाहिने पार्श्वभागमें सोयी हुई स्त्री क्रुद्ध होगी और यदि दूसरे ( बायें) हाथको खींचकर उससे आगको बझाता हूँ तो दसरी स्त्री क्रद होगी ॥११-१२।।
यह विचार करते हुए मैं स्त्रियोंके भयसे ग्रस्त होकर तबतक वैसा ही स्थिर होकर पड़ा रहा जबतक कि मेरा बायाँ नेत्र फूट करके काना नहीं हो गया ॥१३॥
८) अद्वितये । ९) इ मयादायि; ब क ड इ दीपकम् । १०) ब क इ पतिता; अ वृत्तिका, ब दीपिका for वर्तिका। ११) अ विचिन्तयन्तमा'; ब इ दह्यमानो।
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