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धर्मपरीक्षा-५ वक्रः करोति लोकानां सर्वदोपद्रवं परम् । सुखाय जायते' कस्य वक्रो दोषनिविष्टधीः ॥८० व्याधिमवाप कदाचन वक्रः प्राणहरं यमराजमिवासौ। यो वितनोति परस्य हि दुःखं कं न स दोषमुपैति वराकः ॥८१ तं निजगाद तदीयतनूजस्तात विधेहि विशुद्धमनास्त्वम् । कंचन धर्ममपाकृतदोषं यो विदधाति परत्र सुखानि ॥८२ पुत्रकलनधनादिषु मध्ये को ऽपि न याति समं परलोकम् । कर्म विहाय कृतं स्वयमेकं कर्तुमलं सुखदुःखशतानि ॥८३ को ऽपि परो न निजो ऽस्ति दुरन्ते जन्मवने भ्रमतां बहुमार्गे। इत्थमवेत्ये विमुच्य कुबुद्धि तात हितं कुरु किंचन कार्यम् ॥८४
८०) १. अपि तु न । २. क परदोषस्थापितबुद्धिः । ८२) १. वक्रदासः । २. दूरीकृतदोषम् । ३. यः धर्मः। ८३) १. पुण्यपापम् । २. समर्थम् । ८४) १. ज्ञात्वा ।
वक्र निरन्तर ग्रामवासी जनोंको पीड़ा दिया करता था। ठीक है-जिसकी बुद्धि सदा दोषोंपर ही निहित रहती है वह भला किसके लिए सुखका कारण हो सकता है ? नहीं हो सकता ॥८॥
किसी समय वह वक्र प्राणोंका अपहरण करनेवाले यमराजके समान किसी व्याधिको प्राप्त हुआ-उसे भयानक रोग हो गया । ठीक है-जो दूसरेको दुख दिया करता है वह बेचारा कौन-से दोषको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् वह अनेक दोषोंका पात्र बनता है ॥८॥
यह देखकर उसका वक्रदास नामका पुत्र बोला कि हे पिताजी ! तुम निर्मल मनसे दोषोंको दूर करनेवाले किसी ऐसे धर्मकार्यको करो जो परलोकमें सुखोंको देने वाला है ।।८।।
जो स्वयं किया हुआ कर्म सैकड़ों सुख-दुःखोंके करनेमें समर्थ है उस एक कर्मको छोड़कर दूसरा पुत्र, स्त्री और धन आदिमें से कोई भी जीवके साथ परलोकमें नहीं जाता है ॥८॥
हे पिताजी ! जिस संसाररूप वनका अन्त पाना अतिशय कठिन है तथा जो अनेक योनियोंरूप बहुत-से मार्गोंसे व्याप्त है उस जन्म-मरणरूप संसार-वनके भीतर परिभ्रमण करनेवाले प्राणियोंका कोई भी पर पदार्थ अपना नहीं हो सकता है, ऐसा विचार करके दुर्बुद्धिको छोड़ दीजिए और किसी हितकर कार्यको कीजिए ॥८४॥
८३) ब क ड इलोके । ८४) इ कंचन ।
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