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अमितगतिविरचिता त्वमसि को बटुकेति से भाषितो द्विजमुवाच विनीतमनाः पुनः । तव विभो बटुको ऽस्मि स यज्ञकश्चरणपङ्कजसेवनजीवितः॥८८ इति निशम्य जगाद स मूढधीः क बटुकः स पटुमम भस्मितः । त्वमपरं वज वञ्चय वञ्चकं तव न यो वचनं शठ बुध्यते ॥८९ इति निगद्य गतस्य पुरान्तरे प्रियतमा मिलिता सहसा खला। पदपयोरुहरोपितमस्तका भयविकम्पितधीरगदीदिति ॥९० तव धनं सकलं व्यवतिष्ठते गुणनिधान सहस्व दुरोहितम् । निजदुरोहितवेपितचेतसे शुभमतिर्न कदाचन कुप्यति ॥९१ इति वचो विनिशम्य स तां जगौ त्वमसि काख्यदसौ' तव यज्ञिका । कथमलाबुनिवेशितविग्रहां प्रियतमास्ति बहिर्मम यज्ञिका ॥९२
८८) १. इति द्विजेन । २. बटुकः; क भूतमतिः । ९०) १. यज्ञका। ९२) १. अहम् । २. क तुम्बिकास्थितशरीरा।
यह सुनकर वह ब्राह्मण बोला कि हे बटुक ! तुम कौन हो । उसके इस प्रकार पूछनेपर वह नम्रतापूर्वक ब्राह्मणसे बोला कि हे प्रभो! आपके चरण-कमलोंकी उपासनापर जीवित रहनेवाला मैं वही यज्ञ बटुक हूँ जो आपके घरमें रहता था ॥८८||
इस बातको सुनकर वह दुर्बुद्धि ब्राह्मण बोला कि वह मेरा चतुर बटुक जलकर भस्म हो चुका है, वह अब कहाँसे आ सकता है ? जा, किसी दूसरेको धोखा देना । हे मूर्ख ! तेरे धोखा देनेवाले कथनको कौन नहीं जानता है ? ॥८९।।
इस प्रकार कहकर वह आगे चल दिया । तब आगे जाते हुए उसे किसी दूसरे नगरमें अकस्मात् वह दुष्ट यज्ञा प्रियतमा भी मिल गयी। वह भयसे काँपती हुई उसके चरणकमलोंमें मस्तकको रखकर इस प्रकार बोली ॥२०॥
हे गुणोंके भण्डार ! तुम्हारा सब धन व्यवस्थित है, मेरी दुष्प्रवृत्तिको क्षमा कीजिए। कारण यह कि जिसका मन अपने दुराचरणसे काँप रहा है उसके ऊपर उत्तम बुद्धिका धारक मनुष्य कभी भी क्रोधित नहीं होता है ॥९१॥
उसके इस कथनको सुनकर ब्राह्मण उससे बोला कि तुम कौन हो ? इसके उत्तरमें उसने कहा कि हे ब्राह्मण ! वह मैं तुम्हारी यज्ञा हूँ। इसपर ब्राह्मण बोला कि उसका शरीर तो इस तूंबड़ीके भीतर रखा है, फिर भला वह मेरी प्रियतमा यज्ञा बाहर कैसे आ सकती है ? ॥२२॥
८८) ब विहीनमनाः; अ विभो ऽस्मि गृहे ऽपि स यज्ञकश्चरण ; अ सेवनजीविकः, क सेवकजीवितः । ८९) अ को for यो। ९१) अ व्यवतिष्ठति, इ प्रिय तिष्ठति । ९२) अ का द्विज सा तव, इ का वद सा तव।
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