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धर्मपरीक्षा-७
विनम्रमौलिभिर्भूपै राजाभून्नृपशेखरः । तत्र व्योमरावत्यां मघवानिव नाकिभिः ॥३० सर्वरोगजराच्छेदि सेव्यमानं शरीरिणाम् । दुरवापं परैर्हृद्यं रत्नत्रयमिवाचितम् ॥३१ रूपगन्धरसस्पर्शैः सुन्दरैः सुखदायिभिः । आनन्दितजनस्वान्तं दिव्यस्त्रीयौवनोपमम् ॥३२
एक माम्रफलं तस्य प्रेषितं प्रियकारिणा ।
राज्ञा वङ्गाधिनाथेन सौरभ्याकृष्टषट्पदम् ॥३३॥ त्रिभिर्विशेषकम् ॥
जहर्ष धरणीनाथस्तस्य दर्शनमात्रतः । न कस्य जायते हर्षो रमणीये निरीक्षिते ॥३४ एकेनानेन लोकस्य कश्चिदास्रफलेन मे । सर्वरोगहुताशेन संविभागो न जायते ॥ ३५ यथा भवन्ति भूरीणि कारयामि तथा नृपः । ध्यात्वेति वनपालस्य समप्यं न्यगदीदिति ॥३६
३०) १. चम्पायाम् । २. क इन्द्रः । ३. क सुरैः । ३३) १. परममित्रभावेन । २. भ्रमरम् । ३६) १. फलानि ।
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जिस प्रकार अमरावतीमें देवोंसे आराधनीय इन्द्र रहता है उसी प्रकार उस चम्पा - नगरीमें नमस्कार करते समय मुकुटोंको झुकानेवाले अनेक राजाओंसे सेवनीय नृपशेखर
नामका राजा था ||३०||
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उस राजाके पास उसके हितैषी वंगदेशके राजाने सुगन्धिसे खेंचे गये भ्रमरोंसे व्याप्त एक आम्रफलको भेजा । जिस प्रकार जीवोंके द्वारा सेव्यमान दुर्लभ पूज्य रत्नत्रय उनके सब रोगों और जराको नष्ट किया करता है उसी प्रकार दूसरोंके लिए दुर्लभ, मनोहर और पूजाको प्राप्त वह आम्रफल भी प्राणियोंके द्वारा सेव्यमान होकर उनके सब प्रकार के रोगों एवं जराको दूर करनेवाला था; तथा जिस प्रकार दिव्य स्त्रीका यौवन सुन्दर व सुखप्रद रूप, गन्ध, रस और स्पर्शके द्वारा प्राणियोंके मनको प्रमुदित किया करता है उसी प्रकार वह आम्रफल भी सुन्दर व सुखप्रद अपने रूप, गन्ध, रस और स्पर्शके द्वारा मनुष्योंके अन्तःकरणको आनन्दित करता था ।। ३१-३३॥
उसके देखने मात्रसे ही राजाको बहुत हर्ष हुआ । ठीक है - रमणीय वस्तुके देखने पर किसे हर्ष नहीं हुआ करता है ? सभीको हर्ष हुआ करता है ||३४||
समस्त रोगोंके लिए अग्निस्वरूप इस एक आम्रफलसे मेरे प्रजाजनको कोई विभाग नहीं किया जा सकता है, अतएव जिस प्रकारसे ये संख्या में बहुत होते हैं वैसा कोई उपाय
३२) इ सुखकारिभिः । ३४ ) बस जहर्षं । ३६) ब समर्थो for समर्प्य ।
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