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धर्मपरीक्षा-७ अविवार्य' फलं दत्तं हा कि दुर्मेधसा मया। यदि दत्तं कुतश्छिन्नश्चुतो रोगनिषदकः ॥५४ इत्थं वज्रानलेनेव दुनिवारेण संततम् । अदात चिरं राजा पश्चात्तापेन मानसे ॥५५ पूर्वापरेण कार्याणि विदधात्यपरीक्ष्य यः। पश्चात्तापमसौ तीव्र चूतघातीव गच्छति ॥५६ अविचार्य जनः कृत्यं यः करोति दुराशयः । क्षिप्रं पलायते तस्य मनीषितमशेषतः ॥५७ निर्विचारस्य जीवस्य कोपध्याहतचेतसः। हस्तीभवन्ति दुःखानि सर्वाणि जननद्वये ॥५८ निविवेकस्य विज्ञाय दोषमित्थमवारणम् । विवेको हृदि कर्तव्यो लोकद्वयसुखप्रदः॥५९ क्षेत्रकालबलद्रव्ययुक्तायुक्तपुरोगमाः।
विचार्याः सर्वदा भावा विदुषा हितकाक्षिणा ॥६० ५४) १. कुमारस्य फलं किं दत्तम् । २. क दुर्बुद्धिना। ५७) १. वस्तु। ५८) १. हस्ते भवन्ति। ६०) १. प्रमुखाः । क्रोधसे अन्धे होकर विवेक-बुद्धिको नष्ट करते हुए मैंने कैसे जड़-मूलसे नष्ट कर दिया। तथा मैंने दुर्बुद्धिवश कुछ भी विचार न करके उसके उस विषैले फलको राजकुमारको क्यों दिया,
और यदि अविवेकसे दे भी दिया था तो फिर उस रोगनाशक आम्रवृक्षको कटवा क्यों दिया ? ॥५२-५४।।
__इस प्रकार वह राजा मनमें दुर्निवार वनाग्निके समान उसके पश्चात्तापसे बहुत कालतक सन्तप्त रहा ॥५५।।
जो मनुष्य पूर्वापर विचार न करके कार्योंको करता है वह उस आम्रवृक्षके घातक राजाके समान महान् पश्चात्तापको प्राप्त होता है ॥५६॥
जो दुर्बुद्धि मनुष्य बिना विचारे कामको करता है उसका अभीष्ट शीघ्र ही पूर्णरूपसे नष्ट हो जाता है ।।५७।।
जिस अविवेकी जीवका चित्त क्रोधसे हरा जाता है उसके दोनों ही लोकोंमें सब दुख हस्तगत होते हैं ।।५८।।
इस प्रकार अविवेकी मनुष्यके दुर्निवार दोषको जानकर हृदयमें दोनों लोकोंमें सुखप्रद विवेकको धारण करना चाहिए ॥५९।।
___ जो विद्वान अपने हितका इच्छुक है उसे निरन्तर द्रव्य, क्षेत्र, काल, बल और योग्यअयोग्य आदि बातोंका विचार अवश्य करना चाहिए ॥६०॥ ५४) क 'निपूदनः । ५५) अ क ड इनलेनैव । ५६) बत्यपरीक्षया । ५८) अव्याहृतचेतसा, ड इ व्याप्त; अद्वयोः । ५९) अ विज्ञातम् । ६०) अ विचार्य ।
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