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धर्मपरीक्षा-५ निशम्येति वचस्तस्य भट्टस्य हितभाषिणः। स गत्वा सूचयामास कुरङ्गयाः सकलं कुधीः ॥६९ सा जगाद दुराचारा चारित्रं हर्तुमुद्यतः। मया स्वामिन्ननिष्टो ऽयं गृह्णीते दूषणं मम॥७० अन्यायानामशेषाणां नकाणामिव नीरधिः । निधानमेष दुष्टात्मा क्षिप्रं निर्धाटयतां प्रभो ॥७१ तस्यास्तेनेति' वाक्येन स हितोऽपि निराकृतः। किं वा न कुरुते रक्तो रामाणां वचसि स्थितः ॥७२ सद्वाक्यमविचाराणां दत्तं दत्ते महाभयम् । द्विजिह्वानामिवाहीनां क्षीरपानं हितावहम् ॥७३
६९) १. मूढः। ७१) १. जलचरजीवानां मत्स्यादीनाम् । ७२) १. क ग्रामकूटेन।
इस प्रकार हितकारक भाषण करनेवाले उस भद्र ब्राह्मणके कथनको सुनकर उस दुर्बुद्धि ग्रामकूटने जाकर उस सबकी सूचना कुरंगीको कर दी ॥६९॥
___उसे सुनकर वह दुराचारिणी बोली कि हे स्वामिन् ! वह मेरे शीलको नष्ट करनेके लिए उद्यत हुआ, परन्तु मैंने उसकी इच्छा पूर्ण नहीं की। इसीलिए वह मेरे दोषको ग्रहण करता है-मेरी निन्दा करता है ॥७॥
जिस प्रकार समुद्र मगर-मत्स्य आदि हिंसक जलजन्तुओंका स्थान है उसी प्रकार यह दुष्ट ब्राह्मण समस्त अन्यायोंका घर है । हे स्वामिन् ! उसे शीघ्र निकाल दीजिए ।।७१।।
कुरंगीके उस वाक्यसे उस हितैषी ब्राह्मणका भी निराकरण किया गया-उसके कहे अनुसार उक्त ब्राह्मणको भी निकाल दिया गया। ठीक है-स्त्रियोंके वचनपर विश्वास करनेवाला रक्त पुरुष क्या नहीं करता है ? अर्थात् वह उनके ऊपर भरोसा रखकर अनेक अयोग्य कार्योंको किया करता है ॥७२॥
विवेकसे रहित चुगलखोर मनुष्योंको दिया गया सदुपदेश भी इस प्रकार महान् भयको देता है जिस प्रकार कि दो जिह्वावाले सोंके लिए कराया गया दुग्धपान महान् भयको देता है ।।७३।।
६९) अ भद्रस्य हित । ७०) अचारचारित्रं, ड चाराश्चारित्रं; ड तेन, क मयि for मया; अ स्वामिन्निहष्टोऽयं । ७१) अ निधानमेव; अ निर्यितां, ब निभद्यतां, क निर्धाद्यतां, ड निर्भीयतां, इ निर्घाट्यतां । ७२) अ स्थितिः । ७३) इ दत्तं दत्तं; व पयःपानं ।
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