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अमितगतिविरचिता
न भुङ्क्ते न शेते विनान्यस्य चिन्तां लक्ष्मी विसोढुं क्षमो यो ऽन्यदीयाम् । महाद्वेषवत्राग्निदग्धाशयो ऽसौ
न लोकद्वये ऽप्येति सौख्यं पवित्रम् ॥१५
ज्वलन्तं दुरन्तं स्थिरं श्वभ्रर्वाह्न
प्रविश्य क्षमन्ते चिरं स्थातुमज्ञाः । न संपत्तिमन्यस्य नीचा विसोढुं
सदा द्विष्टचित्ता निकृष्टाः कनिष्ठाः ॥९६
यो विहाय वचनं हितमज्ञः स्वीकरोति विपरीतमशेषम् । नास्य दुष्टहृदयस्य पुरस्ताद्भाषते ऽमितगतिर्वचनानि ॥९७
इति धर्मपरीक्षायाममितगतिकृतायां पञ्चमः परिच्छेदः ॥५
९५) १. दुःखदानं विना । २. द्रष्टुम् ।
९६) १. हीनाः ।
९७) १. अप्रमितबुद्धिः ।
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वह मनमें महान् वैररूप वज्राग्निसे जलता हुआ दूसरेकी विभूतिको न सह सकने के कारण केवल दूसरेके विनाशका चिन्तन करता है। इसको छोड़कर वह न खाता है, न सोता है, और न दोनों ही लोकोंमें पवित्र ( निराकुल ) सुखको भी प्राप्त होता है || ९५||
इस प्रकारके अधम हीन अज्ञानी जन चित्तमें निरन्तर विद्वेषको धारण करते हुए नीच वृत्तिसे जलती हुई दुःसह व स्थिर नरकरूप अग्निमें प्रविष्ट होकर वहाँ चिरकाल तक रहने में तो समर्थ होते हैं, किन्तु वे दूसरेकी सम्पत्तिके सहने में समर्थ नहीं होते हैं ॥ ९६ ॥
जो अज्ञानी मनुष्य हितकारक वचनको छोड़कर विपरीत सब कुछ स्वीकार करता है उस दुष्टचित्त मनुष्यके आगे विद्वान मनुष्य वचनोंको नहीं बोलता है - उसके लिए उपदेश नहीं करता है ||९७||
इस प्रकार अमितगतिविरचित धर्मपरीक्षामें पाँचवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ||५||
९५) अविनाशस्य । ९६ ) इ चिरं for स्थिरं; व वज्रवह्नि; क ड दुष्ट for द्विष्ट; क कुनिष्टाः, ड विनिष्टाः for कनिष्ठाः । ९७) अ हितमन्यः ।
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