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द्विष्टो निवेदितो विप्राश्चित्रांवरिव तापकः। इदानीं श्रूयतां मूढः पाषाण इव नष्टधोः॥१ प्रथोयो' ऽथास्ति कण्ठोष्ठं येक्षास्पदमिवापरम् । पुरं सुरालयाकीणं निधाननिलयीकृतम् ॥२ अभूद भूतमतिस्तत्र विप्रो विप्रगणाचितः। विज्ञातवेदवेदाङ्गो ब्रह्मेव चतुराननः ॥३ पञ्चाशत्तस्य वर्षाणां कुमारब्रह्मचारिणः । जगाम धीरचित्तस्य वेदाभ्यसनकारिणः ॥४
न्धवा विधिना यज्ञां यज्ञवह्निशिखोज्ज्वलाम् । कन्यां तं' ग्राहयामासुलक्ष्मोमिव मुरद्विषम् ॥५ उपाध्यायपदारूढो लोकाध्यापनसक्तधोः। पूज्यमानो द्विजैः सर्वैयज्ञविद्याविशारदः॥६
१) १. अग्निः । २) १. विख्यात । २. क धनदस्थानमिव । ३. धवलगृहसमूहम् । ५) १. भूतमति नाम । २. क विवाहयामासुः । ३. विष्णुम्; क कृष्णम् ।
हे विप्रो ! इस प्रकारसे मैंने अग्निके समान सन्ताप देनेवाले द्विष्ट पुरुषका स्वरूप कहा है। अब पत्थरके समान नष्टबुद्धि मूढ पुरुषका स्वरूप कहता हूँ, उसे सुनिए ॥१॥
देवभवनोंके समान गृहोंसे व्याप्त एक प्रसिद्ध कण्ठोष्ठ नामका नगर है । अनेक निधियोंका स्थानभूत वह नगर दूसरा यक्षोंका निवासस्थान जैसा दिखता है ॥२॥
उसमें ब्राह्मणसमूहसे पूजित एक भूतमति नामका ब्राह्मण था। वह वेद-वेदांगोंका ज्ञाता होनेसे ब्रह्मा के समान चतुर्मुख था-चार वेदोंरूप चार मुखोंका धारक था ॥३॥
उस बालब्रह्मचारीके धीरतापूर्वक वेदाभ्यास करते हुए पचास वर्ष बीत गये थे ॥४॥
उसके बन्धुजनोंने उसे यज्ञकी अग्निज्वालाके समान निर्मल यज्ञा नामक कन्याको विधिपूर्वक इस प्रकारसे ग्रहण कराया जिस प्रकार कि विष्णुके लिए लक्ष्मीको ग्रहण कराया गया ।।५।।
उपाध्यायके पदपर प्रतिष्ठित वह भूतमति ब्राह्मण यज्ञविद्यामें निपुण होकर अपनी बुद्धिको लोगोंके पढ़ानेमें लगा रहा था। सब ब्राह्मण उसकी पूजा करते थे ॥६॥ १) क ड दुष्टो । ५) अ तां for तं ।
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