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अमितगतिविरचिता हितेऽपि भाषिते दोषो दीयते निर्विचारकैः । परैरपीह रागान्धैामकूटसमैः स्फुटम् ॥७४ चरित्रं दुष्टशीलायाः कथितं हितकारिणा। यस्तस्या एव तैब्रूते विधत्ते स न कि परम् ॥७५ इत्थं रक्तो मया विप्राः सूचितो दुष्टचेतसः । इदानीं श्रूयतां द्विष्टः सूच्यमानो' विधानतः ॥७६ प्रामकूटावभूतां द्वौ कोटीनगरवासिनौ' । प्रथमः कथितः स्कन्दो वक्रो वक्रमनाः परः ॥७७ भुञ्जानयोस्तयोममेकं वैरमजायत । एकद्रव्याभिलाषित्वं वैराणां कारणं परम् ॥७८ दुनिवारं तयोर्जातं काककौशिकयोरिव'।
निसर्गजं महावैरं प्रकाशतिमिरैषिणोः ।।७९ ७५) १. बहुधान्यः । २. कुरङ्ग्याः । ३. तच्चरित्रम् । ४. करोति । ७६) १. क कथ्यमानः । ७७) १. नाम। ७९) १. घूयड।
दूसरोंके द्वारा किये गये हितकारक भी भाषणमें विषयानुरागसे अन्ध हुए अविवेकी जन उक्त बहुधान्यक ग्रामकूट के समान स्पष्टतया दोष दिया करते हैं ।।७४॥
ग्रामकूटके हितकी अभिलाषासे उस हितैषी भट्टने दुश्चरित्र कुरंगीके वृत्तान्तको उससे कहा था। उसे जो ग्रामकूट उसी कुरंगीसे कह देता है वह भला अन्य क्या नहीं कर सकता है ॥७५||
__इस प्रकार हे ब्राह्मणो ! मैंने दुष्ट आचरण करनेवाले रक्त पुरुषकी सूचना की हैउसकी कथा कही है । अब मैं इस समय द्विष्ट पुरुषकी विधिपूर्वक सूचना करता हूँ, उसे आप लोग सुनें ॥७६।।
__ कोई दो ग्रामकूट कोटीनगरमें निवास करते थे। उनमें पहलेका नाम स्कन्द तथा दूसरेका नाम वक्र था । दूसरा वक्र ग्रामकूट अपने नामके अनुसार मनसे कुटिल था ॥७७॥
वे दोनों एक ही गाँवका उपभोग करते थे-उससे होनेवाली आय (आमदनी) पर अपनी आजीविका चलाते थे। इसीलिए उन दोनोंके बीच में वैमनस्य हो गया था। ठीक है-एक वस्तुकी अभिलाषा उत्कृष्ट वैरका कारण हुआ ही करती है ।।७८॥
जिस प्रकार क्रमसे प्रकाश और अन्धकारकी अभिलाषा करनेवाले कौवा और उल्लूके बीचमें स्वभावसे महान वैर (शत्रुता) रहा करता है उसी प्रकार उन दोनोंमें भी परस्पर महान् वैर हो गया था जिसका निवारण करना अशक्य था ।।७९।। ७५) अ परैरपि हि । ७६) ब दुष्टचेष्टितः । ७७) इ स्वन्धो for स्कन्दो।
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