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अमितगतिविरचिता प्राणप्रियो मम सुहृद्विपरीतचेता .
मिथ्यात्वदुर्जरविषाकुलितोऽस्ति खेटः। वतिष्यते किमयमत्र जिनेन्द्रधर्मे
किं वा न जातु मम देव निवेदयेदम् ॥८५ वज्राशुशुक्षणिशिखामिव देव चित्ते
चिन्तां ददाति कुपथे से विवर्तमानः । दुर्वारतापजननी मम दृश्यमानं
सख्यं सुखाय समशीलगुणेन सार्धम् ॥८६ मिथ्यापथे विविधदुःखनिधानभूते
___ ये वारयन्ति सुहृदं न विषक्तचित्तम् । कूपे विभीषणभुजङ्गमलोढमध्ये
ते नोदयन्ति निपतन्तमलभ्यमूले ॥८७ मिथ्यात्वतो न परमस्ति तमो दुरन्तं
सम्यक्त्वतो न परमस्ति विवेककारि । संसारतो न परमस्ति निषेधनीयं
निर्वाणतो न परमस्ति जनार्थनीयम् ॥८८
८५) १. अधमविद्याधरः, क पवनवेगः । २. पवनवेगः । ८६) १. क वज्राग्निशिखा । २. क पवनवेगः । ३. क मित्रत्वम् । ८७) १. क ये पुरुषाः । २. क निवारयति । ३. क लग्नचित्त । ४. प्रेरयन्ति । ८८) १. क याचनं; प्रार्थनीयं-याचनीयम् ।
सूर्यसे प्रणामपूर्वक सविनय इस प्रकार पूछने लगा । ठीक भी है, क्योंकि केवलीरूप सूर्यके बिना दूसरा कोई सन्देहरूप अन्धकारको पूर्णरूपसे नहीं नष्ट कर सकता है ॥८४॥
हे देव ! मेरे एक प्राणोंसे प्यारा विद्याधर मित्र है जो कि दुर्विनाझ मिथ्यात्वरूप विषसे व्याकुल होकर विपरीत मार्गमें प्रवृत्त हो रहा है। वह क्या कभी इस जैन धर्म में प्रवृत्त होगा अथवा नहीं होगा, यह मुझे बतलाइए ॥८५।।
हे देव ! उसे इस प्रकार कुमार्गमें वर्तमान देखकर मेरे मनमें जो चिन्ता है वह मझे दुनिवार सन्तापको उत्पन्न करनेवाली वज्राग्निकी शिखाके समान सन्तप्त कर रही है। ठीक है- समान स्वभाव और गुणवालेके साथमें जो मित्रता होती है वही वास्तव में सुख देनेवाली होती है । ८६॥
जो मनुष्य अनेक प्रकारके दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले मिथ्या मार्गमें आसक्त हुए मित्रको उससे नहीं रोकते हैं वे उसे भयानक सोसे व्यात अतिशय गहरे कुएं में गिरनेके लिए प्रेरित करते हैं ॥८७||
मिथ्यात्वको छोड़कर और दूसरा कोई दुर्विनाश अन्धकार नहीं है, सम्यग्दर्शनके ८५) बकुलितो हि । ८६) अ स च वर्त' । ८७) अ ब दुःखविधानदक्षे; इ नियतं तमलभ्य ।
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