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धर्मपरीक्षा - २
धर्मोपदेश निरतो' saधिबोधनेत्रो विज्ञायेतं जिनमतिजितशत्रुपुत्रम् । वात्सल्यकर्मकुशलो निजगाद योगी
भव्येषु धर्ममनसापि पक्षपातः ॥८१ क्षेमेण तिष्ठति पिता तव भद्र भव्यो
धर्मोद्यतः परिजनेन निजेन सार्धम् । एतन्निशम्य वचनं खगराजसूनु
र्वाणीमवोचदिति हृष्टमनाः प्रणम्य ॥८२ पादाः सदा विदधते तव यस्य रक्षां
विघ्ना भवन्ति कथमस्य खचारिभर्तुः । यं पालयन्ति विनतातनयो हि साधो
कि पीड्यते विषधरः स कदाचनापि ॥८३ उक्त्वेति मस्तकनिविष्टकराम्बुजो सौ
प्रोत्थाय केवलमरीचिविका सितार्थम् । पप्रच्छ केवलिवि विनयेन नत्वा
कृत्स्नं हिं संशयतमो न परो हिनस्ति ॥८४
८१) १. क धर्मोपदेशं कथयित्वा स्थितः । २. ज्ञात्वा । ३. क मनोवेगं । ४. धर्मवताम् । ५. भवेत् । ८३) १. तस्य । २. गरुडपक्षिणः क विनता गरुडमाता स्यात् । ३. यस्मात् कारणात् । ४. क सर्वैः । ८४) १. क केवलज्ञानकिरणप्रकाशित पदार्थम् । २. यस्मात् कारणात् । ३. स्फेटयति ।
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इस प्रकार धर्मोपदेशको समाप्त करके उन अवधिज्ञानी जिनमति मुनिराजने जब यह ज्ञात किया कि यह जितशत्रु राजाका पुत्र मनोवेग है तब धर्मात्मा जनोंसे अनुराग करनेमें कुशल वे योगिराज उससे इस प्रकार बोले । ठीक है - जिनका चित्त केवल धर्म में ही आसक्त रहता है ऐसे योगी जनोंको भी भव्य जीवोंके विषय में पक्षपात ( अनुराग ) हुआ ही करता है ॥ ८१ ॥
हे भद्र ! धर्म में निरत तेरा भव्य पिता अपने परिवार के साथ कुशलपूर्वक है ? तब राजा जितशत्रु विद्याधरका पुत्र वह मनोवेग मुनिराज के इस वाक्यको सुनकर हर्षित होता हुआ प्रणामपूर्वक इस प्रकार बोला || ८२ ॥
न्द्र ! जिस विद्याधरोंके स्वामी (मेरे पिता) की रक्षा निरन्तर आपके चरण करते हैं उसके लिए भला विघ्नबाधाएँ कैसे हो सकती हैं ? अर्थात् नहीं हो सकती हैं। ठीक हैजिसकी रक्षा गरुड़ पक्षी करते हैं उसे क्या सर्प कभी भी पीड़ा पहुँचा सकते हैं ? नहीं पहुँचा सकते हैं ||८३||
इस प्रकार कहकर वह मनोवेग उठा और मस्तकपर दोनों हस्त-कमलोंको रखता हुआ केवलज्ञानरूप किरणोंके द्वारा पदार्थोंको विकसित ( प्रगट ) करनेवाले उन केवलीरूप ८१) अ ब 'विरतो; अ जिनपर्ति । ८३) ब च for हि । ८४ ) ब केवलरविं ।
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