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अमितगतिविरचिता पूर्वापरविचारेण तिर्यञ्च इव वजिताः। सन्त्यमी यदि युष्मासु तदा वक्तुं बिभैम्यहम् ॥४१ मनुष्याणां तिरश्चां च परमेतद्विभेदकम् । विवेचयन्ति यत्सर्व प्रथमा नेतरे पुनः ॥४२ पूर्वापरविचारज्ञा मध्यस्था धर्मकाक्षिणः। पक्षपातविनिमुक्ता भव्याः सभ्याः प्रकीर्तिताः ॥४३ सुभाषितं सुखाधायि मूर्खेषु विनियोजितम् । ददाति महती पीडां पयःपानमिवाहिषु ॥४४ पर्वते जायते पद्मं सलिले जातु पावकः । पीयूषं कालकूटे च विचारस्तु न बालिशे ॥४५ कीदृशाः सन्ति ते' साधो द्विजैरिति निवेदिते । वक्तुं प्रचक्रमे खेटो रक्तद्विष्टादिचेष्टितम् ॥४६
४१) १. मूढा। ४२) १. विचारयन्ति देवकुदेवादिपृथक्करणे मनुष्याः, तिर्यश्चः न । २. मनुष्याः । ३. तिर्यञ्चः । ४३) १. सभायाः योग्याः ; क सभायां साधवः । ४४) १. क सुष्ठु वचनम् । २. क स्थापितं; सुखकर । ३. सर्पेषु । ४५) १. क मूर्खे । ४६) १. मूर्खाः । २. प्रारेभे।
ये मूर्ख पशुओंके समान पूर्वापरविचारसे रहित होते हैं । वे यदि आप लोगोंके बीच में हैं तो मैं कुछ कहनेके लिए डरता हूँ ॥४१।।
मनुष्यों और पशुओं में केवल यही भेद है कि प्रथम अर्थात् मनुष्य तो सब कुछ विचार करते हैं, किन्तु दूसरे ( पशु ) कुछ भी विचार नहीं करते हैं ॥४२॥
जो भव्य मनुष्य पूर्वापरविचारके ज्ञाता, राग-द्वेषसे रहित, धर्मके अभिलाषी तथा पक्षपातसे रहित होते हैं वे ही सभ्य सदस्य ( सभामें बैठनेके योग्य ) कहे गये हैं ॥४३॥
यदि मूों के विषय में सुखदायक सुन्दर वचनका भी प्रयोग किया जाता है तो भी वह इस प्रकारसे महान् पीडाको देता है जिस प्रकार कि सोको पिलाया गया दूध महान् पीडाको देता है ॥४४॥
कदाचित् पर्वतके ऊपर कमल उत्पन्न हो जावे, जलमें आग उत्पन्न हो जावे और या कालकूट विषमें अमृत उत्पन्न हो जावे; परन्तु कभी मूर्ख पुरुषमें विचार नहीं उत्पन्न हो सकता है ।।४५॥
हे सत्पुरुष ! वे रक्तादि दस प्रकारके मूर्ख कैसे होते हैं, इस प्रकार उन ब्राह्मणोंके पूछनेपर उस मनोवेग विद्याधरने उक्त रक्त व द्विष्ट आदि मूर्ख पुरुषोंकी चेष्टा ( स्वरूप) को कहना प्रारम्भ किया ॥४६॥ ४६) क ड रक्तदुष्टादि', अ रक्तदुष्टादिवेरितं ।
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