Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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एक दिन वे जृम्भिका गाँवके समीप ऋजुकूला नदीके किनारे मनोहर वनमें सागोन वृक्षके नीचे पत्थरकी शिला पर विराजमान थे । वहीं पर शुक्ल - ध्यानके प्रतापसे उनके घातियाकर्मो का क्षय होकर वैशाख
शुक्ला दशमीके दिन हस्त नक्षत्र में संध्याके समय उन्हें 'केवलज्ञान' उत्पन्न हो गया। देवोंने आकर 'ज्ञानकल्याणक' का उत्सव किया । इन्द्रकी आज्ञासे धनपति कुबेरने 'समवसरणकी रचना की' । 'केवलज्ञान' प्राप्त होने पर भी छयासठ दिन तक उनकी दिव्य ध्वनि नहीं खिरी ।
इन्द्रने अवधिज्ञानसे जान लिया कि अभी सभाभूमिमें कोई गणधर नहीं है और बिना गणधरके तीर्थङ्करकी वाणी नहीं खिरती । साथमें अवधिज्ञानसे यह भी जाना, कि गुणावा ग्राममें (अपरकथानुसार गौतमवंशीय) इन्द्रभूति नामका जो ब्राह्मण है, वही भगवानका गणधर होगा। इसलिये इन्द्रभूतिको लानेके लिए इन्द्र गौतमके ग्रामको गया । इन्द्रभूति वेद-वेदांतोंका महान ज्ञाता था। उसे बड़ा अभिमान था । इन्द्रभूतिने नये शिष्यकी ओर देखकर कहा'तुम कहाँसे आये हो ? किसके शिष्य हो ? वेषधारी इन्द्रने कहा – - 'मैं सर्वज्ञ भगवान महावीरका शिष्य हूँ ।' इन्द्रभूतिने महावीरके साथ 'सर्वज्ञ' और 'भगवान' विशेषण सुनकर व्यंग्य करते हुए कहा - ' 'ओ सर्वज्ञके शिष्य ! तुम्हारे गुरु यदि सर्वज्ञ हैं, तो अभी तक कहाँ छिपे रहे ? क्या मुझसे शास्त्रार्थ किये बिना ही वे 'सर्वज्ञ' कहलाने लगे हैं ?" इन्द्रने
कहा – 'क्या आप उनसे शास्त्रार्थ करनेको उत्सुक हैं ?' इन्द्रभूतिने कहा- 'अवश्य ।' इन्द्रने कहा – 'पहिले आप मुझसे शास्त्रार्थ कर देखिये, फिर मेरे गुरुसे करियेगा । मेरा प्रश्न है
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(स्रग्धरा)
त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदसहितं जीवषट्-काय - लेश्याः । पञ्चान्ये चास्तिकाया व्रत-समिति - गति - ज्ञान - चारित्रभेदाः ॥ इत्येतन्मोक्षमूलं त्रिभुवनमहितेः प्रोक्तमर्हद्भिरीशैः । प्रत्येति श्रद्दघाति स्पृशति च मतिमान् यः स वै शुद्धदृष्टिः ॥ कहिये महाराज ! इस श्लोकका अर्थ क्या है ?"
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