Book Title: Bhagwan Mahavir Ki Acharya Parampara
Author(s): Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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स्कन्ध तक लिपट गया। सब बालक उसे देखकर भयसे काँप उठे और शीघ्र ही डालियोंसे जमीन पर नीचे कूदकर जिस किसी तरह भाग गये, सो ठीक ही है, क्योंकि महाभय उपस्थित होनेपर महापुरुषके सिवाय अन्य कोई ठहर नहीं सकता। जो लपलपाती हुई सो जिह्वाओंसे अत्यन्त भयंकर दिख रहा था। ऐसे उस सर्प पर चढ़कर कुमार महावीरने निर्भय हो उस समय इस प्रकार क्रीड़ा की जिस प्रकार कि वे माताके पलंग पर किया करते थे। कुमारकी इस क्रीड़ासे जिसका हर्षरूपी सागर उमड़ रहा था, ऐसे उस संगम देवने भगवानकी स्तुति की और उनका 'महावीर' नाम रखा।
इस भांति कुमारके वीर, अतिवीर आदि नाम भी पड़े।
जब धीरे-धीरे उनकी आयुके तीस वर्ष बीत गये और उनके शरीरमें यौवनका पूर्ण विकास हो गया, तब एक दिन महाराज सिद्धार्थने उनसे कहा—'प्रिय पुत्र! अब तुम पूर्ण युवा हो गये हो, तुम्हारी गम्भीर और विशाल आँखें, तुम्हारा उन्नत ललाट, प्रशान्त वदन, मन्द मुस्कान, चतुर वचन, विस्तृत वक्षस्थल और धुटनों तक लम्बी तुम्हारी भुजायें तुम्हें प्रत्यक्ष महापुरुष सिद्ध कर रही हैं। अब तुम्हारे अन्दर खोजने पर भी वह चंचलता नहीं पाता हूँ, जो बाल्यावस्थामें थी। अब यह समय तुम्हारे राज-कार्य संभालनेका है। मैं अब वृद्ध हो गया हूँ और कितने दिन तक तुम्हारा साथ दे सकूँगा? मैं तुम्हारा विवाह कर तुम्हें राज्य देकर संसारकी झंझटोंसे बचना चाहता हूँ। पिताके वचन सुनकर महावीरका प्रफुल्ल मुखमण्डल सहसा गम्भीर हो गया। मानो, किसी गहरी समस्याके सुलझानेमें लग गये हों। कुछ देर बाद उन्होंने कहा- 'पूज्य पिताजी! आपकी आज्ञाका पालन मुझसे नहीं हो सकेगा। भला, जिस झंझटोंसे आप स्वयं बचना चाहते हैं, उसी झंझाटोंमें आप मुझे क्यों फंसाना चाहते हो? अरे! मेरी कुल आयु बहत्तर वर्षकी है, जिसमें आज तीस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। अब अवशिष्ट अल्प जीवनमें मुझे स्वरूपमयदशा प्राप्त करने हेतु बहुत कुछ कार्य करने बाकी है, तो मैं कैसे यह बोझ संभालूँ ? अब आप ही कहें, कि 'मेरा विचार क्या बुरा है ?' राजा सिद्धार्थने बीचमें ही कुमारको टोक कर कहा-‘पर ये कार्य तो गृहस्थाश्रममें रहते हुए भी हो सकते हैं।' तब महावीरने उत्तर दिया- 'जी नहीं पिताजी ! यह मुझ पर केवल आपका व्यर्थ मोह है। थोड़ी देरके लिए यह भूल जाइये, कि 'महावीर आपका पुत्र है'। फिर देखिये आपकी यह विचार-धारा परिवर्तित हो जाती है या नहीं? बस, पिताजी ! मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं जंगलमें आत्मज्योतिका घनत्व प्राप्त कर सकूँ
और अपना कल्याण कर सकूँ।' क्या विचार था और क्या हुआ ? सोचकर सिद्धार्थ महाराज विक्षुण्ण वदन हो चुप रहे।
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