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ही है, वह कर्ता नहीं है, भोक्ता भी नहीं है। यह तो अहंकार ही मोक्ष ढूँढ रहा है। संसार में कोई स्वाद नहीं रहा, तब मोक्ष ढूँढने निकला है !
जीवन का ध्येय तो मोक्ष का ही होना चाहिए - यदि वह हेतु अत्यंत मज़बूत होगा तो अवश्य उसे प्राप्त करेगा। मोह इस ध्येय में बाधक है। मोह उतरे तब संसार से उकता जाता है, तब फिर मोक्षमार्ग का शोधन करता है!
आत्मदशा प्राप्त होने तक ही विचारदशा की, और वह भी ज्ञानांक्षेपकवंत विचारों की ज़रूरत है, जो आत्मदर्शन की थोड़ी बहुत प्राप्ति करवाएँगे, फिर तो जो दशा है, वह विचारों से परे है! अज्ञानदशा में आत्मनिरीक्षण होता है, वह अहंकार से होता है और आत्मा तो अहंकार के उस पार है!
क्रोध-मान-माया-लोभ के परमाणु मात्र से विशुद्धि प्राप्त करके, जब अहंकार संपूर्ण शुद्धता को प्राप्त करे, तब वह 'शुद्धात्मा' में एकाकार हो जाता है, क्रमिकमार्ग ऐसा है! जब कि 'अक्रम ज्ञान' में 'ज्ञानीपुरुष' 'डायरेक्ट' ही शुद्धात्मापद जो कि अचलपद है, दरअसल, निर्लेप है, वही पद प्राप्त करवा देते हैं!
खुद का स्वरूप शुद्धात्मा है, देह नहीं, ऐसा 'रियलाइज़' हो जाए तो देहाध्यास मिट जाएगा, अहंकार और ममता चले जाएँगे। देहाध्यासी, देहाध्यास से नहीं छुड़वा सकता, जो देहाध्यास से रहित हैं, ऐसे 'ज्ञानीपुरुष' ही छुड़वा सकते हैं।
यह देह, मन, वाणी आदि 'मैं हूँ' ऐसा अनुभव बरते, वह देहाध्यास, और आत्मानुभव होने के बाद यह अनुभव चला जाता है और आत्मा का अनुभव बरतता है। देह के साथ जो तन्मयाकार होता है, वह मूल आत्मा नहीं है, माना हुआ आत्मा यानी कि व्यवहार आत्मा है।
अंदर से, 'यह तेरा गलत है' ऐसा जो बोलता है, वह आत्मा नहीं है परन्तु व्यावहारिक ज्ञान से जो-जो जाना, उसके आधार पर जो रिकार्ड हो चुका है, वह बोलता है! यह सभीकुछ आँख (केमेरा), कान(रिसीवर),
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