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तरफ़ प्रगति होती जाती है, होती जाती है। 'ज्ञानीपुरुष' कि जो परमात्मदशा में हैं उनका ज्ञान-दर्शन प्राप्त करने से अंतरात्मदशा प्राप्त होती है। फिर अंतरात्मा परमात्मा को देखता है और उस रूप होता जाता है! खुद परमात्मा है' इस प्रतीति में से अब ज्ञानभाव से अभेद होता है। वस्तुत्व की भजना से पूर्णत्व आसानी से सध जाता है। और जब संसार का संपूर्ण निकाल हो जाता है तब हो जाती है, फुल गवर्नमेन्ट, तब हो गए संपूर्ण परमात्मा!!!
केवळी दशा में आत्मा परमात्मा ही है। शब्दरूपी अवलंबन में रहे, तब तक अंतरात्मा और भ्रांतदशा में मूढ़ात्मा! मैं, बावो, मंगलदास!! वही का वही 'मैं', तीनों में! जो संपूर्ण वीतराग हो चुके हैं, वे परमात्मा! वीतराग होने की दृष्टि जिन्होंने वेदी है वे अंतरात्मा, और भौतिक सुखों में रत रहकर राग-द्वेष करता रहे, वह मूढ़ात्मा !!
इस जगत् से आत्यंतिक मुक्ति प्राप्त किए हुए, सिद्धलोक में विराजमान प्रत्येक सिद्धात्मा, निज-निज के स्वतंत्र स्वाभाविक सुख में, निजस्थिति में ही होते हैं! वहाँ न तो कोई ऊपरी है या न ही कोई 'अन्डरहेन्ड'! सिद्धात्मा स्वभाव से एक ही हैं, ज्ञान-दर्शन रूपी हैं। वहाँ चारित्र नहीं है। वहाँ न तो कोई मिकेनिकल क्रिया है या न ही कोई पदगल परमाणु। ब्रह्मांड की धार पर उनका स्थान है। वहाँ कोई किसीको, किसी पर किसीका असर नहीं है, उसी प्रकार दूसरे क्षेत्रों पर भी उनका असर नहीं पहुँचता। सिद्ध भगवंत हमें कोई हेल्प नहीं करते, मात्र वहाँ पहुँचने का अपना ध्येय है, इसलिए हम 'नमो सिद्धाणं' की भजना करते हैं!
यह लाइट यदि चेतन होती न तो रूम की हर एक वस्तु को देखती ही रहती! उसी प्रकार सिद्ध भगवान ब्रह्मांड के प्रत्येक ज्ञेय को जानते हैं!
मोक्ष अर्थात् स्व-गुणधर्म में परिणामित होना, स्व-स्वभाव में परिणामित होना, निरंतर खुद के स्वाभाविक सुख में ही रहना, वह! । ___मोक्ष किसका? जो बँधा हुआ है, उसका! कौन बँधा हुआ है? जो भोगता है, वह। कौन भोगता है? अहंकार!!! मोक्ष प्राप्ति का भाव भी, जो बँधा हुआ है, उसीका है, आत्मा का नहीं है, आत्मा तो वास्तव में मुक्त
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