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प्रकाश (आत्मा का ज्ञान) बाहर निकला ही नहीं है। वहाँ पर एक इन्द्रिय भी प्रकट नहीं हुई है। आवरण कम होने के बाद ही वह निगोद में से व्यवहार राशि में, एकेन्द्रिय में आता है।
अतः निगोद के जीव और एकेन्द्रिय वगैरह जीवों को तो भयंकर कर्म भुगतने होते हैं। जैसे-जैसे वे कर्म भोगते जाते हैं, वैसे-वैसे उनकी ऊर्ध्वगति होती जाती है। जैसे-जैसे आवरण टूटते जाते हैं, प्रकाश बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय फिर पंचेन्द्रिय में आता है। अज्ञानता से लोग जानवर गति की प्रशंसा करते हैं, पेड़ की सहनशीलता की प्रशंसा करते हैं, ऐसा मानते हैं कि वैसा ही बनना चाहिए, वह भयंकर आवरण लाने वाली चीज़ है।
क्या निगोद में व्यतिरेक गुण होते हैं ?
व्यतिरेक गुण तो पहले से ही हैं अव्यवहार के जीवों में, अंत में जब व्यतिरेक गुण पूर्ण रूप से खत्म हो जाते हैं तब वह सिद्ध भगवान बन जाता है!
संयोगों का अनंत जथ्था है, उसमें आत्मा की नज़र तिरछी हो गई (विभाविक ज्ञान-दर्शन) और सब उससे चिपक पड़ा।
___एक आँख ऐसे एंगल से दब जाए कि सबकुछ दो-दो दिखाई देने लगे तो वह मिथ्या दृष्टि है। इस प्रकार यह संसार, संयोगों के दबाव से तिरछी नज़र होने की वजह से खड़ा हो गया है। अगर दबाव हट जाए तो वह मूल भगवान स्वरूप हो जाएगा।
संयोगों के दबाव से रोंग बिलीफ उत्पन्न हो गई। रोंग बिलीफ से अहंकार खड़ा हुआ कि 'मैं कर रहा हूँ'। अहंकार कोई चीज़ नहीं है, मात्र रोंग बिलीफ ही है। फिर भी ऐसा है कि (स्थूल) अहंकार की छाप शरीर पर पड़ती है।
क्या आत्मा में शुरुआत से ही ज्ञान था?
क्या कभी ऐसा हो सकता है कि दर्पण में हम न दिखें? कभी जब कोहरे का असर हो जाए बस तभी नहीं दिखाई देता।
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