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भनेकान्त
[ वर्ष ८
हुए बतलाया कि कर्तव्य-परायण मानव दूसरों के लिए कषाय या वैभाविक अवस्थाके वह अधीन नहीं होता। जिया करते है है-और दूसरोंके लिए मरकर अमर हो वह मुपीवास व्याकुल नहीं होता और न सांसा जाते हैं। 'वसधै व कुटुम्बकम' का मंगल एवं दिव्य पाठ सुबोंमें ही लिप्त होता है। उसके विशाल हृदय-सागरमें देकर भगवानने सच्चे और वासना-रहित प्रेमकी गंगा बहा दयाकी नहरें उठती रहती हैं । मारे जीवोंपर प्रेम-दृष्टि दी। हिंसाको दब्बूपन और खुदगर्जीकी निशानी तथा स्थिर रहती है, क्योंकि वह खुद अपनेमे अर्थात प्रारमासे अहिंस.को वीरोंका भूषण बतलाया । अापके नजदीक प्रेम करता है । वह ऐसा व्यवहार जो उसमे किया जावे माहिमा और कायरता परस्पर विरोधी है। कायर कभी भी यदि पसन्द नहीं करता तो दूसरोंके प्रति वैमा व्यवहार अहिंसक नहीं हो सकता । अहिंसक पहले खुदपर विजय करना भी पसन्द नहीं करता, बल्कि दूसरोंके दुखोंको देख पाता है, खुद स्वतंत्र हो जाता है। विकारोंपर फतह पाना कर उसके हृदयके कोमल तार झंकृत हो उठते हैं और वह सहन नहीं है। इसके लिए बन्दे त्याग और हिम्मतकी दयाकी मूर्ति बनकर दूसरोंके दुःखोंको निवारणा करने में श्रावश्यकता होती है, न्याय अन्यायको समझना होता है, एडी चोटीका जोर लगा देता है। उसकी यह प्रवृत्ति उसे प्राणिमात्रके स्वभावका सूचम निरीक्षण करना होता है, अहिंसाके राजमार्गपर लाकर खड़ा कर देती है, उसका उसको न्यायोचित हकों तथा स्वावोंका योग्य रक्षया व अंतग अपने स्वाभाविक रङ्ग में रन जाता है और इसी संवर्धन अवश्यम्भावी है। अपने स्वार्थको तिला ति देनी स्वाभाविक अनुभूतिका नाम अहिंसा है। होती है। विकाकी लहर उसे वहा नहीं ले जा सकती, अहिंसाकी इस मौलिक परिभाषाको एक दम अव्यअहिंसक खुदके प्रति वज्र सा कठोर, परन्तु औरोंके लिये वहार्य कहना या इसे देश या समाजकी अवनतिका कारण नवनीतकी तरह नरम होता है, वह अपने हित में सतर्क बतखाना निरी कल्पना है तथा जैन शास्त्रों के प्रति उनका रहते हुए भी परहिसमें बाधा नहीं डालता, उसे अपनी अज्ञान है। भगवान महावीरने यतियों अर्थात सर्व संगइरछाओं तथा प्रवृत्तिको दबाना होता है।
परित्यागी साधुओं के लिए यदि महाव्रतोंका विधान है तो "जो तोकू कांटे बुवे, वाको बो तू फूल । श्रावकों अर्थात गृहस्थियोंके लिए भी व्यवहार्य सुन्दर तोको फूल के फूल हैं, वाको होत त्रिशून्त ॥" नियमोंका दिग्दर्शन कराया है। गृहस्थ मानव सांसारिक
राग-द्वेषके प्राचीन न होते हुए अपने परिणामोंकी कार्य जलकमलवत् किया करता है, किन्तु उसमें जिप्त नहीं योग्य सँभालको सच्ची अहिंसा कहा गया है । अतएव अहिं होता। गृहस्थको अणुवती कहा है; अतएव वह जान बुझ सक वास्तवमें सत्यका पुजारी और समूची जीव-जातिका कर या कषार्योके वशीभूत होकर न तो जीवोंका घात ही पाशिक रहता है। स्वाभाविक अंतरंग शुद्धिके कारण करे और न अपने परिणामोंकी विराधना ही। परिभाषामें उसके हृदयसे प्रेमका दरिया उमदा चला पाता है। इसे संकल्पी हिंसाके नामसे कहा गया है। वह संकल्पी समृद्ध परिस्थितिमें वह विनयकी मूर्ति बना रहता है और हिंसा नहीं कर सकता । किंबहुना सांसारिक कर्यों में चूल्हा इस तरह अन्य जीवोंक हृदयोंको वह अपनी ओर अनायास सुलगाना, माडू देना आदि प्रारम्भोंमें या वाणिज्य-व्यवही खींच लेता है। यही कारण है कि सो अहिंसामें साय, खेती, सिपाहीगिरी आदि उद्योगों में या स्व-संरक्षणा, कायरताकी गंध भी नहीं पा सकती।
परचक्र-निवारण प्रादि क्रियाओंमें-मजबूरीकी अवस्थामें "जो जन अहिंसा धर्मका पालन करेगा रीतिसे । उससे अवश्य हिंसा होती है। अर्थात् संकल्पी हिंसाका संसार सब गिर जायगा, धसके पगोंर प्रीतिसे। पूर्ण निषेध है-किन्तु भारम्भी, उद्योगी और विरोधी उसके लिये प्रतिकर भो अतिशय सरन हो जायगा, हिंसा अनासक्ति-पूर्वक होती रहती है । संकल्पी हिंसाका उसके लिये मीठी सुधाके सम गरल हो जायगा।" निषेध बुद्धिकी कसौटीपर ठीक उत्तरता है। जब हम जान
अहिंसकको राग द्वेषसे कोई सरोकार नहीं । स्व-स्व बूमकर हिंसाके इरादेसे जीवोंका घात करें या अपने रूपाचरण में मस्त रहना उसका स्वाभाविक कार्य है। प्राराम या कषायोंकी पुष्टि के लिए जीवोंका वध करें या