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विंशतितमं प
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उपशल्यभुवोऽद्राक्षन्निगमानभितो विभुः । केदारला वैराकीर्णाः स भ्राम्यदभिः कृषीवलैः ॥१२१॥ सोऽपश्यन्निगमोपान्ते पथः संश्यानकर्दमान् । प्रव्यक्तगोखुरक्षोदस्थपुटान तिसङ्कटान् ॥१२२॥ निगमान् परितोऽपश्यद् ग्राममुख्यान् महाबलान् । पयस्विनो जनैः सेव्यान् 'महारामतरूनपि ॥ १२३॥ ग्रामान् कुक्कुटसम्पात्यान् सोऽत्यगाद् वृतिभिर्वृतान् । कोशातकीलतापुष्पस्थगिताभिरितोऽमुतः ॥ १२४॥ "कुटी परिसरेध्वस्य धृतिरासीत् प्रपश्यतः । फलपुष्पानता वल्लीः प्रसवाढ्याः सतीरपि ॥ १२५ ॥ योषितो "निष्क्रमालाभिर्वलयैश्च विभूषिताः । पश्यतोऽस्य मनो जहग्रमीणाः संश्रिता वृतीः " ॥ १२६॥ "हैयङ्गवीन कलशैर्दध्नामपि निहित्रकैः । ग्रामेषु फलभेदैश्च तमद्राक्षुर्महत्तराः ॥ १२७॥ ततो विदूरमुल्लङ्घय सोऽध्वानं पृतनावृतः । गङ्गामुपासदद् वीरः प्रयाणैः कतिथैरपि ॥ १२८ ॥ हिमवद्विष्टतां पूज्यां "सतामासिन्धु गामिनीम् । शुचिप्रवाहामाकल्पवृत्ति कीर्तिमिवात्मनः ॥१२९॥ "शफरीप्रेक्षणामुद्यत्तरङ्गभ्रूविनर्तनाम् । वनराजी बृहच्छाटी परिधानां वधूमिव ॥ १३०॥
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चारों ओर दौड़ रहे हैं और सेनाके लोगोंकी जबरदस्ती करनेपर खेदखिन्न हो रहें हैं, ऐसे खेतोंके मालिक किसानों को भी भरतेश्वरने बड़े कौतुक के साथ देखा था ।। १२० ।। जो खेत काटनेवाले इधर-उधर घूमते हुए किसानोंसे व्याप्त हो रही हैं ऐसी प्रत्येक ग्रामोंके चारों ओरकी निकटवर्ती भूमियों को भी भरतेश्वरने देखा था ।। १२१ ॥ जो स्पष्ट दिखनेवाले गायोंके खुरोंके चिह्नोंसे ऊँचे-नीचे हो रहे हैं और जो अत्यन्त सकड़े हैं ऐसे कुछ-कुछ कीचड़ से भरे हुए गाँव के समीपवर्ती मार्गों को भी भरत महाराज देखते जाते थे ॥ १२२ ॥ उन्होंने ग्रामोंके चारों ओर खड़े हुए महाबलवान् गाँव के मुखिया लोगोंको देखा था तथा पक्षी तियंच और मनुष्यों के द्वारा सेवा करने योग्य बड़े-बड़े बगीचोंके वृक्ष भी देखे थे १२३ ।। जो जहाँ-तहाँ लौकी अथवा तुरईकी लताओंके फूलोंसे ढकी हुई वाड़ियोंसे घिरे हुए हैं और जिनपर एकसे दूसरेपर मुरगा भी उड़कर जा सकता है ऐसे गावोंको वे दूरसे ही छोड़ते जाते थे || १२४ || झोंपड़ियोंके समीपमें फल और फूलोंसे झुकी हुई लताओंको तथा पुत्रोंसे युक्त सती स्त्रियोंको भी देखते हुए महाराज भरतको बड़ा आनन्द आ रहा था ।। १२५ ।। जो सुवर्णकी मालाओं और कड़ोंसे अलंकृत हैं तथा वाड़ियोंकी ओटमें खड़ी हुई हैं ऐसी गाँवोंकी स्त्रियाँ भी देखनेवाले भरतका मन हरण कर रही थीं ।। १२६।। गाँवोंके बड़े-बड़े लोग घीके घड़े, दहीके पात्र और अनेक प्रकारके फल भेंट कर उनके दर्शन करते थे ॥ १२७॥
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तदनन्तर धीरवीर भरत सेनासहित कितनी ही मंजिलों द्वारा लम्बा मार्ग तय कर गंगा नदीके समीप जा पहुँचे ।। १२८ ॥ वहाँ जाकर उन्होंने गंगा नदीको देखा, जो कि उनकी कीर्ति के समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार उनकी कीर्ति हिमवान् पर्वतसे धारण गयी थी उसी प्रकार गंगा नदी भी हिमवान् पर्वतसे धारण की गयी थी, जिस प्रकार उनकी पूज्य और उत्तम थी उसी प्रकार गंगा नदी भी पूज्य तथा उत्तम थी, जिस प्रकार उनकी
कीर्ति
१ ग्रामान्तभुवः । " ग्रामान्त उपशल्यं ३ मार्गान् । -४ ईषदार्द्र कर्दमान् । ल० । क्षीरोपायनान् क्षीरिणश्च । ज्योत्स्निकायामपामार्गेऽपि सा भवेत्' इत्यभिधानात् । १० गृह ११ पुत्रैराढ्या । १३ ग्रामे भवाः । १४ 'संवृतावृती: संसृतासृती:' इत्यपि क्वचित् । १५ घृतकुम्भैः । १७ - सदद्धीरः द० । १८ कतिपयैः । १९ सती-ल० । २० मीननेत्राम् ।
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स्यात्"
इत्यभिधानात् । २ केदारान् लुनन्तीति केदारलावास्तैः । ५ ग्राममहत्तरान् । ६ महाफलान् द०, इ० । ७ वयस्तिरोजनैः ८ महाग्राम - इत्यपि क्वचित् । ९ पटोरिका । 'कोशातकी
१२ सुवर्णमालाभिः ।
१६ भाजनविशेषैः ।