Book Title: Acharang Sutram Part 03
Author(s): Jayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
Publisher: Rajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका // 1-6-1-1(186) HI सूत्रार्थ : इस मनुष्य लोक में सद्बोध को प्राप्त हुआ पुरुष ही अन्य मनुष्यों के प्रति धर्म का कथन करता है अथवा वह श्रुतकेवली, जिसने शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन में कथन की गई सर्व प्रकार से एकेन्द्रियादि जातियें सुप्रतिलेखित की है या तीर्थंकर, केवली तथा अतिशय ज्ञानी गीतार्थ पुरुष धर्म का उपदेश करते हैं। जो धर्म सुनने के लिए उपस्थित हैं, जिसने मन, वचन और काय के दण्ड को त्याग दिया है, समाधि को प्राप्त है, बुद्धिमान है, उसे तीर्थंकरादि मुक्ति मार्ग का उपदेश करते है। तब कई एक वीर पुरुष धर्म को सुनकर संयम मार्ग में पराक्रम करते हैं और हे शिष्य ! तू देख ! आत्मा का हित न चाहनेवाले कितनेक पुरुष धर्म से गिरते भी हैं। हे शिष्यो ! मैं तुम्हें कहता हूं, कि- जैसे वृक्ष के पत्तों एवं सेवाल से आच्छादित ह्रदसरोवर में निमग्न हुआ कछुआ वहां से निकलने का मार्ग प्राप्त नहीं कर सकता. उसी प्रकार गहवास में आसक्त जीव वहां से निकलने में समर्थ नहीं हो सकता, मोहावरण के कारण वे जीव धर्मपथ को नहीं देख सकते। जैसे वृक्ष शीतोष्णादि कष्टों आने पर भी अपने स्थान को नहीं छोडता, उसी प्रकार उग्र कर्मवाले जीव भी अनेक ऊंच-नीच कलों में जन्म धारण कर नाना प्रकार के रूपादि विषयों में आसक्त हुए नानाविध कर्मों के कारण नानाप्रकार की दु:ख-वेदनाओं को पाते हुए अनेक प्रकार के दीन वचनवाले होतें हैं। परन्तु, वे कर्म फल को भोगे बिना कर्म बंधन से मुक्त नहीं हो सकते। वे मोहांध जीव संसार से छुटने के उपाय का भी अन्वेषण नहीं करते। सुधर्मास्वामी कहते हैं कि- हे शिष्यो ! तुम देखो कि- वे ऊंच-नीच कुलों में उत्पन्न होते हैं... और वे जीव, निम्नलिखित रोगों द्वारा असह्य वेदना को प्राप्त होते हैं। यथा- १-गंडमाला, २-कुष्ट, ३राजयक्ष्मा, ४-अपस्मार-मृगी, ५-काणत्व, ६-जडता-शून्यता, ७-कुणित्व-लुंजपन, ८-कुब्जता, ९-मूकता-गूंगापन, १०-उदर-रोग-जलोदरादि, ११-शोथ-सूजन, १२-भस्मरोग, १३-कम्पवात, १४-गर्भ दोष से उत्पन्न हुआ रोग जिससे प्राणी विना लाठी के चलने में असमर्थ होता है, १५-श्लीपद, १६-मधुमेह। इन सोलह प्रकार के रोगों का अनुक्रम से कथन किया है। जब शूलादि का स्पर्श होता है; तब बुद्धि असमंजस अर्थात् अस्त-व्यस्त हो जाती है। अत: देवों के उपपात और च्यवन को तथा उक्त प्रकार के रोगों द्वारा होने वाली मनुष्यों की मृत्यु को देखकर एवं कर्मो के विपाक को लक्ष्य में रखकर साधक को संयम-साधना द्वारा जन्म-मरण से छूटने का प्रयत्न करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : स्वर्ग एवं अपवर्ग (मोक्ष) और उनके कारण... तथा संसार एवं संसार के कारणों को जाननेवाले केवलज्ञानी प्रभु इस मनुष्य लोक में मनुष्यों को धर्म कहते हैं, अर्थात् वेदनीय