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कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि-रचित
पन्यास धरणेन्द्रसागर
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"बुद्धिसागरसूरि गुरुभ्यो नमः"
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि-रचित
योग-शास्त्र
पर दैनिक प्रवचन
"अध्यात्म ज्ञाननी गंगा बहावे अजितऋद्धि कोत्तिपावे कैलाश सुबोध मनोहर भावे कल्याण पदम बुद्धि गुण गावे"
पन्यास धरणेन्द्रसागर
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* पुस्तक : योगशास्त्र
* प्रवचनकार ( व्याख्याता) : पन्यास श्री धरणेन्द्रसागर म. सा.
* संकलन कर्त्ता
: मुनि प्रेम सागरजी म.सा.
* श्रीवीर संवत्
* श्रीविक्रम संवत्
* ईस्वी सन्
* प्रथमावृत्ति
* मूल्य
* मुद्रक
: २५१५
: २०४४
: १६८७
: एक हजार
: दस रुपये मात्र
जैन प्रिण्टर्स
८०६, चौपासनी रोड़ जोधपुर (राज० ) फोन : २८७८२, २१७५६
प्राप्ति स्थान
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श्री जैन श्वे. मूर्तिपूजक तपागच्छ संघ श्रीरत्नप्रभ धर्म क्रिया भवन,
होर की हवेली के पास जोधपुर (राज० )
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कैलाशचन्द जैन
८०६, चौपासनी रोड, जोधपुर (राज.)
विजयकुमार मोहरणोत, एडवोकेट
बाईजी का तालाब जोधपुर (राज० ) फोन नं. : 25441 p. p.
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प्राक्कथन
विश्व में प्रचलित सभी धर्मों में योग का स्थान किसी न किसी प्रकार से अवश्य है । जैन दर्शन में भी योग की अपनी अलग महत्ता है । सभी तर्थंकर महान् योगी थे । योग के जरिये ही उन्होंने परम पद प्राप्त किया ।
I
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जैन - शास्त्रों में योग का विशद् विवरण मिलता है । प्राचार्यं. हरिभद्रसूरि हेमचन्द्राचार्य ने अपने योग-सम्बन्धित ग्रन्थों में बहुत सुन्दर ढंग से योग की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है ।
आज का मानव भी योग-रहस्यों को समझकर अपने जीवन का उत्थान कर सकता है, परन्तु वे ग्रन्थ सर्व साधारण या मुमुक्षुत्रों को उतना लाभ नहीं दे सकते, कारण कि आधुनिक वातावरण और उलझाव उसमें बाधक होते हैं-
राजेन्द्र भवन १-११-१६८७ खरादियों का बास जोधपुर
ऐसी परिस्थिति में सर्वसाधारण पाठकों की दृष्टि को ध्यान में रखकर प.पूज्य पन्यासजी म. सा. ने जो उन कठिन विषयों को सरल सुबोध भाषा एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रदर्शित किया है यह मुनि श्री की विद्वता का तो परिचय देती है पर एक नया आयाम भी प्रकट करती है । पन्यासजी म. सा. भविष्य में भी ऐसे ही सुबोध गागर में सागर वाली छोटी-छोटी लेकिन गंभीर साहित्य-रचना कर हमें लाभान्वित करेंगे, ऐसी हो हम प्राशा रखते हैं ।
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मुनि जगतचन्द्र विजय
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दो शब्द
पन्यासजी श्री धरणेन्द्रसागर जी म. सा. द्वारा जोधपुर चातुर्मास में दिये गये व्याख्यानों पर आधारित यह पुस्तक 'योगशास्त्र' आपके हाथ में है।
व्याख्यानों को जहाँ तक संभव हो सका महाराजश्री की बोली में ही लिखने का प्रयास किया गया है हाँ, उसे सुन्दर हिन्दी भाषा का जामा पहनाने और लोकोक्तियों एवं मुहावरों से उसे सजाने का प्रयत्न अवश्य किया गया है।
__इन व्याख्यानों में शास्त्रीय उद्धरणों के साथ-साथ कई उदाहरण और कथानों को भी गुफित किया गया है । कथानों को सहज सरल जनभाषा में लिखा गया है ताकि जन साधारण उन्हें आसानी से समझ सके ।
आशा है, पाठकों को इस पुस्तक से योग जैसे गंभीर विषय को सरलता पूर्वक समझने और कथानों के प्रानन्द-सागर में हिलोरें लेने जैसा रस प्राप्त होगा।
10/595 नन्दनवन जोधपुर 2-11-1987
लालचंद्र जैन 'सिद्धांत विशारद
संपादक
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प्रकाशकीय
पन्यास प्रवर श्री धरणेन्द्रसागर जी म. सा. के योगशास्त्र पर दिये गये कुछ व्याख्यानों का प्रकाशन मैंनें 'जिन प्रतिभा' पाक्षिक पत्रिका में किया था, जिसे लोगों ने गंभीरता पूर्वक पढ़ा और सराहा ।
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पाठकों के उत्साह को देखकर महाराजश्री ने इसे पूर्णरूप में पुस्तकाकार छापने का भार मुझ पर सौंपा। महाराजश्री की इच्छानुसार इसे सं० २०४४ कार्तिक पूर्णिमा के पूर्व प्रकाशित करने का हमारा प्रयास सफल हुन ।
पुस्तक के प्रूफ को बार-बार जाँचने पर भी कुछ न कुछ अशुद्धियाँ रह जाना संभव है, जिसके लिये मैं पाठकों से क्षमा प्रार्थी हूँ । प्राशा है, पाठकगण अशुद्धियों के स्थान पर शुद्ध पाठ पढ़ने का तथा हमें संकेत करने का कष्ट करेंगे जिससे पुस्तक के द्वितीय संस्करण में उन्हें सुधारा जा सके ।
८०६, चौपासनी रोड़, जोधपुर,
पुस्तक की छपाई, कागज, गेटअप और मुख्य पृष्ठ को सुन्दर बनाने का यथासंभव प्रयास किया गया है । आशा है, पाठक इसे पसंद करेंगे ।
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कैलाशचंद जैन
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प्रस्तावना
पन्यास श्री धरणेन्द्रसागर जी द्वारा रचित 'योगशास्त्र' ग्रन्थ, योगिक प्रक्रियाओं के अनुभूत ज्ञान का विश्लेषणात्मक विवेचन है । विद्वान् लेखक ने बोधगम्य भाषा-शैली में सुन्दर द्रष्टान्तों के माध्यम से दुरूह श्रौर दुस्साध्य समझी जाने वाली योगिक प्रक्रियाओंों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर, इस क्षेत्र में दीर्घावधि से अनुभव की जा रही कमी की सम्पूर्ति का सद्प्रयास किया है ।
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जीवन क्षरण भंगुर और नाशवान् है । अतः ज्ञानी और ध्यानी प्रवृत्ति के पुरुष सदाचार तथा सद्कर्मों के द्वारा जीवन को मुक्तिकामी तथा लोकोपयोगी बनाने का प्रयास करते हैं । सांसारिक कामनाश्रों, तृष्णाओं . तथा विषय-वासनाओं के झंझावातों से भ्रमित श्रौर उत्पीड़ित जीवन को आध्यात्मिकता के विराट् एवम् अनश्वर गंतव्य की ओर उन्मुख करने के साधनों में योग की अप्रतिम भूमिका, अनादिकाल से रही है । भारतीय दर्शनों में सांख्य तथा योग प्राचीनतम माने गए हैं । सांख्य के आदिवक्ता कपिल और योग के प्रथम आचार्य हिरण्यगर्भ थे । ऋग्वेद, छान्दोग्य उपनिषद्, श्वेताश्व उपनिषद्, श्रद्भुत रामायण तथा महाभारत में हिरण्यगर्भ को योग का प्रथम प्राचार्य माना गया है:
सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्षिः स उच्च्यते । हिरण्यस्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य पुरातनः ॥
afare विद्वानों ने महर्षि पतंजलि को योगशास्त्र का आदिकर्ता : बतलाया है, परन्तु ऋग्वेद के इस उदाहरण से भी स्पष्ट होता है कि योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि हिरण्यगर्भ ही थे:
( 1 ) महाभारत, 12-349, 65.
(2) ऋग्वेद, 10, 121, 1.
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् । स दाधार पृथिवी द्यामुतेमां कस्मे हविषा विधेम ॥12
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विद्वानों में यह मान्यता भी है कि कपिल के सांख्यशास्त्र से ही योगशास्त्र की उत्पत्ति हुई है। इस दृष्टि से योगदर्शन को, सांख्यदर्शन की क्रियात्मक अभिव्यक्ति माना जा सकता है । सांख्य वैचारिक अथबा ज्ञानात्मक भूमि पर अवस्थित है जबकि योग का प्रासाद क्रियात्मक भूमि पर खड़ा है । अपने-अपने क्षेत्र में ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपमेय हैं । श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता इन शब्दों में प्रतिपादित की है:
लोकेऽस्मिन्विविद्या निष्ठा, पुरा प्रोक्ता मयाभव । ज्ञानयोगेन सांख्यानां, कर्मयोगेन योगिनाम् ।।
पन्यास श्री धरणेन्द्रसागर के इस लोकोपयोगी ग्रन्थ में योगदर्शन के अद्यावधि निर्मित ग्रन्थों तथा योग के सम्बन्ध में स्वयं के अनुभूत ज्ञान का निचोड़ दिखाई देता है। योग और योगी की विशेषताओं के निरूपण के पश्चात् विद्वान्-लेखक ने नमस्कार-योग, रागादि, महत्, मनयोग, वचनयोग काययोग, दर्शनयोग, ज्ञानयोग एवम् चारित्रयोग की अत्यन्त सूक्ष्म-सटीक व्याख्या प्रस्तुत की है।
वेदान्तियों ने योग के तीन अन्तविभाग किए हैं----उपासना-योग, कर्मयोग और ज्ञानयोग । चित्त का एक लक्ष्य-विशेष पर स्थिर होना उपासना या भक्तियोग कहलाता है। सकाम कर्म, चित्त को विषय वासनाओं की ओर प्रवृत्त करते हैं । अत: वैराग्य -प्राप्ति के लिए निष्काम कर्म की अपेक्षा वांछनीय है। कर्मो के फलों से निष्कामता-प्राप्ति को, कर्मयोग कहते हैं। वैसे तो इन तीनों प्रकार के योगों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, परन्तु साधनावस्था में योग की तीनों प्रक्रियाएं साधक की रुचि अथवा सामर्थ्य के अनुसार प्रधान या गौण हो जाती है।
योगश्चित्तवृत्ति निरोधाः उक्ति द्वारा कामनाओं की प्रतिपल तरंगित होती रहने वाली लहरों पर नियंत्रण का परामर्श दिया गया है । इसके लिए अभ्यास की अपेक्षा होती है । अभ्यास के द्वारा कठिन से कठिन कार्य को भी सहज-सम्भाव्य बनाया जा सकता है ----
अभ्यासेन स्थिरं चित्तमभ्यासेनानिलच्युतिः । अभ्यासेन परानन्दोह्यभ्यासेनात्मदर्शनम् ।।
(3) श्रीमद्भगवद्गीता-3, 3.
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पन्यास श्री घरेणन्द्रसागर, जैनधर्म के मर्मज्ञ और मनीषी होने के साथ वेद-वेदांग, धर्म, दर्शन और ज्योतिष के भी विद्वान् हैं । 'योगशास्त्र ग्रन्थ के माध्यम से लेखक ने लौकिक जगत् में क्षरण-भंगुर कामनाओं के वशीभूत स्वार्थ और यत्किचित् सीमित, संकीर्ण क्षुद्र साधनों में निरत रहने वाले नर-नारियों के समक्ष दुरूह समझे जाने वाले योगमार्ग का सरल सहज और सम्भाव्य स्वरूप प्रस्तुत किया है ताकि उस पर चलकर निःस्वार्थ भाव से अभिभूत-जीवन को आध्यात्मिकता के विराट-पथ की ओर अग्रसर किया जा सके।
ऐसे सप्रयास निःसन्देह क्लिष्ट और कठिन भाषा-शैली में लिखे ग्रन्थों के अध्ययन से सम्पादित नहीं हो पाते हैं। अतः सरल तथा बोधगम्य भाषा एवम् सरस दृष्टान्तों से निर्मित यह ग्रन्थ, योग मार्ग पर चलने की कामना सजोने वाले लोगों की आध्यात्मिक यात्रा में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तथा उपादेय-सेतु सिद्ध होगा, यही मंगल-कामना है ।
डॉ. जगमोहनसिंह परिहार एम. ए. (दर्शन, हिन्दी) पी.एच. डी., डी. लिट्.
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Foreword
It gives me a great pleasure to write this short foreword to this book. There is much of practical value of these Yogas and much also of soul beauty is contained there in
This book is a mirror of human being and an institution in itself. The writer has explained how to see one's image by one self. One can be God by following his method and working on his footsteps.
The author has explained Yoga, beautifully how to see, how to speak how to live, how to behave, what is to wear, what colour is suitable, If one follows this, one can be a saint, sadhu in the worldly-living, no necessity to go in wood, or wear sadhu's dress, be a pious and have Yogas in life.
The book is written in public language. The language is very simple. Every one can understand. This book is not for one community but for all. It is for universal.
In these dark days of strife and uncertainity, one can find much peace of mind by perusal of these Yogas.
"Happy will be man, who cultivate the land”.
I wonder, you wonder, we all wonder, what it has concealed its under.
Dr. M. C. Mohnot 973/A, Geeta Bhawan.
Jodhpur,
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भूमिका
योगशास्त्र जैसे गम्भीर विषय को जन-साधारण के हृदयों में उतारना एक बहुत ही कठिन कार्य है, फिर भी गुरुकृपा से मैंने इसे विस्तारपूर्वक समझाने का प्रयत्न किया है।
योग के अन्तर्गत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों ही पुरुषार्थों का विवेचन पाता है, जिसमें धर्म और मोक्ष मुख्य हैं, किन्तु अर्थ और काम के बिना यह संसार चल नहीं सकता, अतः इनका विवेचन भी आवश्यक हो गया है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूपी त्रिरत्न भी योग के अन्तर्गत ही पा जाते हैं, अतः इनका भी विस्तृत विवेचन है । पाँच महाव्रत और गृहस्थ के १२ व्रत सम्यक् चारित्र के ही अंग हैं, अतः उनका भी व्याख्यानों में क्रमशः विवेचन हुआ है ।। २ . ॐ कार का विवेचन, ध्यान के उपाय, रंगों का शरीर और मन पर प्रभाव, मन को वश में करने के उपाय, प्राणायाम की विधि, स्वस्थ शरीर के लिये योगासनों की आवश्यकता प्रादि योग सम्बन्धी संपूर्ण विषयों पर गहन विवेचन किया गया है।
गंभीर विषय को सुनते सुनते लोग ऊब न जायें, इसलिये लोगों की ऊब को मिटाने और व्याख्यानों को सरस एवं ग्रानन्ददायक बनाने के लिये जहाँ तहाँ कथाओं और कवितामों, गीतों आदि का पुट भी दिया गया है।
पाठकगण योग के गंभीर विषय में भी इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् रस लेने लगेंगे और योग को अपने जीवन में उतार कर शरीर, मन और आत्मा की स्वस्थता, स्वच्छता और उत्कर्ष प्राप्त करेंगे तो मैं समझूगा कि मेरा प्रयत्न सफल हुआ।
ॐ शांति, शांति, शांति
क्रिया भवन,
पन्यास धरणेन्द्र सागर
जोधपुर
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然然然然然然念念為
>>>>> IN IS AS IS AN IS IN >>>
पन्यास धरणेन्द्रसागर
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द्रव्य सहयोगी
(1111) पू. आचार्य श्री वल्लभसूरीश्वरजी म. सा. की आज्ञानुवर्ती सा.
श्रो शासन दिपीका सा. श्री सुमंगला श्री जी म. ( दाखा महाराज ) के उपदेश से लखारा जैन धर्मशाला की तरफ से भेंट
301 ) श्री शान्तिलालजी मरडिया
301 ) श्री बलवंतसिंहजी मेहता 301 ) श्री हीरालालजी सुराणा 301) श्री शिवराजजी जैन
301 ) श्री नीरखचन्दजी भंडारी
301) श्री हुकमराजजी लखपतराजजी मुहणोयत 301 ) श्री मूलचन्दजी प्रकाशचन्दजी गोलिया 301) श्री प्रकाशचन्दजी यशवन्त मलजी भंडारी 301 ) श्री घेवरचन्दजी छोगाजी वारदाना वाला 301) श्री गुप्त हस्ते बोहरा
301 ) श्री प्रकाशनाथजी मोदी
301 ) श्री मोहनलालजी चुतर मेहता पीपाड़वाला
301 ) श्री मांगीचन्दजी भंडारी
301 ) श्री भंडारी ब्रदर्स, जोधपुर
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301 ) श्री जवरीलालजी माणकचंदजी नाहर
301 ) श्रीमती जड़ाव कंवरबाई धर्मपत्नी सायबचन्दजी हरजीवाला
301 ) श्री निर्मलचन्दजी कान्तिचन्दजी भंडारी
301 ) श्री वल्लभराजजी कुम्भट
301 ) श्री बच्छराजजी सिंघी
301 ) श्री ज्ञानकंवर महेन्द्र कुमारजी भंडारी 301 ) श्री जवरीमलजी रणजीतमलजी कास्टिया 301 ) श्री गुमानसिंहजी रामनाथजी मेहता 301 ) श्री नथमलजी वर्द्धमानचंदजी गोलिया 301 ) श्री हरकचन्दजीं हणवंतचन्दजी भूरट 301 ) श्री नोखचन्दजी भगवानजी
301) श्री गुणदयालचन्दजी भंडारी
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अनुक्रमणिका
-
क्र.सं.
अध्याय
पृष्ठ सं.
» Mur
४४
४९
1 GK
१. योग-शास्त्र २. योग किसे कहते हैं ? ३. योगी किसे कहते हैं ? ४. नमस्कार योग ५. रागादि ६. अरिहंत पद ७. मनयोग ८. वचनयोग ६. काययोग १०. दर्शनयोग ११. ज्ञानयोग १२. चारित्रयोग १३. पुरुषार्थ चतुष्टय १४. धर्म पुरुषार्थ १५. अर्थ पुरुषार्थ १६. काम पुरुषार्थ १७. स्वभाव पुरुषार्थ (काल पुरुषार्थ) १८. कर्म पुरुषार्थ १६. नियतिवाद पुरुषार्थ २०. पांच महाव्रत की पांच भावना २१. अहिंसा २२. सत्य २३. प्रचौर्य व्रत २४. ब्रह्मचर्य २५. अपरिग्रह
१०२
१०४
१०६
१२५
१३८
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योगशास्त्र
जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है । मन, वचन और काय के योगों को मर्यादित करने से अहिंसा का पालन होता है । अत: जैन धर्म योगप्रधान धर्म भी है । किन्तु अफसोस है कि इसका प्रचार जितनी प्रचुर मात्रा में होना चाहिए वैसा नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि हममें से कई लोगों की यह गलत धारणा बनी हुई है कि तपोवन में रहने वाले तपस्वी ही योग का पालन कर सकते हैं या भगवा वस्त्रधारी साधु ही योग का पालन कर सकते हैं, अथवा शरीर पर राख मल कर बाबा बने साधु ही योग का पालन करते होंगे, हमको योग से क्या लेना देना है ? कुछ भी नहीं । यह हमारा भ्रम मात्र है, जिसे दूर करना चाहिए ।
आयुर्वेद को चतुर्व्यूह कहा जाता है, क्योंकि उसमें रोग, रोग के कारण, आरोग्य और रोग निवृत्ति के उपाय बताये गये हैं । इसी प्रकार योगशास्त्र में भी ससार, संसार का कारण, केवल ज्ञान और मोक्ष प्राप्ति के उपायों का स्वरूप समझाया गया है। योग विद्या का मुख्य प्रयास इस विषय पर केन्द्रित है कि मन की वृत्तियों को कैसे जीता जाय । योगशास्त्र अपूर्व सिद्धि का शास्त्र है ।
मेरु गाचार्य ने प्रबन्ध चिंतामणि में वामराशि प्रबन्ध में योगशास्त्र की प्रशंसा की है। कुमार पाल ने वामराशि की आजीविका वृत्ति को हेमचद्रसूरि के प्रति असभ्य वचन बोलने के कारण बन्द कर दिया था । फिर वह वामराशि विप्र एक एक दाने के लिए मोहताज हो गया। भीख माँगकर पेट भरता और हेमचन्द्रसूरि की पौषधशाला के बाहर पड़ा रहता था । श्रनेक राजा, महाराजानों, सेठों, सेनापतियों के मुह से उच्चारित योगशास्त्र की महिमा को सुनकर वह वामराशि बोला
श्रातंक कारणमकारण दारुरणांत, वक्रेण गंरेल निरगालियेषाम् । तेषां जटाधर फटाघर मण्डलानां, श्रीयोगशास्त्र वचनामृतमुज्जिहीते । १ । जिन लोगों के मुंह से निष्कारण गाली रूपी भयानक विष
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२
]
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निकलता था, उन्हीं जटाधारी तपस्वी रूपी फरणीधरों के मुंह से अब श्री
योगशास्त्र रूपी अमृत बाहर आ रहा है ।
यशपाल कृत मोह पराजय नाटक के योगशास्त्र को वज्र कवच के समान कहा योगविंशिका के पश्चात् योगशास्त्र की ही प्रधानता है ।
योगशास्त्र
५ वें अंक में मुमुक्षु के लिए गया है । हरिभद्रसूरि कृत
प्रश्न उठता है कि संसार में अनेक योग विषय ग्रन्थ हैं, फिर आपने योगशास्त्र को ही क्यों पसंद किया ? योगदर्शन, योगतत्त्व, योगतारिका, योगसूक्तावलि, योगानुशासन, योगसार संग्रह, योगमार्ग प्रकाशिका, योगबीज आदि ग्रन्थों में कहा गया है कि 'योग: कर्मेषु कौशलम्' अर्थात् योगकर्म में कुशलता है। योगशास्त्र बताता है कि यदि किसी भी प्रकार की क्रिया में कुशलता प्राप्त करनी हो तो वह योग से ही हो सकता है ।
भजन करते समय मनोयोग होना चाहिए तभी भजन में प्रानंद श्रायेगा | हमारा योगशास्त्र यहाँ तक कहता है कि भोजन के समय भी योगी बने रहना चाहिए। यदि आप भोजन के समय काय योग का पालन नहीं करेंगे और स्वादेन्द्रिय के अधीन होकर ठूस-ठूस कर भोजन कर लेंगे तो बाद में अपने शरीर में अनेक रोगों को निमंत्रित कर लेंगे । अतः भोजन में भी योग संयम की आवश्यकता है ।
यह आवश्यक नहीं कि योग करने वाला योगी वन में ही रहे । संसार के कीचड़ के मध्य रहते हुए भी कमल की भांति उस कीचड़ से अलग रहने की कला हमारा योगशास्त्र ही सिखाता है ।
पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत जैसे महान् ध्यान का रहस्य इसी ग्रन्थ में है । प्राणायाम का स्वरूप, परकाय प्रवेश जैसी विद्याओं का रहस्य, तथा मृत्यु कब होगी यह जानने का उपाय इसी ग्रंथ में है । मार्गानुसारिता, सम्यक्त्वमय जीवन, देश विरति, सर्वविरति, अप्रमत्त चरित्र जीवन आदि जीवनकला के सभी गूढ़ रहस्य इसी ग्रंथ में सन्निहित हैं ।
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राजयोग की भव्यता को बताने वाला भी यही सर्वोत्तम ग्रन्थ है । हेमचन्द्रसूरिकृत योगशास्त्र और शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव ग्रन्थ प्रायः समानता रखने वाले हैं । कितने ही श्लोक शब्दतः मिलते हैं, जैसे
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योगशास्त्र
....?
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'मनस्यन्यद' प्रकाश २ श्लोक पृष्ठ ८६ योगशास्त्र ज्ञानार्णव पृष्ठ १४५ श्लोक ८०
'मनस्यन्यद्वचस्येन्यद् 'समीरइव निसङ्गाः- योगशास्त्र 'समीरइव निसङ्गः- ज्ञानार्णव
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कितने ही श्लोकों में शब्दांतर मात्र हैं, जैसे
'सुमेरुइव निष्कम्पः यासां साधारण स्त्रीणां ' - योगशास्त्र 'स्वरर्णाचलइवा कम्पः यासां प्रकृति दोषेरण' -- ज्ञानार्णव 'विरतः कामभोगेभ्यः ' - - योगशास्त्र
'वरिज्य कामभोगेभ्यः - ज्ञानारणव ।
[ ३
ध्यान और योग के पारिभाषिक शब्द भी ज्ञानार्णव के शब्दों के साथ साम्यता रखते हैं। ज्ञानार्णव एक विस्तीर्ण ग्रंथ है जबकि योगशास्त्र इसके समक्ष एक लघु ग्रन्थ है । ज्ञानार्णव के कर्ता शुभचन्द्रजी का समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का है, जबकि हेमचन्द्रसूरि का शुभचन्द्रजी के ७०-८० वर्ष बाद हुए हैं ।
योगशास्त्र के कुल बारह प्रकाश में १०१३ श्लोक हैं । इनको दो विभागों में विभक्त किया गया है |
इस्लाम का विश्वास है कि मोहम्मद साहब को दो प्रकार से ज्ञान मिला था - १. इल्मेसफीना और २. इल्मेसीना । पहला ज्ञान पुस्तकीय ज्ञान था जिसे कुरानशरीफ के नाम से प्रकट किया गया है । दूसरा ज्ञान हार्दिकज्ञान था जो योग्य अधिकारियों को दिया गया । हमारे योगशास्त्र में भी दो विभाग हैं । प्रारम्भ में १ से ४ प्रकाश तक प्राथमिक ज्ञान दिया गया है, तथा ५ से १२वें प्रकाश तक हार्दिक ज्ञान प्रकट किया गया है । प्रथम प्रकाश में ५६ श्लोक हैं । इसमें योग के स्वरूप की चर्चा, ५ महाव्रतों की भावना, समिति, गुप्ति तथा मार्गानुसारिता के ३५ गुणों का वर्णन है ।
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दूसरें प्रकाश में ११५ श्लोक हैं । इसमें १२ व्रतों की चर्चा, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, कुदेव, कुगुरु और कुधर्म की पहिचान तथा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के स्वरूप का वर्णन है, साथ ही साथ ५ अणुव्रतों का भी वर्णन है ।
तीसरे प्रकाश में १५६ श्लोक हैं । इसमें ३ गुरणव्रतों और ४
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कहा गया है
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शिक्षाव्रतों का वर्णन है तथा माँस, मधु, उदम्बर खाने से उत्पन्न होने वाले दोषों की चर्चा
।
योगशास्त्र
चौथे प्रकाश में १३६ श्लोक हैं । इसमें आत्मा और रत्नत्रयी की एकता को सिद्ध किया गया है तथा संसार और मोक्ष का स्वरूप बताया गया है । संसार का मूलभूत कारण कषाय है और कषाय इन्द्रियों के विषयों के प्रति श्रासक्ति से उत्पन्न होते हैं, इसका गहन विवेचन किया गया है । मन विशुद्धि की आवश्यकता, राग द्वेष जीतने के उपाय तथा मैत्री श्रादि चार एवं बारह भावनाओं का वर्णन किया गया है ।
योगशास्त्र ग्रन्थ जलनिधि, मथोमन करी मेरु मथान । समता श्रमरत पाइके हो, अनुभव रस जान |१|
योगशास्त्र रूपी समुद्र को मन रूपी मथनी ( बिलौनी) से मथने पर समता रूपी अमृत की प्राप्ति होगी, तभी समत्व के अनुभव रस की जानकारी हो सकेगी ।
अथ योगानुशासनम् योगस्य अनुशासनम् अर्थात् योगानुशासनम् योग्य अधिकारी व्यक्ति के लिये ही यह योगशास्त्र ग्रन्थ है । क्योंकि योगविद्या ही ज्ञान और जीवन का पाया है, अतः योगविद्या के ज्ञान के बिना जीवन जीना भी हानिकारक है
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जैसे चूल्हे पर पानी की पतेली चढ़ाने पर जब पानी गरम होने लगता है, तब पानी के प्रदेशों में जिस प्रकार का स्पन्दन उत्पन्न होता है, एक प्रकार का आन्दोलन चलता है, चंचलता प्रकट होती है, उसी प्रकार बाह्म और आभ्यंतर निमित्त मिलते ही श्रात्म प्रदेशों में स्पन्द उत्पन्न होता है, प्रान्दोलन मचता है, चंचलता प्रकट होती है, उसी को शास्त्रीय परिभाषा में योग कहा जाता है । यह योग तीन प्रकार का है । मनयोग, वचनयोग और कामयोग । शास्त्र में अनेक स्थानों पर योग शब्द का प्रयोग हुआ है । उसमें ऐसा भी कहा गया है कि योग से कर्म टूटता है । परन्तु हम कहते हैं कि योग से कर्मबन्धन होता है । श्रापको यह दोनों वाक्य परस्पर विरूद्ध लगते होंगे : जहाँ योग का अर्थ प्रणिधान से है, वहाँ अत्यन्त शुद्ध बने हुए ऐसे धर्म व्यापार के अर्थ में ग्रहरण करने से योग
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योगशास्त्र
[ ५.
से कर्म क्षय होता है । परन्तु जहाँ योग से कर्मबन्ध होने का अर्थ किया जाय, वहाँ योग शब्द का अर्थ प्रणिधान से प्रत्यंत शुद्ध बने हुए धर्म व्यापार से नहीं है, अपितु श्रात्म- प्रदेश के आन्दोलन के स्पन्दन रूपी योग द्वारा आत्मा कार्मरण वर्गरणा को अपनी ओर आकर्षित करती है और कार्मण वर्गरण का आत्मा के साथ मिलना ही कर्मबंध है ।
योगशास्त्र ग्रंथ सुनने का अधिकारी कौन ?
आप क्या सुनना चाहते हैं ? क्या योगशास्त्र सुनना है ? शिष्य बन कर सुनेंगे या शिष्य होकर सुनेंगे ? इस विषय पर एक उदाहरण सुनिये -
तीन दिन से भूखा एक गरीब भूख से तड़फता हुआ इधर-उधर भटकता हुआ भगवान् बुद्ध के पास आता है और उन्हें देखता है । गरीब के मन में विचार श्राता है कि 'यदि मैं भगवान् बुद्ध का शिष्य बन जाऊँ तो सदा के लिये मेरी खाने-पीने की चिंता ही मिट जाय । अत्यन्त विनम्र होकर उसने भगवान् बुद्ध को नमन किया और बोला, “भगवान् ! आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिये ।"
भगवान् बुद्ध ने कहा, "वत्स ! तुझे शिष्य बनना है या शिष्य होना हैं ?"
इस अटपटे प्रश्न से गरीब घबरा गया, बोला, "भगवन्! मैं कल इस विषय पर विचार कर उत्तर दूँगा ।"
भगवान् बुद्ध बोले, "यदि तुझे शिष्य बनना हो तो अभी शिष्य बना लेता हूं | यदि तुझे शिष्य होना है तो कल इस विषय पर पूरा विचार कर फिर आना ।"
जब गरीब जाने लगा तो भगवान् बुद्ध ने फिर कहा, "जो शिष्य बनता है, वह दूसरों को भी बना देता है ।"
गरीब फिर भी कुछ नहीं समझ सका । बाद में उसे पता लगा कि शिष्य बनने की अपेक्षा शिष्य होना अच्छा है । गरीब रातभर विचार करता रहा, “मुझे तो खाने-पीने की चिंता है। भगवान् बुद्ध का सयम भी बहुत कठिन है, मैं उसका पालन नहीं कर सकूँगा ।"
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योगशास्त्र
दूसरे दिन प्रातः काल वह भगवान् बुद्ध के पास गया और बोला, "भगवन्! मुझे शिष्य बनाइये ।"
बुद्ध भगवान् ने उसे एक मंत्र दिया और कहा, " वत्स ! तीस रातदिन तक इस मंत्र का अखंड जाप करना । जाप करने के पहले जितने कंकर पत्थरों का ढेर इकट्टा कर सकते हो, कर लेना । जाप पूर्ण होने पर ये सभी कंकर पत्थर रत्न बन जायेंगे ।"
गरीब ने २९ दिन-रात तक अखंड जाप किया किन्तु कंकर रत्न नहीं बने । ३० वें दिन भी प्रखंड जाप चलता रहा पर कंकर तो अब भी कंकर ही थे, रत्न बनने जैसा कोई परिवर्तन ही उनमें दिखाई नहीं दे रहा था । ३० वीं रात बीतने में मात्र दो घंटे शेष रह गये थे, पर कंकर तो अब भी कंकर ही थे, वे रत्न नहीं बने । गरीब की श्रद्धा खंडित हुई, वह बड़बड़ाने लगा, “भूख से जान निकली जा रही है, अरे कंकरों ! अनाज तो बन जाओ ।" उसका इतना बोलना था कि कंकर अनाज बन गये ।
गरीब ने बुद्ध भगवान् के पास जाकर पूछा, "भगवन् ! कंकर रत्न तो न बने पर अनाज बन गये, इसका क्या कारण है ?"
भगवान् बुद्ध बोले, '३० वीं रात्रि की अंतिम घड़ी श्रौर पल ही उत्तम थे, उसी समय उत्तम नक्षत्रों का योग होने वाला था । यदि तू थोड़ा धीरज रखता तो सारे कंकर रत्न बन जाते" ।
यह सुनकर गरीब सोचने लगा, शिष्य बना तो भी गरीब का गरीब ही रहा, अब शिष्य हो जाऊं तो जन्म-जरा-मरण से बच जाऊ' । आप भी इस ग्रन्थ को शिष्य होकर सुनें ।
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एक विद्यार्थी अरब देश से भारत में पढ़ने के लिए आया । उस समय गुरुकुलों में विद्याभ्यास कराया जाता था । एक समय गुरुजी पाठ पढ़ा रहे थे तभी एक हाथी गुरुकुल के मकान के पास से निकला । सभी विद्यार्थी हाथी को देखने के लिए बाहर चले गये, किन्तु वह अरब देश का विद्यार्थी खड़ा भी नहीं हुआ । गुरु ने उससे पूछा, "तुम्हारे देश में तो हाथी नहीं होता । तुमने कभी हाथी देखा भी नहीं होगा ? फिर भी तुम हाथो देखने नहीं गये, इसका क्या कारण है ? क्या तुम्हारे मन में हाथी को देखने की उत्सुकता पैदा नहीं हुई ?" विद्यार्थी बोला, "मैं हजारों मील की
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योगशास्त्र
दूरी से पढ़ने के लिये आया हूँ, हाथी देखने नहीं । आप पाठ पढ़ा रहे हैं तब मैं बीच में ही उठकर हाथी देखने कैसे जाता।"
जैसे पाठ पढ़ते हुए बीच में नहीं उठना चाहिये, वैसे ही प्रवचन को प्रधबीच में छोड़कर नहीं उठना चाहिये। योगा शास्त्रवाणी को पूर्ण प्रादर के साथ संपूर्ण सुननी चाहिये।
एक सेठ को पूण्ययोग से अच्छी सेवाभावी सेठानी मिली। वह सेठ बहुत आलसी था । सेठ के प्राने पर सेठानी पटिया लगाती, उस पर प्रासन बिछाती, भोजन की थाली परोसती, फिर रोटी का कौर तोड़कर उसके मुह में देती। इतनी सेवा करने पर भी सेठ का मुह चढ़ा हो रहता । एक दिन सेठानी ने कह दिया, "मुह थोड़ा हँसता हुअा रहे तो मुझे भी सेवा में कितना प्रानन्द प्राये। मैं रोटी का कौर तक अपने हाथ से तुम्हारे मुह में 'देकर तुम्हें खाना खिलाती हूँ, फिर भी तुम अपने मुह पर हास्य की एक रेखा भी नहीं बिखेर सकते, इसका क्या कारण है ?"
सेठ ने धीरे से कहा, "यह सब तो ठीक है, पर मुंह में दिये हुए कौर को चबाता कौन है ? मैं या तुम?" श्रोताओं ! कहीं आपका भी तो यही हाल नहीं है।
प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि तो ज्ञानामृत के भोजन इस योगशास्त्र को पुस्तक के अमर पात्र में रखकर चले गए है, किंतु इस अमृत का पान आप सरलता से नहीं कर सकते । यह अमृत संस्कृत भाषा में है। इसका पान करने के लिए आपको इन भाषामों का ज्ञान हासिल करना पड़ेगा। किन्तु इस समय तो आपको इस अमृतपान का स्वर्ण अवसर प्राप्त हुआ है, क्योंकि प्रवचनकार महात्मा प्रापकी भाषा में इसे प्रापको समझा रहे हैं। ऐसा अवसर तो महान् पुण्य से ही प्राप्त होता है, अतः इसे सार्थक करना प्रब आपके हाथ में है ।।
एक दृष्टान्त और सुनिये।
एक बीमार रास्ते में पड़ा था। उसी समय एक तरफ से एक वैद्य आया और दूसरी तरफ से एक सेठ आया । वैद्य ने बीमार की नाड़ी देख कर कहा, मेरे साथ चलो, मैं तुम्हें औषधि देकर स्वस्थ कर दूंगा।" तभी सेठ ने उससे कहा, "यहाँ पड़ा क्या कर रहा है ? चल मेरे साथ चल ।
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८
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योगशास्त्र
तुझे मकान, कपड़ा, भोजन सभी कुछ दूंगा । मौज शौक से रहना।" बीमार बेचारा दुविधा में पड़ गया। सेठ के साथ जाऊँ या वैद्य के साथ जाऊं।
आपके सामने भी यही प्रश्न है । प्रिय श्रोताओं ! प्रात: नौ से दस बजे का समय प्रवचन का है और यही समय ग्राफिस जाने तथा दुकान खोलने का है। आपने भी कुछ निश्चय किया है या नहीं ? भव-रोग हारिणी योग शास्त्रवाणी सुननी है या मात्र पैसा कमाना है ? यदि निर्णय न किया हो तो घर के अन्य सदस्यों से परामर्श कर निर्णय कर लेवें ।
योगशास्त्र की रचना के साधन श्रुतां मोघेरधिगम्य सम्प्रदायाच्च सद्गुरोः । स्वसंवेदनतश्चापि योगशास्त्रं विरच्यते ।।१-४।।
श्रुत रूपी समुद्र में से, सद्गुरु के संप्रदाय से और अपने स्वयं के अनुभव से इस योगशास्त्र की रचना कर रहा हूं।
श्रुतसिन्धोगुरुमुखतो यदधिगतं तदहि दर्शितं सम्यक् । अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिमखिलम् ।।१२-१।।
श्रुत रूपी समुद्र में से और गुरु के मुह से मैंने जो कुछ सुना और समझा है, उसे मैंने यहां सम्यक् प्रकार से प्रस्तुत किया है । मुझे अपने स्वयं के अनुभव से जो कुछ सिद्धि प्राप्त हुई है, उस सारे तत्त्व को अब मैं यहां प्रकट करता हूँ।
प्राचार्य हेमचन्द्रसूरि ने योगशास्त्र की रचना में कारण भूत तीन साधनों को बताया है-१. शास्त्र, २. सद्गुरु की वाणी और ३. प्रात्मानुभव । इस प्रकार हेमचन्द्राचार्य महाराज ११ वें प्रकाश तक शास्त्र और परंपरा के प्रमाण से योग की व्याख्या करते हैं। फिर १२ वें प्रकाश में अपने अनुभव की वाणी द्वारा प्रकट करते हैं ।
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योग किसे कहते हैं
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भारतीय संस्कृति में योग का अत्यधिक महत्त्व रहा है । प्रतीत काल से ही भारतीय मूर्धन्य मनीषीगरण योग पर चिंतन, मनन, विश्लेषण करते रहे हैं। क्योंकि योग से मानव जीवन पूर्णत: विकसित होता है । मानव जीवन में शरीर और आत्मा इन दोनों की प्रधानता है । शरीर स्थूल है और श्रात्मा सूक्ष्म है । पौष्टिक और पथ्यकारी पदार्थों के सेवन मैं तथा उचित व्यायाम आदि से शरीर पुष्ट और विकसित होता है । योग से काम, क्रोध, मद आदि विकृतियां नष्ट होती हैं । श्रात्मा की जो अनन्त शक्तियाँ प्रावृत्त हैं, वे योग से अनावृत्त होती हैं और प्रात्मा की ज्योति जगमगाने लगती है । आत्म विकास के लिये योग एक प्रमुख साधन है ।
'अतस्त्वयोगो योगानां योगः पर उदास्थितः । मोक्ष योजन भावेन, सर्व संन्यास लक्षणः ।। "
मन, वचन तथा काया के योगों का प्रयोग ही वास्तविक योग है । . यह प्रयोग रूपी योग श्रात्मा को मोक्ष से जोड़ता है । यह प्रयोग रूपी योग समस्त पदार्थों के त्याग रूपी सर्व सन्यास लक्षरण वाला है। योग क्या करता है ? इस पर शास्त्र कहते हैं
-
' क्षिणोति योगः पापानि चिरकाल जितान्यपि । प्रचितानि यथैधांसि क्षणदेवाशुशूक्षणिः || '
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जैसे बहुत दिनों से एकत्रित लकड़ी के ढ़ेर को अग्नि एक क्षरण में जलाकर भस्म कर देती है, उसी प्रकार बहुत काल से एकत्रित कर्मों को भी योगाग्नि क्षरण भर में जला कर भस्म कर देती है। माना कि एक भव में बहुत से किये हुए पाप कर्मों को योग नष्ट कर सकता है, पर अनेक भवों के किये हुए पाप कैसे नष्ट हो सकते हैं ? उत्तर यह है कि लकड़ी को इकट्ठी करने में जितना समय लगता है, क्या उसको जलाने में भी उतना समय लगता है, नहीं लगता । ठीक इसी प्रकार कर्मों को इकट्ठा करने में जितना समय लगता है, उनको क्षय करने में इतना समय नहीं लग सकता । यदि ऐसा हो तो जीव का मोक्ष कभी हो ही नहीं सकता ।
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योग किसे कहते हैं ?
क्योंकि जब तक पाश्रव बंद नहीं होगा, तब तक कर्म क्षय के साथ साथ नवीन कर्म भी बंधते रहेंगे। प्रात्यंतिक कर्म क्षय का काल तो हमारे अनुभव में नहीं पा सकता क्योंकि मिथ्यात्त्व, अविरति, योग प्रमाद और कषाय इनमें से किसी एक का निमित्त तो रहता ही है । अत: कर्म एकत्रित करने में जितना समय लगता है, उतना समय कर्मक्षय करने में नहीं लगता। प्रानन्दघनजी योगी पुरुष कहते हैं:
___'षड् दर्शन जिन अंग भरणीजे' जैन दर्शन में सभी दर्शनों का समावेश हो जाता है । दर्शन कौन कौन से हैं ? विश्व में मुख्य छः दर्शन हैं (१)जैन दर्शन (२) बौद्ध दर्शन, (३) सांख्यदर्शन (४) कपिल दर्शन, (५) नैयायिक दर्शन, और (६) मीमांसक दर्शन । इनमें से नैयायिक दर्शन में पातंजलि नामक समर्थ प्राचार्य हए जिन्होंने पातंजलि योगदर्शन नामक ग्रंथ की रचना की। पातंजलि के विषय में थोड़ा विचार करते हुए परमहंस योगानन्द ने अपनी पुस्तक 'पाटोबायोग्राफी ग्राफ ए योगी' में क्रिया योग विज्ञान पर थोड़ा प्रकाश डाला है। ऐसा लगता है कि पातंजलि के समय में राजयोग और क्रियायोग दोनों ही योग को विधियां प्रचलित थी। पातंजलि के समय में भारतवर्ष प्राध्यात्मिक दृष्टिकोण से काफी उन्मत अवस्था में था । उस समय राजयोग की साधना के लिये लोग सक्षम थे, अतः लोगों ने राजयोग को ही अपनाया था। इस प्रकार क्रिया योग की विधि धीरे-धीरे लुप्त प्रायः हो गई। पातंजलि के योग सूत्र में सर्व साधारण लोगों के लिये क्रिया योग नामक किसी भिन्न योगिक विधि का उल्लेख है -- ___ 'तपः स्वाध्यायेश्वर प्राणिधानानि क्रियायोगः'
(सूत्र १ साधना पद २) इससे स्पष्ट होता है कि क्रियायोग नामक कोई अन्य विधि पातंजलि के समय में भी मौजूद थी या महर्षि पातंजलि इस विधि को जानते थे। जगद्गुरु शंकराचार्य तथा सत कबीर को भी क्रियायोग की दीक्षा प्राप्त थी, ऐसा सुना जाता है । चौथी पांचवीं शताब्दी में गांधार के एक बौद्ध भिक्षु प्रसंग ने पातजलि योग दर्शन के आधार पर बौद्ध योगचर्या' की रचना की । यद्यपि पातंजलि योग दर्शन ४ थी ५ वीं शताब्दी में न जाने किस किस रूप में कहाँ कहाँ पहुच चुका था, तथापि वहाँ उसका इतना व्यापक प्रचार प्रसार नहीं था। ६४७ ई. में हुमापातंजलि योग दर्शन
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योग किसे कहते हैं ?
[ ११
का बौद्ध धर्म की मान्यताओं के अनुसार परिवर्तित रूप का चीनी भाषा में अनुवाद भी हो गया था; किंतु उसका महत्व यदि चीन में बढ़ा है तो उसका श्रेय एक भारतीय भिक्षु शुभंकर को जाता है, जिसने सन् ७१६ ई. में उस देश की यात्रा की थी। उन्होंने उस समय के प्रसिद्ध मठाधीश त्सान गोसेइ को, जो श्राइडिंग के नाम से जाने जाते थे, भारतीय दर्शन की शिक्षा दी थी। फलतः शुभंकर को उनका समर्थन मिला और चीनी राज दरबार में श्रादर मिला ।
इसी पातंजलि योगदर्शन पर १४४४ ग्रंथों के रचयिता समर्थ शास्त्रकार हरिभद्रसूरि महाराज ने योगविंशीका ग्रंथ की रचना की । इसी योगविंशीका पर न्यायावतार यशोविजयजी म. सा. ने संस्कृत में टीका की ।
योग के कितने प्रकार है ? योग बिंदु में योग के पांच प्रकार बताये गये हैं:- १. अध्यात्म योग २. भावना योग ३. ध्यान योग ४. समता योग और ५ वृत्ति संक्षेप योग। इसमें प्रथम अध्यात्म योग तत्त्व चितक रूप है और भावना योग अध्यात्म योग का निरन्तर अभ्यास करने से सिद्ध होता है । उपरोक्त दानों योगों की सिद्धि के फलस्वरूप ध्यान योग की शक्ति प्रस्फुटित होती है । ध्यान योग के प्रभाव से इष्ट अनिष्ट पदार्थों में एवं मान अपमान की परिस्थितियों में जो प्रखंड समभाव रहता है वहीं समता योग है । चारों योगों के फलस्वरूप मन की विकल्प रूप वृत्ति तथा शरीर की हलन चलन रूप प्रवृत्ति के क्रमशः निरोध होने पर वृत्ति संक्षेप योग होता है । ध्यान विचार ग्रंथ में योग के ६६ प्रकार बताये गये है । योग दर्शन तत्त्व के समुचित संग्रहकारक भगवान पातंजलि योगदर्शन में कहते हैं कि:'योगश्चित्तवृत्ति निरोधः । चित्तस्य वृत्तिनाम् निरोधः यस्मिन् सः योगः '
जिससे चित्रवृत्ति का निरोध होता हो, उस क्रिया को योग कहते है। 'समाधीयन्ते निरुद्धयन्ते एकागीक्रियते चित्तवृत्तयो यस्मिन्नवस्था विशेषे'
जिस अवस्था विशेष में चित्र वृत्तियों का निरोध हो, समाधि तक पहुँचा जाय और चित्त को एकाग्र किया जा सके, वह योग है ।
'चित्त वृत्ति निरोध' कहना बहुत सरल है, परन्तु उसका पालन
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१२
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योग किसे कहते हैं ?
करना हवा को पकड़ कर ऊपर जाने जैसा कठिन कार्य है। बेचारा चहा बिल्ली के नाश का विचार तो करता रहता है, पर कर नहीं सकता, इसी प्रकार कई लोग चित्तवृत्ति निरोध की बात तो करते है, पर कर नहीं सकते।
गीता में कृष्ण ने समता को ही योग कहा है, 'समत्व योग उच्यते'। व्यासजी ने कर्म में कुशलता को ही योग कहा है, 'योगः कर्मसु कौशलम' । व्याकरण में धातु प्रत्यगत अर्थ यौगिक अर्थ (रूद्र नहीं) को योग कहते हैं । रसायन क्रिया में दो भिन्न पदार्थों के मिलने से नये पदार्थ को उत्पत्ति को योग कहते है । गणित में जोड़ को योग कहते है।
द्वादशांगी चार अनुयोगमय है:-द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, कथानुयोग और चरणकरणानुयोग। श्री भद्रबाहु स्वामी ने प्रावश्यक नियुक्ति में साधु की व्याख्या करते हुए बताया है कि:
'निव्वाण साहए जोगे जम्हा साहति साहुणो' जिन्होंने निर्वाण साधक योग की साधना की है या करते हैं वे ही साधु हैं । अर्थात् जहां योग की साधना है, वहीं योगाभ्यास है और वहीं साधुता है।
जहां योग साधना नहीं वहां योगाभ्यास नहीं और जहां योगाभ्यास नहीं वहां साधता भी नहीं। आपके सामने दो मार्ग हैं १. भौतिक मार्ग
और २. आध्यात्मिक मार्ग । आपको कौनसा मार्ग अपनाना है, यह पाप ही निश्चित कर सकते है । क्योंकि:
'शुभाशुभाम्यां मार्गास्यांवहति वासना सरित् । पौरुषेम प्रयत्नेन योजनीया शुभेपथि ।'
मन की नदी शुभ और अशुभ मार्ग में बहती हुई पुण्य और पाप का अर्जन करती है । आपको क्या अर्जन करना है ?
__ 'जं छेयं तं समाचरे' जो श्रेयस्कर है, कल्याणकारी है, उसका प्राचरण करें। __ योग शब्द युज् धातु से बना है । युज् अर्थात् जोड़ना । मोक्ष के साथ जिस कार्य से जुड़ा जा सके वह योग है।
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योग किसे कहते हैं ?
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'मोक्षेण योजनाद् योगः '
समाधि किसे कहते हैं ?
'सम्यक स्थापन समाधि'
समता में स्थिर होना ही समाधि है |
NDRY
PONT RA
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आप पूछेंगे कि योग संप्रदाय की उत्पत्ति सबसे पहले किससे हुई ? योग संप्रदाय का प्रारम्भ हिरण्यगर्भ से हुआ क्योंकि श्रीमन्नत्थुराम प्रवर्तक ने सर्वप्रथम श्री हिरण्यगर्भ को नमस्कार किया है। भगवत् गीता के अनुसार विष्णु भगवान् ने सूर्य के समक्ष योग विद्या का प्रथम प्रकाश कहा । मनु ने star को योगविद्या बताई। बहुत समय बाद यह परंपरा टूटी । कृष्ण ने फिर से इस विद्या को पुनर्जीवित किया और इसका रहस्य अर्जुन को दिया । शैव धर्मावलंबी लोग योग विद्या का मूल शंकर भगवान् से मानते है । जैन आदीश्वर भगवान् को इस विद्या का प्रथम प्रवर्तक मानते हैं, जिन्होंने इस भूमि पर संस्कृति का प्रथम प्रचार किया ।
vet
] १३
वर्तमान काल अत्यधिक वेग से प्रगति कर रहा है । ऐसे समय में क्या योग साधना जैसी प्राचीन पद्धति का प्रचार करना योग्य है ? वर्तमान काल में विज्ञान ने दो दुकानें खोल रखी है, रिटेल और होलसेल । रिटेल दुकान से मनुष्य जीवन की सुख सुविधा स्वास्थ्य और मनोरंजन की सामग्री खरीद सकता है। किंतु होलसेल दुकान पर तो रोग, शोक, चिंता और विनाश की सामग्री बेची जाती है । वैज्ञानिक साधनों के साथ जीवन का संघर्ष बढ़ा है । इस संघर्ष से यदि कोई रक्षा करने में समर्थ है तो वह प्राध्यात्मिक योग साधना ही है आज की परिस्थिति में जहां मनुष्य रोटी, कपड़ा, मकान के संघर्ष में जुटा हो वहां योग साधना क्या मदद कर सकती है ? योग साधना से निरोग शरीर, स्वस्थ मन और अडिग श्रात्म श्रद्धा की प्राप्ति होती है, जिससे रोटी, कपड़ा, मकान की समस्या सरलता पूर्वक हल हो सकती हैं। इसीलिये अनुभवी महापुरुषों ने योग को कल्पवृक्ष मौर चिंतामणि रत्न की उपमा
दी हैं ।
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- युज् धातु४गरण.
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योगी किसे कहते हैं
?
यह शरीर एक रथ है और उसमें रही हुई श्रात्मा इस शरीर रुपी रथ को हाँकने वाला सारथी है । इस शरीर रुपी रथ में चित्त रुपी चंचल अश्व जुड़ा हुआ है । योग इस चंचल घोड़े को काबू में लाने की क्रिया प्रक्रिया है अर्थात् योग ही इस चंचल घोड़े की लगाम है । योग की साधना द्वारा मन की बातें जानी जा सकती है तो मन को काबू में भी रखा जा सकता है । संसार के अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखित आत्मा के लिये योग ही परमौषध है । कहा भी है :
'भवतापेन तप्तानां योगोइि परमौषधम्
संसार के त्रिविध ताप से जलते हुए प्राणियों के लिये योग ही परम प्रौषध है । प्रश्न उठता है कि ताप कितने प्रकार के होते हैं और ताप किसे कहते हैं? ताप अर्थात् दुःख तीन प्रकार के होते हैं: - ( १ ) श्राध्या - त्मिक ताप, (२) आधिभौतिक ताप और (३) अधिदैविक ताप । मल, मूत्र, वात, पित्त, कफ आदि के कारण से शरीर में जो रोग आदि पैदा होते हैं उन्हें आधिभौतिक ताप कहा जाता है । तिर्याच या देव आदि द्वारा प्राप्त होने वाले दुःख को प्राधिदैविक ताप कहा जाता है । यदि कोई व्यक्ति दिन भर क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष आदि से घिरा रहे तो यह आध्यात्मिक ताप कहा जाता है ।
1
मैं अमुक व्यक्ति को कैसे मारू ? कैसे अमुक व्यक्ति को परेशान करू ? ऐसे भाव मन में क्यों उठते हैं? क्रोध के कारण । संसार में मुझे कहने वाला कौन हैं ? मेरे से बड़ा कौन है ? यह है अभिमान । श्रमुक व्यक्ति को मैं कैसे शीशी में उतारु ? छल कपट द्वारा उसकी संपत्ति पर कैसे अधिकार करु ँ ? यह है माया । सारे विश्व की संपत्ति मुझे ही मिल जाय, अधिक से अधिक लोगों पर मेरा शासन चले, यह है लोभ, इसी को आध्यात्मिक ताप कहा जाता है ।
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बीसकीं सदी के लोग कहते हैं कि मनुष्य पानी में तैर भले ही सकता है, परंतु पानी पर चल नहीं सकता । यदि मनुष्य का श्वासोच्छवास बंद हो जाय तो वह जीवित नहीं रह सकता । मनुष्य का शरीर भारी
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योगी किसे कहते है ?
[ १५
होंने से वह श्राकाश में बिना किसी सहारे के रह नहीं सकता । किंतु योग विद्या ने तो सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य पानी पर चल सकता है। बिना सहारे के आकाश में लटका रह सकता हैं । ऐसे योग को सिद्ध करने वाले को योगी कहा जाता है ।
आप समझते होंगे कि योगियों के घर नहीं होते किंतु योगी तो कहते हैं कि उनका घर होता है । उनका घर कैसे होता है? सुनिये, पाँच रूपी मजबूत नींव वाला, कमर रूपी मध्यभाग वाला, भुजानों रूपी महल वाला, सप्तधातु की दीवारों वाला और नौ दरवाजों वाला यह शरीर ही योगी का घर है ।
विद्वान पंडित या सज्जन पुरुष आसानी से मिल सकते हैं किन्तु वर्तमान काल में तत्त्व के जानने वाले, विशुद्ध चित्त वाले योगी का मिलना प्रति दुर्लभ है। नीम के फल जब पक जाते हैं तब मीठे हो जाते हैं, किंतु उनकी गुठली तो खारी ही रहती है, अर्थात् बाहर से नीम-फल मीठा भले ही हो जाय, किंतु उसके भीतर जो खारापन भरा है वह कभी मिट नहीं सकता। ठीक इसी प्रकार सामान्य जन बाहर से दिखाने के लिये मधुर स्वभाव वाले भले ही हो जाय किंतु भीतर से तो ईर्ष्या द्वेष वाले ही होते हैं । इसके विपरीत योगियों की चित्तवृति भीतर से मधुर होती है । वे बाहर भीतर दोनों तरफ समान भाव वाले होते हैं ।
किसी ने कहा कि योगी अभक्ष भोगी होते हैं, अर्थात् न खाने योग्य पदार्थ को भी खा जाते हैं । सामान्य अर्थ में तो यह कथन ठीक नहीं लगता, किंतु गूढ़ अर्थ में यह कथन ठीक भी है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, जीव और काल इन छः द्रव्यों में सबसे बलवान द्रव्य काल होता है, किंतु योगी तो उस काल को भी खा जाते हैं। आनन्दघन जी ने यही कहा था कि काल सबको खा जाता है । ऐसा कोई तत्त्व नहीं है, जिसे काल नहीं खाता हो । सीमेंट के मकान को भी काल हिला देता है। लोहे के साँचों से बने मकान को भी काल जमीन अस्त कर देता है । काल का पंजा वस्तु मात्र को जीर्ण बना देता है । ऐसे काल का भक्ष्य योगी पुरुष करते हैं अर्थात् समाधि अवस्था में योगी पर काल का भी प्रभाव नहीं चल
सकता ।
कहते हैं कि योगी नहीं पीने योग्य वस्तु को भी पी जाते हैं । इसका
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योगी किसे कहते हैं ?
प्रयोग भी गूढ़ अर्थ में होता है, सामान्य में नहीं । ब्रह्म अमृत रूपी कला को इस संसार में कोई नहीं पी सकता, पर योगी तो ब्रह्म अमृत के घूट भर-भर कर पीता है ।
जहाँ कोई नहीं पहुंच सकता ऐसे स्थान में भी योगी पहंच जाते हैं । परम पद रूपी अगम्य स्थान को भी योगी पहुंच जाते हैं, इसीलिये तो योगी को अगम्यगामी कहा गया है । योगी पुरुष ही वास्तव में ब्रह्मचारी होते हैं । प्रात्मा का ही पयार्यवाची शब्द ब्रह्म है । ब्रह्म में ही रमण करने वाले, अष्ट प्रहर ब्रह्म का ही चितन करने वाले योगी ही वास्तविक ब्रह्म चारी होते हैं।
एक साधक स्थान-स्थान पर जाकर कहता था कि मुझे चेतना खिला दो। यह सुनकर सभी उसके समक्ष अपनी अपनी मान्यता से चेतना की व्याख्या करने लगे, पर उस साधक को किसी के कथन से संतोष नहीं हुप्रा । आखिर एक योगी उसे मिल ही गया । इस विषय पर आनन्दधनजी ने कहा है'मत मत भेदे रे जो जइ पूछिये, सहु थापे अहमेवा।
अभिनंदन जिन दरशन तरसिये।" साधक ने योगी से कहा "मैं जहाँ जहाँ गया, सभी अपने अपने मत की स्थापना करने में लगे हुए दिखाई दिये । आप ही मुझे चेतना खिला दीजिये। योगी ने विचार किया कि यह साधक बहुत भटक चुका है। यदि मैंने इसे चेतना का सीधा-सा अर्थ बताया तो शायद इसकी समझ में भी न पाये अतः उसने प्रत्यक्ष दृष्टांत द्वारा समझाना ही उचित समझा । उसने कहा, "यहाँ से थोड़ी दूर पर सरोवर है, उसमें एक मच्छ रहता है, उसके पास चला जा, वही तुझे समझायेगा।" साधक उस सरोवर पर गया और मच्छ से बोला, "मुझे चेतना खिला दो।" मच्छ ने गर्दन उठाई और कहा, "मेरा एक काम करो, मुझे बहुत जोर की प्यास लगी है, पहले पानी 'पिला दो।' साधक बोला, “अरे तू पानी में तो है, थोड़ी गर्दन नीचे कर तो पानी ही पानी है, जी भरकर पीले ।" इस पर मच्छ बोला, “सुन रे, साधक ! तू पूरे विश्व में भटकता फिरता रहेगा तो भी तुझे कहीं चेतना नहीं मिलेगी, क्योंकि जिसे तू खोज रहा है, उस चेतना से ही तो तू जीवित है। मात्र दृष्टि को घुमाने की अावश्यकता है । वह तो तेरे पास ही है । भीतर डुबकी लगाते ही तू चेतनामय हो जायेगा।"
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योगी किसे कहते हैं ?
[ १७
आप भी साधक हैं। यदि आप सुख प्राप्त करने के लिये जड़ वस्तुत्रों के समक्ष भिखारी बनकर मानते हैं कि आपको सुख मिलेगा, तो यह आपकी भारी भूल है। जो स्वयं नाशवान् है, वह आपको शास्वत सुख कहाँ से देगी ? जरा भीतर डुबकी लगाइये, अनंत सुख तो आपके भीतर भरा हुआ है। कहा भी हैं
'जगदीश ने जोवा मारे दसे दिशा अथड़ायो रे। जागी ने जोयो तो, ए तो धरमां ही जहुयोरे ।।"
चेतना- ब्रह्म या प्रभु आपके भीतर ही हैं। बाहर उसे ढूढने की आवश्यकता नहीं है । मात्र भीतर झाँक कर उसे पहचानना है
'जगत ना नाथ ने जाण्या बिना, सों धूल धाणी छ।
प्रभु निरख्या बिना नयने, उभी चौरासी खाणी रे ।।' योगी किसको कहते हैं ? 'योगः समाधिः सोऽस्यांस्ति इति योगवान्' ।
(उ.बृ.व.) जिस व्यक्ति की आत्मा में समाधि हो, उस योगवान् को योगी कहा जाता है। योगी पुरुष के लक्षण क्या हैं ? 'निर्भयः शक्रवद् योगी नन्दत्यानन्दन नन्दने'
-(ज्ञान साराष्टक) इन्द्र के समान निर्भय योगीराज प्रात्म-आनन्द रूपी नन्दन वन में विहार करते हैं।
'यतो यतो निश्वरति मनश्वाचलमस्थिरम् ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ।।"
जिस-जिस मार्ग से चंचल मन अस्थिर होता है, उसके प्रतिपक्षी मार्ग द्वारा रोककर योगी पुरुष प्रात्मा में ही मन को स्थापित कर चंचल मन को वश में कर लेते हैं। कहा भी है
'प्रयत्नाधतमानस्तु योगी संशुद्ध किल्विषः अनेकजन्म संसिद्धिस्ततो याति परांगतिम् ।।'
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योगी किसे कहते हैं ?
प्रयत्न द्वारा यत्न करता हुमा योगी अनेक जन्मों से एकत्रित पाप को धोकर परमात्म पद को प्राप्त करता है । भगवद् गीता में भी कहा है कि
'तपस्विम्यश्चाधिको योगी, तस्माधोगी भवार्जुनः ।'
तपस्वी से भी योगी बढ़कर है, ज्ञान से भी योगी अधिक है, कर्मो से भी योगी अधिक है, अतः हे अर्जुन ! तू योगी बन । योगी की मस्ती देखिये
'अय दिल ! तुझे क्या हर्ष करना है, तुझे संसार क्या करना। सदा जंगल में रहना है, तुझे घर बार क्या करना ।। हमें दौलत की क्या परवाह, तले टकसाल झरती है।
जलने वालों की यह आदत है, यहाँ तो मौजें उड़ती हैं ।।' तुलसीदासजी ने भी कहा है--
'तुलसी या संसार में समसे मिलिये धाय। क्या जाने किस वेप में, नारायण मिल जाय ।"
आज के बुद्धिवादी युग में पले हुए किसी प्रगतिवादी ने तुलसीदास जी को भी हंसी में उड़ा दिया:
'बेढ़ब या संसार में सबसे मिलिये धाय ।
न जाने किस वेष में सी आई डी मिल जाय ।' भगवान् महावीर ने तो पहले ही कह दिया है कि:
'भुज्जो य साड् बहुला मणुस्मा नो पमायए ।'
संसार में कपटी मनुष्य अधिक है, अत: ए लोगों ! गाफिल मत रहो, प्रमाद मत करो।
योगी को जगल में ही क्यों रहना चाहिये ? इस विषय में भी शास्त्र ने कहा है कि:
'जनेम्यो वाक ततः स्पन्दो मनसश्चित्त विभ्रमः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग: जैनर्योगी ततस्त्यजेत् ।।'
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योगी किसे कहते हैं ?
__ जहाँ अधिक लोगों से संसग होता है, वहाँ बोलना भी पड़ता है। बोलने से मन में स्पन्दन होता है । स्पन्दन से संकल्प विकल्प होते हैं। इनके बढ़ने से चित्त भ्रमित होता है, अतः योगी को जन सम्पर्क का त्याग करना चाहिये।
सुखी मनुष्य की पहचान क्या है ? बाह्य साधनों के प्रति जो व्यक्ति उदासीन हो, वह वास्तव में सुखी हैं। जो व्यक्ति जितना अधिक बाह्य साधनों के पोछे पड़ा हुया है, वह उतना ही अधिक दुःखी है । योगियों की लब्धि के विषय में कहा गया है:--
'कफ विपुण्मलामर्ष सर्वोषधिमहयः । संमिन्नश्रोतो लब्धिश्च योग तांड वडं वरं ॥'
योगी पुरुष का कफ, शुक्र मल और शरीर का स्पर्श आदि सभी औषधि का काम करते है । महान् प्रभावशाली औषधि भी जो काम नहीं कर सकती, वह काम योगी का कफ, मल, मूत्र प्रादि कर देता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सभी जीवों को योगी के स्पर्श मात्र से आनन्द और शांति प्राप्त होती हैं । ऐसी लब्धि और शक्ति योगी में योग के प्रभाव से ही उत्पन्न होती है।
कल्पक मंत्री के घर में गुरु भगवान् का प्रवेश कराया गया। एक व्यतरिगृह कल्पक बालक को बहुत कष्ट दे रहा था, किंतु जैसे ही गुरु ने घर में प्रवेश किया और उन्हें पानी बौराया गया तो उनके पात्र में पानी का कल्पक स्पर्श होते ही व्यंतर भाग गया। सनत कुमार चक्रवर्ती ने ७०० वर्ष चरित्र पालन किया, उनको ऐसी लब्धि प्राप्त हो गई कि सरस, विरस, अनियमित प्रोक्षर से जो रोग हुप्रा वह अंगुलियों के स्पर्श मात्र से मिट जाता । यहां तक कि अंगुली पर थूक का स्पर्श होने से अंगुली स्वर्ण जैसी बन गई।
योगियों की लब्धि के विषय में शास्त्र कहता हैं:
'चारणाशी विषावधिमनः पर्याय संपदः । योग कल्पद्मस्यैता विकासीकुसुमश्रियः ।।'
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योगी किसे कहते हैं ?
आकाश चरण विद्या, निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ लब्धि, अवधिज्ञान की संपदा और दूसरों के मन के पर्यायों को जानने की क्षमता, ये सभी योग रूपी वृक्ष के खिले हुए पुष्षों की शोभा है ।
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योगी की आकृति का भी प्रभाव होता है । उत्तर अमेरिका में भेरीसारासीनिया नामक वृक्ष के पत्ते इकट्ठ े होने से घड़ा जैसा आकार बन जाता है । उसका ढक्कन नियमित काल पर ही खुलता और बंद होता है । कीड़े पतंगे आदि पानी के लोभ में पत्तों से बने घड़े में जाते है और वहीं कैद हो जाते है । जब क्षुद्र जन्तु भी आकृति से प्रभावित हो जाते है, तब योग मुद्रा सहित योगी पुरुष की प्राकृति से कौन सा मनुष्य प्रभावित नहीं होगा ?
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नमस्कार योग 'नमो दुर्वार ....... .......
पंचसूत्र का प्रारम्भ णमो' पद से किया गया है। नमस्कार महामंत्र का प्रारम्भ भी 'रणमो' पद से हुआ है। धर्मरत्न प्रकारण का प्रारम्भ 'नमिउरण' पद से किया गया है। इसी प्रकार योगशास्त्र का प्रारम्भ भी 'नमो' पद से किया गया है । नमस्कार का भावार्थ आप जैसा समझते है बैसा सरल नहीं है, इसका गूढार्थ अत्यन्त कठिन है। यदि आप मुह से तो 'मो' बोलते हैं किन्तु झुकते नहीं तो समझिये अभी तक आप में अहंभाव है, विनय नहीं ।
- रामलीला का एक दृश्य था, जिसमें राम रावण का युद्ध हो रहा था। कुछ देर युद्ध के बाद राम के प्रहार से रावण का जमीन पर गिरना दिखाना था, पर रावण नहीं गिरता, निर्देशक के बार-बार इशारा करने पर भी नहीं गिरता । आखिर हार कर निर्देशक पर्दा गिरा देता है। फिर रावण का पार्ट करने वाले से नहीं गिरने का कारण पूछता है। रावण के अदाकार ने कहा "मेरे श्वसुर और मेरी सास रामलीला देखने आये हैं, उनके सामने मैं नीचे गिरू, यह कैसे हो सकता है ? व्यवहार में नम्रता या नीचे झुकने को कायरता समझी जाती है, किंतु आध्यात्मिक क्षेत्र में नम्रता को वीरता की गिनती में गिना जाता है ।
सम्पूर्ण योगशास्त्र का रहस्य उसके प्रथम श्लोक के प्रथम पद 'नमो' में समाया हुआ है। 'नमो' पद के द्वारा अहं भाव की समाप्ति होती है और समभाव की प्राप्ति होती है । अहं भाव स्वार्थ का भाव है, जबकि समभाव स्वार्थ भाव है । स्वार्थ भाव की वृद्धि के साथ ही स्वार्थ भाव की कमी होती है । तुबा भले ही छोटा हो किंतु साढ़े तीन मरण की काया वाले को भी तार देता है। इसी प्रकार 'नमो' शब्द भले ही छोटा हो परन्तु उसमें अनेक भवों के पापों से बचाने की शक्ति है। जैसे लाखों मरण रूई को जलाने के लिये एक चिंगारी काफी है, वैसे ही अनेक जन्मों के पापों को जलाने के लिये 'नमो' शब्द की आराधना काफी है । जब तक 'नमो' शब्द
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अक्रिय रहता है तब तक उसकी शक्ति प्रगट नहीं होती, किंतु उसके सक्रिय बनते ही अनेक भवों के पापों को क्षय करने में समर्थ हो जाता हैं ।
नमस्कार योग
'नमो' शब्द संस्कृत के नमस् अव्यय से बनता है और नमस् नाम नम् धातु को प्रसुच् प्रत्यय लगाने से बनता है । नम् का अर्थ है नमस्कार करना | 'नमो' के द्वारा 'अहम्' शुद्धात्मा और उसके केवल ज्ञान आदि गुणों का ध्यान होता है । गंधक, मैनसिल और सुरेखार के मेल से मदिरा बनती हैं। हाईड्रोजन और प्रॉक्सीजन के मेल से पानी बनता है । पोटेशियम से भड़का प्रकाश सूर्य किरण जैसा दिखाई देता है । सूर्य के सामने बिलोरी काँच रख दो और उसके पास सूखे घास का एक तृरण रख दो तो अग्नि पैदा हो जायेगी। इसी प्रकार 'नमो' पद की श्राराधना से उसे जीवन में घटित करने से, प्रणिमा सिद्धि प्राप्त होती हैं जिससे व्यक्ति तृरण से भी हल्का बन सकता है ।
नमन करने का अर्थ ही अपने मान को दूर करना है। मान किस व्यक्ति को होता है । मान अपूर्ण व्यक्ति को होता हैं। पुराने जमाने में जब औरतें गेहूँ दलती थी तब उसे भिगो दिया जाता था जिससे दलने की आवाज नहीं होती थी, इसी प्रकार जिसके पास ज्ञान का तेज है वह आवाज नहीं करेगा । जिसके जीवन में गंभीरता है, विचारों में प्रौढ़ता है, वह प्रदर्शन कम करेगा । मार्क टवेइन अंग्रेज ने ठीक ही कहा था कि मात्र दो अंडे देने वाली मुर्गी कितनी फड़फड़ाहट करती है, मानो किसी नक्षत्र को जन्म दे रही हो ।
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बाजार में दो व्यक्ति लड़ने लगे। एक ने कहा 'तुम मुझे क्या समझते हो ?" दूसरे ने उत्तर दिया "मैं तुमको कुछ भी नहीं समझता ।' हमारे भीतर जब अहंकार का प्रवेश होता है, तब हम दो बड़ी भूलें करते है, एक तो हम अपने आप को श्रेष्ठ मानने लग जाते है और दूसरे लोगों को तुच्छ मान बैठते हैं। यदि आप दूसरों को तुच्छ समझोगे तो वे भी आपको तुच्छ समझेगें, इस प्रकार श्राप दूसरों की नजर से उतर जानोगे । आकाश में उड़ती पतंग सारी दुनिया को छोटी मानती है पर उसे यह पता नहीं है कि सारी दुनिया की दृष्टि में पतंग ही छोटी दिखाई देती है । सोडावाटर की बोतल में लगी गोली न तो बाहर की स्वच्छ हवा को बोतल में जाने देती हैं और न अंदर की गैस को बाहर आने देती है ठीक इसी प्रकार
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जमस्कार योग
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मनुष्य के मन में रही हुई अहंकार की गोली न तो अपनी बुराई को निकालने देती है और न दूसरों की अच्छाई को ग्रहण करने देती है।
एक विदेशी ने बाजार में अपना फोटो बिकते देखा। वह स्टूडियो में गया और अपने जितने फोटो वहां थे सभी खरीद लिये । खरीद कर उन्हें वहीं जला दिया । जब स्टूडियो के मालिक ने उससे फोटो जलाने का कारण पूछा तो उसने कहा "क्या आपको मालुम है ये फोटो किसके हैं ? यह फोटो जापान के मुख्य सेनापति के है जिस पर देश को स्वतंत्रता की जिम्मेदारी है । "जब उससे पूछा कि “आप कौन हैं ? क्या आप विदेशी हैं ? आपने चित्र क्यों जलायें ?'' तब उस विदेशी ने कहा "मैं विदेशियों का जासूस हूँ। मैं ही जापान का सेनापति हूँ। लोग संत पुरुषों के चित्र के साथ मेरा चित्र लगायेंगे । तब देखने वाले कहेंगे क्रूरता और अहिंसा का क्या मेल ? मैं नहीं चाहता कि संत और सैनिक एक ही प्रासन पर बैठे।
अहं अपनी पहिचान देना चाहता है कि मैं कौन हूँ ? स्वयं अपनी पहिचान को मिटाना चाहता है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। एक साधु के पास तीन व्यक्ति साधना करने के लिये पाये । साधु ने पहले व्यक्ति से पूछा, "तुम कौन हो ?" "उसने कहा, मैं ठाकुर हूं, बीस गांवों का जागोरदार हूँ।" दूसरे व्यक्ति से पूछा, "तुम कौन हो ?" उसने कहा, "मैं करोड़पति नगर सेठ का पुत्र हूँ । “अब तीसरे से पूछा, "तुम कौन हो ? 'उसने कहा मैं मभी तक यह नहीं जान पाया हूँ कि मैं कौन हूं। यदि जान लेता तो फिर मापके पास आने की आवश्यकता ही क्या थी ? आप ही बताइये कि "मैं कौन हूं ? स्वयं ही भूल गया हूं। नाम गौत्र में कैदी बना हूं।" साधु ने मन में सोचा कि यह तीसरा व्यक्ति ही सच्चा साधक है । एक को धन का प्रहं है तो दूसरे को जमीन का। इस तीसरे व्यक्ति को किसी प्रकार का महं नहीं है। यह वास्तव में अपने अस्तित्व को ढूढना चाहता है । यही सच्चा साधु है । साधु ने उसे अपने पास रख लिया।
. एक व्यक्ति बहुत वर्षों से जापान में रहता था। किसी शादी के प्रसंग पर वह भारत पा रहा था। जब वह जहाज में यात्रा कर रहा था तब कुछ अत्रियों ने उससे पूछा कि, "प्राप कौन हैं ?" उसने कहा, ''मैं भारतीय हूं।" जब बम्बई पहुंचा तो सुना वहाँ हिंदु मुसलमानों का झगड़ा चल रहा
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नमस्कार योग
है । अतः जब किसी ने पूछा कि "तुम कौन हो?" तो उसने कहा कि “मैं हिन्दु हूं।' कस्टम वालों ने जब पूछा तो कहा, "मैं व्यापारी हूं।'' जब वह अपने मोहल्ले में पाया और किसी ने पूछा कि "प्राप कौन हैं ?" तो उसने कहा, "मैं बनिया हूं।" अरे भाई बनिये तो हो पर कैसे बनिये हो ? तो बोला "मैं जैन हूं।" पूछा, "आप कौन से जैन हैं ? श्वेतांबर, दिगंबर या स्थानकवासी ? क्या आप मन्दिर जाते हैं, पूजा करते हैं ?" उसने कहा, "मैं मन्दिरमार्गी जैन हूं।" जब वह उपाश्रय में गया तो किसी ने पूछ लिया, "आप किस गच्छ को मानते हैं ? तपागच्छ, खरतरगच्छ, अंचलगच्छ, विमलगच्छ, लोंकागच्छ या पायचंद गच्छ ?" वह बेचारा घबरा गया, झिझक कर जबाब दिया, "मैं तपागच्छी मंदिरमार्गी जैन हिन्दु बनिया भारतीय हूं । "देखा आपने ! कितनी दीवारें हैं, कितने भेद प्रभेद हैं, यहाँ भारतीय कहने से काम नहीं चलता, जबकि विदेशों में अपने देश की नागरिकता बताने से काम चल जाता है ।
प्रात्म प्रकाश सूत से वस्त्र की और धार से शस्त्र की परीक्षा होती है, वैसे ही कर्तव्य से मनुष्य की परीक्षा होती है, नाम से नहीं होती। पदार्थ का ज्ञान सामान्य और विशेष, दो प्रकार से होता है । अग्नि उष्णता गुरण वाला एक द्रव्य है यह सामान्य ज्ञान हुआ । अग्नि की उष्णता से भोजन पकाया जाता है, अंधकार दूर किया जाता है, सर्दी से रक्षा की जाती है, यह विशेष ज्ञान या विज्ञान हुा । विज्ञान से ही उसका सही उपयोग होता है । यदि भोजन बनाने की विधि की जानकारी न हो तो अग्नि से भोजन पकने की बजाय जल जायेगा । अंधकार दर होने के स्थान पर प्राग लगने का खतरा उठाना पड़ेगा और सर्दी से रक्षा की बजाय शरीर या वस्त्र जला बैठेंगे। नवकार (नमस्कार) भी एक प्रकार की विद्युत या भाप जैसी शक्ति वाला मंत्र है । नवकार मंत्र के ध्यान से प्रात्मप्रकाश होता है । सामान्यतः नवकार मंत्र के ध्यान से या जाप से श्रद्धा और भक्ति पैदा होगी, परन्तु विशेष जाप से मोक्ष प्राप्ति हो सकती है। जैसे ताजमहल सांसारिक प्रेम का प्रतीक और पाबू मंदिर धर्म का प्रतीक है, वैसे ही नवकार भी प्रानन्द का प्रतीक है। घन-पानन्द (अत्यधिक प्राध्यात्मिक आनन्द) भी प्रेम का प्रतीक है। प्रानन्द तीन प्रकार का होता है, तरल, गैस और ठोस । जो पानी की तरह से बह कर शीघ्र समाप्त हो जाने वाला हो वह तरल अानन्द, जो
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योगशास्त्र
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[ २५
थोड़ा-सा कष्ट आते ही गैस की भाँति हवा में उड़ जाय वह गेस आनन्द, किंतु जो हमेशा बना रहे ऐसा आध्यात्मिक प्रानन्द ठोस आनन्द है ।
नवकार को जिनशासन का डाइजेस्ट क्यों कहा है ? उसे १४ पूर्व का समुद्धार क्यों कहा है ? इसलिये कि जिनके हृदय में नवकार बसा है, संसार उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता क्योंकि नवकार का ध्यान करने वाला तो स्वयं आत्म स्वरूप हो जाता है | नवकार का स्मरण करने वाली. चील भी सुदर्शन राजपुत्री बनी। जैसे पानी का आनन्द मछली ही जान सकती है, वैसे ही नवकार का आनन्द आपका हृदय ही जान सकता है ।
धर्मीजन सात क्षेत्रों में अपनी लक्ष्मी का सद्व्यय तो करें ही ; साथ-साथ कर्मवश जो अन्धे, लूले, लंगड़े, श्रकाल, अतिवृष्टि, भूकम्प एवं अन्य दुःखों से पीड़ित हों, उनकी सहायता अवश्य करे । उनके प्रति अवश्य अनुकम्पा रखें। दया-अनुकम्पा,
हिंसा की पोषिका है। दीन-दुःखी भी पुण्यबन्ध में सहायक हैं । अतः अनुकम्पादान में कुपात्र - सुपात्र को ध्यान में न रखें । दयाभाव से उनकी सहायता
करें ।
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रागादि
रागादिध्वांत विध्वंसे कृते सामायिका शुना । स्वस्मिन स्वरुपं पश्यंति योगिनः परमात्मनः ।।
उपरोक्त श्लोक में यह बताया गया हैं कि आप परमात्मा के स्वरूप का दर्शन कैसे कर सकते हैं । समभाव रूपो सूर्य के द्वारा रागादि अंधकार का नाश होने पर योगी पुरुष स्वयं के बल पर परमात्मा के स्वरूप को देखते हैं।
भारतीय संस्कृति का लक्ष्य त्याग है, भोग नहीं। अपने परिवार में यदि आप पिता हैं तो अपने बालकों के लिये अपने सुख का त्याग करें। यदि आप पुत्र हैं तो आपने जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसे अपने माता पिता के चरणों में अर्पण कर दाजिये । एक दूसरे के लिये यदि हम अपने सुख का त्याग नहीं करेंगे तो हमारा परिवार सुखी परिवार नहीं हो सकेगा । जब सांसारिक व्यवहार चलाने के लिये भी आपको अपने सुख का त्याग करना पड़ता है, तब प्राध्यात्मिक भूमिका में पहुँचने के लिये तो प्रापको मूल से ही राग का त्याग करना पड़ेगा।
पाप पूछेगे कि राग अात्म भाव में है या पदार्थ में ? आप बाजार में जा रहे हैं, रास्ते में ग्राम पर आपकी दृष्टि पड़ी। आपने अपने मित्र से कहा, ''यार ! आम बहुत रसोले हैं, खरीदने को दिल ललचा रहा है।" इससे स्पष्ट होता है कि आप रागवृत्ति के वशीभूत है । वस्तु में राग पैदा करने की शक्ति है, ऐसा समझना आपकी मूल है। यदि वस्तु में राग पैदा करने की शक्ति हो तो वीतरागी के मन में भी राग पैदा होना चाहिये, परन्तु वीतरागी के मन में कभी भी राग उत्पन्न नहीं होता। अतः राग वस्तु में न होकर स्वयं व्यक्ति में है।
भ्रमर में ऐसी शक्ति है कि कठोर से कठोर लकड़ी में छेद करके अपना घर बना लेता है। किंतु वही भ्रमर जब कमल की पंखुडियों में बंद हो जाता है तब वह बाहर नहीं निकल सकता । क्या कमल की पंखुड़ियां लकड़ी से भी अधिक सख्त हैं कि भ्रमर उसको छेद कर बाहर नहीं निकल
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रागादि
[ २७
सकता ? कहना होगा कि भ्रमर को कमल के प्रति राग है, इसी लिये वह उसे नहीं छेदता ।
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ज्ञानियों ने तो स्पष्ट कहा है कि मनुष्यों को धन और रूपवती स्त्रियों पर जितना राग होता है, यदि उतना राग जिनेश्वर भगवान में हो जाय तो मोक्ष तो उसके बाँये हाथ का खेल है ।
राग भी आपको डसता है और वेदनीय कर्म भी डसता हैं । आप सभी वेदनीय कर्म के इसने से बचना चाहते हैं इसलिये तप जप आदि करते हैं । किंतु राग को डसने से बचाने के लिये प्राप कुछ भी उपाय नहीं करते । क्यों ? इसलिये कि राग का डंक आपको तीक्ष्ण नहीं लगता । वेदनीय कर्म का डसन आपको बिच्छु के डंक के समान तीक्ष्ण लगेगा परन्तु वह आपके प्राणों का हररण नहीं करता और आत्मा के सद्गुणों को नष्ट नहीं करता परन्तु राग का डंक तो सर्प का डंक है, यह मनुष्य को तीक्ष्ण नहीं लगता पर है यह मीठा जहर, यह मानव को बेभान कर देता है । बिच्छु की अपेक्षा सर्प का डंक अधिक भयंकर है । इसी प्रकार वेदनीय की अपेक्षा राग भयंकर है। आपको वेदनीय कर्म से बचने के लिये राग का सर्वथा त्याग करना ही पड़ेगा । राग आपको रुलाता भी है और हंसाता भी है - जब तक राग दशा है, तब तक आपको अशांति कायम रहेगी ।
एक माता अपने बालक को लेकर जहाज से आने वाले अपने पति को लेने बम्बई गई। वहाँ जाकर एक धर्मशाला में एक कमरा लेकर ठहर गई। उसके पति का जहाज दूसरे दिन आने वाला था पर संयोग से उसी दिन शाम को प्रा गया और वह भी उसी धर्मशाला में एक कमरा लेकर ठहर गया । आधी रात को बालक को बहुत तेज बुखार श्राया और पेट में दर्द भी होने लगा । बालक जोर-जोर से रोने चिल्लाने लगा । रोने की श्रावाज सुनकर साहब गर्म हो गये, आधीरात को धर्मशाला के व्यवस्थापक को बोले कि "इस बालक को यहाँ से निकाल दीजिये, मेरी नींद हराम हो रही है । " व्यवस्थापक ने माँ बेटे को निकाल दिया । असहाय माँ तेज बुखार में बेटे को लेकर जब बाहर निकलने लगी तो साहब ने अपनी स्त्री को पहिचान लिया । फिर तो बड़े ही प्रेम से अपने पुत्र को पुचकारने और चुप कराने लगा । उसी समय डाक्टर को बुलवा कर उसका उपचार करवाया। देखा आपने राग का प्रभाव !!
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२८ ]
रागादि
एक संत बाजार से गुजर रहे थे। उन्होंने देखा एक दुकान पर किराणा स्टोर लिखा था । संत ने दूकानदार से इशारे से पूछा कि "इस टीन में क्या है ?" दूकानदार ने कहा, "शक्कर" फिर इसी प्रकार अन्य २-३ टीन के बारे में भी पूछा। दूकानदार ने जिस टीन में जो वस्तु थी उसका नाम बताया "घी, गुड़, तेल, चावल आदि । “अन्त में एक ऐसे टीन की तरफ इशारा किया जिसमें कुछ नहीं था। दुकानदार ने कहा, "इसमें तो रामनाम है ।" संत ने उस टीन को खोलकर देखा और प्रसन्न होकर बोला, "मुझे अाज जीवन का महान सत्य मिल गया। खाली पात्र में ही राम का निवास होता है। राम द्वेष रहित हृदय में ही राम रहते हैं । कहा भी है
बज्रबंध जस बले, टूटे स्नेह तंतुथी।' जो बज्र के समान कठोर बंधन है और श्रृंखला की तरह बंधे हुए बंधन को तोड़ना बहुत कठिन है। आप जिस पर राग करते हैं और जो आप पर राग करता है, यह दोनों राग अनित्य है। अनित्य में नित्य को पाने की बुद्धि ही जीव को दुःखी करती है । हे जीव ! तू अपने स्वरूप से अन्य सब से भिन्न है। स्वजनों से, परिजनों से वैभव से और स्वयं अपने शरीर से भी भिन्न है, तब फिर क्यों इन सबके लिये दुःखी होता है ? अतः हे जीव ! तू तेरे स्वरूप का ही रागो बन । प्रात्म रूप का, आत्मा की स्वभाव दशा का रागी बन । राग द्वेष के बंधनों को तोड़ने की प्रावश्यकता है कहा भी है -
'देहि बघणेहि, राग बंधजं दोस बंधणं ।' बंधन कितने प्रकार के हैं ? वैसे तो १५ प्रकार के बंधन हैं पर उन में राग द्वेष मुख्य हैं।
__ पहले से चौथे गुणस्थान स्थित जीव के पाँच बंधन होते हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ।
६ ठे और ७ वें गुणस्थान स्थित जीव को प्रमाद, कषाय और योग के बंधन होते हैं।
८ वें से १२ वें गुणस्थान स्थित जीव को कषाय और योग के दो बंधन होते हैं।
१३ वें गुणस्थान स्थित जीव को मात्र योग का एक बंधन होता है । १४ वें गुणस्थान स्थित जीव बंधन रहित होकर मुक्त होता है ।
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(अर्हत) अरिहंत पद
नमो दुर्वार रागादि वैरिवार निवारिणे । अईते योगिनाथाय महावीराय तायिने ।।
शास्त्रकार ने इस श्लोक में भगवान् महावीर प्रभु के नाम के साथ पांच विशेषणों का युक्ति तथा बुद्धि से परिपूर्ण संयोजन किया है । उसमें से एक विशेषण है 'अईते' । अईन शब्द मुख्यतः योग्यता वाचक है । जैन शासन में गुरण संपन्न योग्य व्यक्ति को ही नमस्कार किया है। नवकार मत्र या नमस्कार मंत्र के पाँचों पदों में किसी भी व्यक्ति विशेष को नमस्. कार नहीं किया गया है, बल्कि अमुक-अमु गुरणों से युक्त व्यक्ति को नमस्कार किया गया है । कहा भी है कि
'गुणा: पूजास्थान गुरिणषु न च लिंगंन चवयः ।'
गुण ही पूज्य हैं, वेष या अवस्था पूज्य नहीं । जैन धर्म के अनुसार कोई भी जैन या जैनेतर साधु बिना किसी नाम के भेद के गुरगों के प्राधार पर पूज्य हो सकता है।
अ+र+ह मिलकर अई पद बनता है। इस संधि विच्छेद के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जैसी शक्तियों का भी अंई पद में समावेश हो जाता है। ब्रह्मा का ब्रह्मत्व (रचना प्रवृत्ति), विष्णु की व्यापकता और महेश की मंगलमयता अरिहंत तीर्थ कर ईश्वर में पूर्णत: घटित होती है। भगवान् महावीर अहत् हैं क्योंकि वे मंगलमय हैं, वे अरहंत हैं क्योंकि उन्होंने काम को समाप्त कर दिया है और वे अरिहंत भी हैं क्योंकि उन्होंने काम को समाप्त कर दिया है और वे अरिहंत भी हैं क्योंकि उन्होंने समस्त अंतरंग शत्रों का नाश कर दिया है। वे अरुहन्त भी हैं क्योंकि कर्मबीज को दहन कर देने के कारण वे पुन: उत्पन्न नहीं होते । इसीलिये 'नमो अरिहंताणं' के स्थान पर कुछ ग्रन्थों में 'नमो प्ररहंतारा' और 'नमो अरुहंतारणं का उल्लेख भी मिलता है। अर्हत् याने योग्य होना ही पूज्य होना है। जो योग्य होता है वह ही पूज्य होता है। इसीलिये भगवान महावीर पूजा प्रतिशय से युक्त हैं। चराचर प्राणियों सहित समस्त प्रकृति उनको वन्दन
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३० ]
(महत) अरिहंत पद
करती है। मार्ग के वृक्ष भी झुक कर उनको नमन करते हैं । तीर्थ कर के दर्शन मात्र से ही काँटों का तीक्ष्ण भाग नीचे झुक जाता है । सूर्य, चंद्र, तारे तथा समस्त ग्रह प्रभु को नमस्कार करते हैं । नर, नरपति और इन्द्र शासक भी प्रभु को अपना स्वामी मानते हैं। भगवान महावीर की योग्यता बाह्म नहीं, प्रांतरिक है, अतः अलौकिक है । अरिहंत किसे कहते हैं ? इस सबंध में शास्त्र में निम्न गाथा है--
'उत्पन्न सन्नारण महोमयाणं,
सप्पाडि हेरासरण संठियारणं । सद्देशणाणंदिय सज्जणारणं
नमोनमो होउ सया जिणाण ।' जिनेश्वर भगवान को हमारा बारंबार नमस्कार हो । नमो नमो दो बार क्यों कहा गया ? एक ही शब्द का बार बार उच्चारण पुरुउक्ति दोष कहलाता है। फिर भी उन्हें पुन: पुन नमस्कार किया गया है, यह तीर्थ करों की विशेषता है । आज कहेंगे कि जिनेश्वर भगवान को ही नमस्कार क्यों किया गया ? दूसरों को क्यों नहीं किया गया ? तो उत्तर है
'उत्पन्न सन्नाण महोमयारणं' क्योकि जिनेश्वर भगवान सम्यग् ज्ञान रूपी तेज को उत्पन्न करने वाले केवल ज्ञान युक्त हैं। केवल ज्ञान की प्राप्ति के बाद प्रभु क्या करते हैं ?
_ 'सप्पाडि हेरासण संठियांण' पाठ महा प्रतिहार्य युक्त सिंहासन पर बिराजित होते हैं, और
_ 'सद्द शरणाणं दिय सज्जणाण' वाणी के ३५ गुण युक्त उपदेश से सज्जन पुरुषों को प्रानन्द देते है । ऐसे जिनेश्वर भगवान को मेरा बारबार नमस्कार ।
अट्टविहपिय कम्मं अरिमूय होइ सयल जीवाणं ।
तं कम्ममरिहंता अरिहंता तेरण वुज्वन्ति ।। सभी जीवों के लिये जो पाठ कर्म शत्रु के समान है उन कर्म शत्रुनों को मारने से प्रात्म को अरि-हंत कहा जाता है ।
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(त) अरिहंत पद
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परमपंच परमेष्ठियां परमेश्वर भगवान्
चार निक्षेपे ध्याइए नमोनमो श्री जिनभाए ||
[
पंच परमेष्ठि भगवान में श्री अरिहंत भगवान सबसे प्रथम हैं, उन्हें हमारा नमस्कार हो । परमेष्ठि किसे कहा जाता है ? जिस वस्तु को प्राप्त करने के बाद उसे दुबारा प्राप्त करने की इच्छा हो उसे इष्ठ कहते हैं । जिस वस्तु की प्राप्ति के बाद तृप्ति हो जाय, उसे फिर से प्राप्त करने की दच्छा जागृत न हो उसे परम इष्ट कहते हैं ।
३१
अरिहंत कितने प्रकार के होते हैं ? तीन प्रकार के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और ग्रन्तराय, इन घातक कर्म शत्रुत्रों का जिन्होंने नाश कर दिया है वे अहित कहे जाते हैं ।
मोक्ष कर्मक्षयादेव स चात्म ज्ञान तो भवेत् ।
ध्यानं साध्यं मतं तच्च तद् ध्यानं हितात्मन: ।।
सामान्य केवली और अरिहंत में क्या अंतर है ?
चार काति कर्मों का सर्वथा नाश कर आठ महाप्रतिहार्य एवं ३४ प्रतिशय से जो युक्त हैं और जिन्हें तीर्थंकर नामकर्म का विपाकोदय हो उन्हें अरिहंत तीर्थ कर कहते हैं। जिनमें उपरोक्त बातें न हो उन्हें सामान्य केवली कहा जाता हैं । उनका समावेश साधु पद में होता है ।
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मोक्ष कार्य के क्षय से होता है । कर्म का क्षय श्रात्म ज्ञान से होता है । ध्यान से आत्मज्ञान साध्य है । अतः जो प्रात्मा अपना हित चाहती है, उसे ध्यान करना चाहिये ।
जन्म और कर्म की परंपरा को तोड़ने के लिये पहले क्या करना चाहिये ? जन्म का क्षय या कर्म का क्षय ? दोनों श्रृंखला की कड़ियों के समान हैं । आपका जन्म तो हो ही चुका है जो श्रापको प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है, अतः श्रापको प्रथम कर्म क्षय करना ही उचित है । क्यों कि दान, शील, तप, भावना एवं गुरू, धर्म की पूजा उपासना प्रादि सभी प्रकार का धर्माचरण ध्येय महल में पहुँचने के द्वार हैं । ध्येय तो कर्मक्षय का ही है । इसलिये ध्येय स्वरूप अरिहत का ध्यान प्रावश्यक है ।
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(महत) अरिहंत पद
क्या हमारी प्रात्मा भी परमात्मा बन सकती है ? यह प्रापका महत्वपूर्ण प्रश्न है। जिस प्रकार से रसायन योग से लोहा भी सोना बन सकता है, उसी प्रकार हमारी आत्मा भी परमात्मा के ध्यान से स्वयं परमात्मा बन सकती है। ध्यान में प्रात्म विचार की प्रधानता होती है।
अंग्रेजी में प्रश्न होते हैं what, why, how, who, when और where यही प्रश्न हमें प्रात्मा के विषय में करने हैं ? प्रात्मा क्या है ? प्रात्मा संसार में क्यों परिभ्रमण करती है ? वह किस प्रकार जन्म धारण करती है? यह प्रात्मा कौन है? जड़ है या चेतना है ? अात्मा को पाप या पुण्य कब से प्राप्त हुए ? आत्मा का मोक्ष कहाँ होगा ?
उपरोक्त पद्धति से आत्म विचार किया जाता है। क्या आत्मविचार में तर्क की आवश्यकता है ? शास्त्र यह नहीं कहते कि तर्क मत करो तर्क तो अवश्य करना चाहिये, तर्क ही तो विद्या के प्राभूषण हैं। तर्क तो प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने भी किया था। उन्होंने स्वयं शंका प्रस्तुत को और तर्क से स्वयं ही उसका समाधान भी किया। तर्क से पदार्थ की सिद्धि होती हैं. किंतु यदि तर्क असीमित हो जाय तो वह वितर्क हो जाता है।
एक ट्रेन ड्राइवर ने ट्रेन चलाते हुए मार्ग में एक भयंकर दुर्घटना देखी, जिसे देखकर वह काँप उठा । वह एक ज्योतिषी के पास पहुँचा और अपने बारे में पूछने लगा कि उसे ट्रेन चलाना चाहिये या नहीं ? ज्योतिष ने कहा शनि का प्रबल योग है, संभाल कर ट्रेन चलाना, दुर्घटना हो सकती है।
इसके बाद वह एक दार्शनिक के पास गया और उससे पूछा। दार्शनिक ने कहा देखिये ड्राईवर साहेब ! ट्रेन चलाने में दो संभावनाएँ हो सकती हैं। तुम गाडी तेज चलाओ या धीरे ? धीरे चलायो तो दुर्घटना की संभावना नहीं, तेज चलाओगे तो दो संभावनाए हैं. दुर्घटना हो भी और न भी हो। दुर्घटना न हो तो अच्छा ही है, किंतु यदि दुर्घटना हो जाय तो दो संभावनाएं हैं, या तो तुम्हारी मृत्यु हो जायगी या अंग भंग हो जायगा । मृत्यु हो जाय तब तो सब समाप्त ही है, पर यदि अंगभंग हो जाय तो सर्जरी से अंग जोड़े जायेंगे या न भी जोड़े जाय । अंग जुड़ भी सकते हैं और न भी जुड़ें । सर्जरी के बाद तुम ट्रेन चला सकोगे
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(अ) अरिहंत पद
या नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता। ट्रेन चलायोगे तो फिर तेज चलाओगे या धीरे ? तेज चलानोगे तो फिर दुर्घटना की संभावना है । ऐसे अनाप-शनाप तर्कों से कोई भी समस्या सुलझती नहीं बल्कि अधिक जटिल हो जाती है । ऐसे तर्कों से ड्राइवर तो बेचारा घबरा ही गया । उसके कुछ भी समझ में नहीं श्राया कि वह क्या करें ? ऐसे कुतर्कों का उत्तर तो फिर कुतर्कों से ही दिया जा सकता है । तभी कुतर्की शांत होता है ।
[
३३
एक गर्म दिमाग का स्कूल इन्स्पेक्टर था, जहाँ भी स्कूल में जाँच करने जाता कुछ उटपटांग प्रश्न पूछ कर विद्यार्थियों एवं अध्यापकों को परेशान कर देता था । एक स्कूल में जाकर विद्यार्थियों से बोला, "देखो बच्चों मैं एक प्रश्न पूछता हूं, उत्तर ठीक होने पर इनाम दिया जायेगा और ठीक नहीं होने पर शिकायत पुस्तक में शिकायत दर्ज की जायेगी कि इस स्कूल में पढ़ाई ठीक नहीं होती । "विद्यार्थी शिक्षक और प्रधानाध्यापक सभी घबराने लगे । इन्सपेक्टर बोला, एक हवाई जहाज बम्बई से दिल्ली के लिये उड़ा बम्बई से दिल्ली १४०० कि.मी. है । हवाई जहाज १००० कि.मी. प्रति घंटा की रफ्तार से उड़ रहा था । बताओ मेरी उम्र क्या होगी ?" प्रश्न सुनकर सभी भौंचक्के रह गये, सभी मौन थे। किंतु एक विद्यार्थी जानता था कि यह प्रश्न मात्र ठगने के लिये है, तब हम भी ऐसा ही उत्तर क्यों न दें । शठे शाठयं के समाचार के अनुसार जैसे को तैसा जबाब देना चाहिये । बोला, "मैं उत्तर दे सकता हूं ।" इंसपेक्टर के हाँ भरने पर उसने कहा, "मेरा बड़ा भाई आधा पागल है, वह बीस वर्ष का है, इसका सीधा सादा अर्थ यह हुआ कि आपकी उम्र (क्योंकि आप पूरे पागल हैं ) ।" इंसपेक्टर खुश हो गया, तुझे धन्यवाद ! मेरी उम्र वास्तव में ४० वर्ष की है ।"
४० वर्ष की है बोला" बच्चा !
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आत्म विचार तो श्रद्धा से होना चाहिये । श्रद्धा की दृढ़ता के लिये तर्क भी श्रावश्यक है। किंतु वह कुतर्क नहीं होना चाहिये । तत्त्वों के अर्थ की श्रद्धा ही तो सम्यक् दर्शन है ।
ध्यान से लाभ क्या हैं ? जैसे जल से मैल दूर होता है, अग्नि से कल दूर होता है, सूर्य की धूप से कीचड़ सूख जाता है, उसी प्रकार ध्यान से कर्म जल जाते हैं । ध्यान से चित्त प्रसन्न होता है । चित्त की प्रसन्नता दो कार्य करती है, वह श्रार्त ध्यान रौद्रध्यान को रोकती है तथा श्रात्मा को
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:३४
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(महत) अरिहंत पद
धर्मध्यान शुक्लध्यान पर प्रारूढ़ कर देती है । युद्ध के मैदान में सैनिक प्रागे
और पीछे दोनों तरफ युद्ध करता है, शत्रु को हरा कर नया प्रदेश जीतता है और अपने स्वामी को विजयी बनाता है। इसी प्रकार ध्यान द्वारा कर्म शत्रुओं को जीत कर प्रात्मा को विजयी बनाता है।
सोना जब पिघल जाता है तभी उसका जेवर घड़ा जाता है । इसी प्रकार चित्त की प्रसन्नता से स्थिरता का धाट घड़ा जाता है । स्थिरता से एकाग्रता आती हैं। एकाग्रता से सहज भाव में तन्मयता ग्राती है। तन्मयता से लय की प्राप्ति होती है और लय से लोकोत्तर परम तत्त्व की सच्ची पहिचान होती है । 'प्रातम परमातम पद पावे, जो परमातम से लय को लगावे ।'
___'अपा सो परमप्पा ' यात्मा ही तो परमात्मा है, मात्र कर्म मैल का अंतर है। कर्म मैल धुल जाये तो प्रात्मा को परमात्मा होने में क्या देरी लगती है ? आज नादयोग की बात बता रहा हूं।
भ्रमरी के शरीर में जब गर्मी होने लगती है, तब वह गीली मिट्टी से अपना घर बनाती है। एक कोड़ा लाकर उस घर में डाल कर भू-भू गुजन करती है । भ्रमरी के गुजन से पेट से घिसट कर चलने वाला कीड़ा १७ दिन में आकाश में उड़ जाता है । आप आश्चर्य चकित होंगे कि एकेन्द्रिय जीव चउरिन्द्रिय कैसे बन जाता है ? सत्य तो यह है कि भ्रमरी जब अंडे देतो है तब उसकी सुरक्षा या खुराक के लिये यह कीड़ा लाया जाता है। १७ दिन सेवन के बोद अंडा फूट जाता है और भ्रमरी उड़ जाती है । कीड़ा भ्रमरी के बच्चे की खुराक बन जाता है।
जैसे दही को मथने से मक्खन की प्राप्ति होती है, वैसे ही प्रभु के स्मरण से, ध्यान के मंथन से ईश्वर की ज्योति प्राप्त होती है ।
नादानुसंधान-पक्षी का पंख कट जाने पर जैसे वह पृथ्वी पर पड़ा रहता, इसी प्रकार अनाहत नाद से जुड़ा हुआ मन चंचलता का त्याग कर स्थिर होता है । नाद की चार अवस्था मानी गई है-(१) प्रारंभावस्था (२) घटावस्था, (३) परिचयावस्था और (४) निष्पत्यावस्था ।
नाद का अभ्यास करते समय हृदय में रही हुई ब्रह्म ग्रंथी का भेद
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(ग्रहंत) अरिहंत पद
हो जाय फिर जो नाद सुनाई दे, उसे प्रारंभावस्था कहते है । उसके बाद कंठ स्थित विष्णु ग्रथी का भेद होने से जो नाद सुनाई दे उसे घटावस्थानाद कहा जाता है। इसके पश्चात् भृकुटी स्थित रुद्र ग्रंथी का भेद होने पर जो नाद सुनाई दे, उसे परिचयावस्था कहते हैं । अन्त में जब ब्रह्म रघ्र में नाद की स्थिरता हो, तब वह निष्पत्यावस्था है।
भृकुटी में जो चक्र है, वहाँ से श्वास उठकर अगम चक्र के पास होकर वंकनाल के पास आकर रहता है। नाभि में श्वास है, इसकी परीक्षा कैसे की जाय ? जैसे घड़ी में चक्र के चलने से खटखट की आवाज पाती है, उसी प्रकार अपनी नाभि में भी अावाज आती है । किन्तु गुरू की मदद के बिना इस आवाज को सुनना अत्यन्त कठिन कार्य है। नाभि में खटखट होने से हृदय चक्र और कंठचक्र में होकर गले में जो छेद है उसमें से निकल कर वायु नासिका में चलता है । जो श्वास वायु बाँये छिद्र से प्रवेश करे तो दाँये छिद्र से बाहर निकलती है और बाँये छिद्र से निकले तो दाँये छिद्र से प्रवेश करती है । श्वास वायु इसी प्रकार प्राती जाती रहती है।।
हे ज्ञानानंदमय प्रात्मन् ! अरिहंत पद में मन को लगादे ।
देवपाल श्रेणिक पद साधी अरिहंत पद निजपद । देवपाल राजा और श्रेणिक राजा ने इस पद की साधना करके तीर्थकर पद उपाजित किया।
अरिहंत की भक्ति चार प्रकार से की जाती है-(१) नाम अरिहंत, (२) स्थापना अरिहंत (३) द्रव्य अरिहत और (४) भावअरिहंत ।
छद्मस्थ आत्मा के लिये चार प्रकार के जिनेश्वर पूज्य हैं, फिर भी पूजा में जैसे भाव पूजा श्रेष्ठ है, धर्म में जैसे भावधर्म श्रेष्ठ है, वैसे ही भाव तीर्थंकर की उपासना सर्वश्रेष्ठ है ।
नाम अरिहंतः अरिहंत, अरिहंत, नमो अरिहंतारणं, नमो अरिहंताणं का जाप बारंबार करना चाहिये। इससे पापमय विचारों में कमी होती है और मन पवित्र बनता है । हृदय में से विषय कषाय चले जाते हैं।
बालि राजा का छोटा भाई सुग्रीव पूर्व भव में एक मरणासन्न बैल था जो मार्ग में एक तरफ पड़ा था। एक श्रावक उधर से घोड़े पर निकला, घोड़े से उतर कर नमो अरिहंतारण का मन्त्र बैल के कान में सुनाया। बैल मर गया । २० वर्ष बाद नवकार सुनाने वाला वह श्रावक फिर उसी मार्ग से निकला । वहाँ मार्ग में एक नया जिन मंदिर देखकर दर्शन करने
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३६ ]
(त) रिहंत पद
अन्दर गया। मंदिर से वापस बाहर निकलते समय सामने की दीवार पर एक चित्र देखा जिसमें एक व्यक्ति एक मरणासन्न बैल को नवकार सुना रहा था । वह व्यक्ति इस चित्र को देखकर अचानक बोल पड़ा, "यह तो मेरा ही चित्र है । " मंदिर का रक्षक उस श्रावक को राजा के पास ले गया, श्रावक से सब बात सुनकर राजा उसके चरणों में गिर पड़ा, बोला "मैं स्वयं ही मरणासन्न बैल था, प्रापने नमो अरिहंताणं की रट सुनाकर मुझे मनुष्य बनाया । जब मैं एक समय उस स्थान से निकल रहा था तो मुझे जाति स्मरण ज्ञान हुआ । इसीलिये मैंने अपने पूर्व भव की याद में यह नया मंदिर और यह चित्र बनाया है । मेरा यह राज्य प्रापके चरणों में अर्पित है। राजा दीक्षा लेकर देवलोक में गया और वहाँ से चल कर सुग्रीव बना | बैल के भव में धर्म नहीं था, पाप करता था परन्तु अरिहंत परमात्मा के नाम निक्षेप से मनुष्य भव में सुग्रीव बना ।
जिनके फाँसी का तख्ता सिंहासन बन गया, वह सुदर्शन सेठ था । पूर्व भव में उसी घर में पशु चराने वाला नौकर था । पशु चराते चराते एक बार जंगल से विहार करते किसी मुनि से नमो अरिहंताणं पद सीखा और बारंबार उसका स्मरण करने लगा । एक समय वह आँखें बंदकर ध्यानमग्न हो नमो अरिहंतारण पद का जाप करने लगा। इतने में ही उसके सब पशु नदी पार कर सामने किनारे पर चले गये । प्राँखें खोलने पर उसने देखा कि नदी में पूलया गया है और उसके सब पशु सामने के किनारे पर हैं । वह सामने के किनारे पर जाने के लिये नदी में कूदा । पानी में एक बड़ा लकड़ी का तख्ता बहकर आ रहा था, जिसके बीच में एक कोल निकली हुई थी । वह तख्ते को पकड़ने गया तो कील उसके पेट में चुभ गई, फिर भी उसने नमो अरिहंताणं की धुन चालू रखो, जिससे वहीं मृत्यु को प्राप्त हो श्रतदास का पुत्र सुदर्शन सेठ बना । ब्रह्मचर्य और श्रहिंसा की परीक्षा में पास हुआ, जिससे उसको दिया जाने वाला शूली का दंड सिंहासन में परिवर्तित हो गया ।
स्थापना प्ररिहंतः जिनेश्वर भगवान के शास्वत प्रशास्वत जिनबिंब, प्रतिमाजी, चित्र, चरणपादु को स्थापना जिन कहा जाता है। इससे जीवन का परिवर्तन हो जाता है । यह प्रात्मा को बहिरात्म अवस्था से हटाकर परमात्म अवस्था तक पहुंचा देता है ।
देवपाल नामक पशु चराने वाला जंगल में रेत के टीले पर ऋषभ
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(महत) अरिहंत पद
देव भगवान की प्रतिमा को देखकर हर्ष विभोर होकर नाचने लगा। स्नान से पवित्र हो मिट्टी के मंदिर में भगवान को विराजित किया, पुष्पहार बनाकर चढ़ाया, अाँखों में आँसू लाकर बोलने लगा, "भगवान् ! आप मुझे मिले, अब बिना आपके दर्शन पूजन के अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा। एक बार सात दिन तक भयंकर वर्षा हुई, जिससे दर्शन पूजन न कर सका। उसने लगातार सात दिन तक उपवास किये। चक्रेश्वरी माता प्रसन्न हुई। बोली, माँग, क्या चाहिये ?" देवपाल बोला, "कुछ नहीं माता ! प्रभु भक्ति देवो।"
चक्रेश्वरी ने वर दिया, तू अाज से सातवें दिन यहाँ का राजा होगा । "उस नगर के राजा ने एक ज्ञानी से पूछा मेरा प्रायुष्य कितना है ?" ज्ञानी ने कहा, तीन दिन का।" तीन दिन बाद राजा मृत्यु को प्राप्त हुआ। पँच दिव्य प्रकट हुए । देवपाल पर कलश चढ़ाये गये। उसे राजदरबार में लाये । मंत्रियों ने उसकी आज्ञा मानने से इन्कार कर दिया देवी ने कहा, "मिट्टी के हाथी पर बैठ कर नगर में घूमो।" जब मंत्रियों ने देवपाल को मिट्टी के हाथी पर घूमते देखा तो समझ गये कि यह तो कोई सिद्ध पुरुष है। सब उसकी शरण में प्रा गये। जिसकी गायें चरात था, उस सेठ को देवपाल ने महाग्रामात्य बनाया और उसे राज्य संभला दिया तथा स्वयं परमात्मा की भक्ति करने लगा।
द्रव्य अरिहंतः तीर्थ कर पद भोगकर जो मोथा में गये हैं और तीर्थ कर नामकर्म के बंध से जो तीर्थ कर होने वाले हैं, वे द्रव्य जिन कहे जाते हैं । द्रव्य अरिहत की भक्ति भयंकर दुष्ट सर्प चंडकौशिक ने की थी, प्रभु से प्रतिबोधित हो उसने अपने शरीर को चींटियों से छलणी जैसा बना लिया, फिर भी प्रभु को देखकर समभाव रखा।
भाव अरिहंतः चतुर्विध संघ की स्थापना करके समवसरण में विराजित होकर जो उपदेश देते हैं वे भावजिन हैं। श्रेणिक राजा एवं सुलसा ने भाव अरिहत की भक्ति की थी।
अरिहंत पद की आराधना के तीन विभाग किये जाते हैं। प्राज तक आपने जो आराधना की वह अाराधना किसकी थी ? जो भी पाराघना पापने की वह कैसे की ? जिसने अाराधना की वह साधक कैसा था ? इन अाराधना के तीनों विभागों से प्राप स्वयं अपनी पाराधना के विषय में निर्णय ले सकते हैं।
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नम योग
'तत्स कि चञ्चल स्वान्तो, भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा विषीदसी | निथ स्व सन्निधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ।।'
हे मन ! चंचल बनकर बार बार खिन्न क्यों होता है । स्थिर होने पर ही तुझे तेरी संपत्ति दिखाई देगी । वर्तमान काल में मानव मन और वायु दोनों दूषित हो रहे हैं। वायु का दूषण भौतिक जीवन को तथा मन का दूषरण मौलिक जीवन को दूषित कर रहे हैं । मन चंचल है और अनेक वासनाओं से घिरा हुआ है। विद्युत करंट से भी ज्यादा करंट मन में है । युद्ध का प्रारम्भ मनुष्य के मन से ही होता है तथा युद्ध की समाप्ति भी मनुष्य के मत से ही होती है ।
योग का सारा आधार मन पर ही है । जब तक आप मन की श्रत्रस्थानों को नहीं पहिचानते तब तक आप योग में प्रवेश नहीं कर सकते मन की अवस्थाएँ :
( १ ) विक्षिप्त मन: - जिसको चपलता ही इष्ट है ।
(२) यातायात मनः श्राना और जाना, क्षरण में स्थिरता, क्षरण में चंचलता । ये दोनों मन की अवस्थाएं प्रारंभिक अभ्यासी को होती है । (३) श्लिष्ट मन: - स्थिरता और आनन्द पूर्ण स्थिति । (४) सुलीन मन:- निश्चय और परमानंदी दशा वाला ।
श्राप लक्ष्मी को वश में करना तो जानते हैं, पर व्या आप मन को भी वश में करना जानते हैं ? गोदरेज की मजबूत तिजोरी पर मजबूत ताला डाल कर, फिर उसमें बिजली का करंट लगाकर दरवाजे पर शिकारी कुत्ता रख कर, बाहर बन्दूकधारी रक्षक को नियुक्त कर आप लक्ष्मी को वश में कर सकेंगे, किंतु मन को वश में करना आपके हाथ की बात नहीं है । क्योंकि प्राप मन के वश में है, मन आपके वश में नहीं है ।
'मंत्राधीनं च दैवतम्' देवता मंत्रों की अधीनता स्वीकार करते हैं । मन्त्र ध्वनि रूप भिन्न भिन्न ध्वनियें भिन्न भिन्न शक्ति रूप है । इसी कारण देवता मंत्रमय ही है । बोसवीं शताब्दो में मंत्रों का परामर्श देना असामान्य सा लगता है ।
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मन योग
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३६
अगाध
मनुष्य स्वयं को अंतरिक्ष युग में समझता है। विज्ञान पर उसका विश्वास है, फिर भी प्रशांति है । मंत्र इस अशांति को दूर कर सकता है । मंत्रों को तेजोमय शक्ति का सम्मुचय कहते हैं । इसी प्रकार बीजाक्षर भी शांतिपुंज माने गये हैं। मंत्र मानव से परे स्थित शक्ति को जाग्रत प्रदान करते हैं। मंत्र सिद्धि का अर्थ है मंत्र को सशक्त श्रौर जाग्रत बनाना । 'मननेन त्रायतेऽसौ मंत्रः ।'
पुनः पुनः उच्चारण से अथवा चिंतन मनन से रक्षण होता हो उसे मंत्र कहते हैं । मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है, उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहा जाता है ।
'मन्यते विचार्यते आत्मादेशो येन स मंत्रः ।'
जिसके द्वारा आत्म प्रदेश पर विचार किया जाये, वह मंत्र है । समुदाय को मंत्र कहा जाता है । मान्त्रिक सामग्री के सदुपयोग से सुन्दर मन प्राप्त होता है। तांत्रिक सामग्री के सदुपयोग से सुन्दर तन प्राप्त होता है और यांत्रिक सामग्री के सदुपयोग से अतुल धन प्राप्त होता है ।
मंत्र स्वीच है यन्त्र पावर है । तंत्र एनमल्ड कप है । सदभव बल्ब है । चित्त का आनन्द प्रकाश है। पावर या बटन अच्छा हो किंतु एनामल्ड कप काला हो तो चित्त को आनंद का प्रकाश नहीं मिलेगा । बटन रूपी मंत्र ही नहीं है तो अंधेरा ही रहेगा
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मंत्र सिद्धि के तीन मार्ग है : ( १ ) इच्छा (२) श्रद्धा और (३) दृढ़ संकल्प |
राजस्थान से एक सुधार गांधीजी से मिलने वर्धा प्राश्रम गया । उसे वहाँ रहने का स्थान दिया गया । ८ अगस्त १६४२ को बंबई में गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। किसी को पता नहीं की गांधीजी को कहां रखा गया है । सारा भारत गांधीजी के विषय में जानने को उत्सुक था। उस समय श्री मन्नारायण वर्धा थे। उन्होंने उस सुथार को बुलाया और कहा "तुम मंत्र जानते हो, अपने मंत्र के बल से यह बताओ कि गांधीजी इस समय कहां हैं ? "सुथार ने कुछ क्षण तक ग्रांखें बंद कर ध्यान लगाया और मत्रोच्चारण किया। फिर प्रांखें खोल कर कहा, "दरवाजे के बाहर कुछ लिखा हुआ है । मुझे पढ़ना नहीं प्राता । श्री मन्नारा
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४. ]
मन योग
यण ने सुथार को स्लेट पेंसिल दी। सुथार ने उस पर कुछ अक्षरों की प्राकृति बना दी। लिखा था "पागा खां पैलेस में ।" श्री मन्नारायण पूना गये और यह जानकर प्रसन्न हुए कि गांधीजी सचमुच आगा खां पैलेस में नजर बद थे। सुथार की बात सच निकली। सुथार को हनुमानजी का एक मंत्र सिद्ध था।
मत्र कितने प्रकार के होते हैं और उनका क्या प्रभाव होता है ?
सिद्ध मंत्र, साधारण मंत्र और निर्बीज मंत्र : ये जाप से सिद्ध होते हैं और दूसरों पर प्रभाव करने वाले होते हैं।
सात्विक मंत्र से प्रात्मशुद्धि होती है। राजसिक मंत्र से यश एश्वर्य प्राप्त होता है और तामासिक मंत्र से उच्चारण प्रादि सिद्धियां प्राप्त होती है।
हमारा जीवन एक कारखाने जैसा है। कारखाना चलाने में दो व्यक्ति मुख्य होते हैं, मालिक और संचालक । इन दोनों में अधिक उत्तरदायी कौन ? मालिक या मैनेजर ? अधिक उत्तरदायित्व संचालक पर ही होता है क्योंकि सभी चिंताएँ उसे ही होती है। हमारा जीवन भी कारखाने जैसा है । प्रात्मा मालिक है और उसने मन रूपी मैनेजर को सारा काम सौंप दिया है। मन हमारे जीवन का संचालक है, उसकी इच्छा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। यदि कारखाने का मैनेजर ताकतवर हो तो ज्यादा उत्पादन हो सकता है, इसीलिये उसे अधिक वेतन दिया जाता है। हमारे जीवन के संचालक मन के पास पांच कार्यकर्ता हैं, वे हैं पांच इन्द्रियां जिनका काम है सुनना, देखना, सूधना, स्पर्श करना और खाना । ये पांचों कायं मन की इच्छा के बिना नहीं चल सकते।
मन की शुभ भावना से पशु तक भी मनुष्य के मित्र बन जाते है। बलदेव मुनि रूप के सागर थे । उनके रूप को देखकर उनकी माता ने उन्हें कुए में डाल दिया था। बलदेव ने इस अनर्थ से बचकर दीक्षा ले ली और अपने रूप को धिक्कारते हुए उन्होंने प्रतिज्ञा की कि वे शहर में नहीं जायेंगे, जंगल में ही रहेंगे । एक हिरण उनकी शुभ भावनाओं से उनका मित्र बन गया था। गोचरी के समय यह हिरण किसी न किसी सार्थवाह को ढंढकर उसका कपड़ा मुह में लेकर खींचता हुआ जगल में ले पाता और फिर मुनि को वहां ले जाकर गोचरी (प्राहार-पानी) दिलवाता ।
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मन योग
[ ४१
मन की दुष्ट भावना अन्यों को संताप देने वाली होती है । कृष्ण के पुत्र द्वारका के बाहर घूम रहे थे, वहां उन्होंने मदिरा पी और नशे में द्वैपायन ऋषि को बुरा भला कहा जिससे ऋषि ने क्रोधित होकर द्वारका को जला दिया ।
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'मन एवं मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयो ।'
मन ही मनुष्यों को बन्धन में बंधवाता है और वही उसे मुक्त भो करवाता है । अंतरंग दृष्टि वाली आत्मा के लिये मन मोक्ष का कारण बनता है तथा बाह्य दृष्टिवालों के लिए बंधन का कारण बनता है ।
मन को साधने के लिये पहले वाणी को साधा जाता है, फिर शरीर को साधा जाता है । जैन महर्षियों ने केवल मन निरोध का ही ध्यान नहीं बताया है, किंतु वचन और काया के निरोध के लिये भी ध्यान की प्रक्रिया बताई है ।
काया की स्थिरता के लिये ६ प्रकार के संलीनता तप नामक बाह्य तप को बताया गया है । शरीर तंत्र का मन पर प्रत्यधिक असर होता है । जिसके शरीर में वायु बढ़ गया हो, नाड़ियें कफ से भर गई हों, पित्त से मगज विक्षिप्त बन गया हो, वह व्यक्ति मन को वश में नहीं कर सकेगा ।
इंग्लैंड में चेतना शक्ति द्वारा उपचार करने वाली एक संस्था नेशनल फेडरेशन ग्राफ स्प्रीय्युअल हीलसी एसोशियेसन । उसमें लगभग पांच हजार सदस्य कार्य करते हैं । इस संस्था में रोगी की देखभाल शुभ भावना से की जाती है, रोगी को प्रसन्न रखकर श्रानन्दित करके की जाती है, जिससे शरीर में प्रोजस् स्फूर्ति और शक्ति प्राती है । श्रायुर्वेदिक, एलोपैथिक, होम्योपैथिक तथा बायोकेमिक सभी को यह बात मान्य है ।
'सुकरं मल धारित्वं सुकरं दुस्तपं तपः । सुकरोऽक्ष निरोधश्च दुष्करं चित्तरोधनम् ॥'
विभूषा का त्याग, अन्न जल का त्याग, इन्द्रियों का निग्रह करना सरल है किंतु मनोवृत्ति को वश में करना अत्यंत दुष्कर है । मन को वश में लाने के लिये शरीर को वात, पित्त, कफ से बचाना चाहिये ।
आपके रक्त में अशुद्धि हो तो उसे दूर करने के लिये प्राणवायु की
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मन योग
आवश्यकता होती है, यह शरीर के विष को निकाल देती है। प्राणवायु यदि दीर्घ श्वासी श्वास से लिया जाय तो वह अन्दर तक पहुँचता है । इसीलिये प्राणायाम आवश्यक है। प्रारम्भ में धोरे धीरे दीर्घा श्वास खींच कर शीघ्रता से छोड़ना चाहिये । ५ से प्रारम्भ कर प्रतिदिन बढ़ाते हुए १ माह में ५० प्राणायाम प्रतिदिन तक करना चाहिये। इससे शरार की विद्युत शक्ति प्रदीप्त बनती है। शरीर चेतनावत् बनता है।
मन क्या है ? स्थूल या सूक्ष्म ? उसका निवास शरीर में कहां है ? मादि प्रश्नों पर गहराई से गंभीर चिंतन मनन कर गंभीर विचार प्रस्तुत किये गये हैं । मन अणु है फिर भी उसमें विराट शक्ति है । वह सूक्ष्म तत्त्व है जिसको अांख नहीं देख सकती। भगवती सूत्र में एक महत्वपूर्ण प्रश्न पाता है । गणधर गौतम भगवान महावीर से पूछते हैं "भन्ते ! आत्मा और मन दोनों एक हैं या पृथक पृथक ?" महावीर भगवान ने कहा “मन दो प्रकार का है, द्रव्य मन और भाव मन । भाव मन को अंतःकरमा कहते हैं, वह प्रत्येक संगारी प्रागो के होता है । द्रव्य मन पौद्गनिक है वह सभी को नहीं होता, केवल सज्ञो पचेन्द्रिय को होता है । श्वेतांबर मान्यतानुसार द्रव्य मन संपूर्ण शरीर में व्याप्त है। दिगंबर मान्यतानुसार वह मात्र हृदय में रहता है । अनेक प्राचार्यों ने मन को परिभाषा करते हुए कहा हैं:
'सकल्प विकल्पात्मकं मन:। जिसमें संकल्प विकल्प उत्पन्न होते हों वह मन है ।
एक व्यक्ति भट्टालिका बनाने का कार्य करता है । उसका निर्माण कार्य जैसे-जैसे बढ़ता जाएगा, वैसे हो वैसे वह भूमि से उपर उठता जायेगा दूसरा व्यक्ति कुप्रा खोदने का काम करता है, उसका निर्माण जैसे जैसे बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे वह भूमि तल से नीचे उतरता जायेगा। ऐसी ही स्थिति मानव जीवन की भी है । सत्कर्म करने वाले मानव का जीवन ऊंचा चढ़ता जाता है और दुष्कर्म करने वाले का जीवन नीचे उतरता जाता है। जैसे मिस्त्रियों को काम करने के लिये औजार की आवश्यकता होती है. वैसे ही मानव को भी काम करने के लिये मन, वचन और काया के तीन औजार मिले हैं । ये तीनों कर्म के साधन हैं। जैसे मिस्त्रो अपने अौजारों से अट्टालिका भी बना सकता है और कुप्रा भी खोद सकता है, वैसे ही मनुष्य भी अपने मन, वचन और काया के योग से सत्कर्म भी कर सकता है और दुष्कर्म भी कर सकता है।
मन, वचन काया से दस प्रकार के सुकर्म या दस प्रकार के दुष्कर्म
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मन योग
[
कर सकता है । जैसे (१) अन्य के धन की इच्छा ( २ ) अन्य के विनाश की कामना (३) नास्तिक दृष्टि रखना, ये मानसिक दुष्कर्म हैं । इसके विपरीत पर द्रव्य को मिट्टी के समान समझना, दूसरों पर प्रेमभाव रखना, प्रशस्त भाव रखना, आस्तिकता, सत्य, अहिंसा, मैत्री आदि में श्रद्धा रखना, ये मानसिक सुकृत हैं । झूठ बोलना, चुगली खाना, अपशब्द बोलना, बकवास करना, ये चार वाणी के दुष्कर्म हैं । सत्य बोलना, प्रिय बोलना, गाली गलौज नहीं करना, व्यर्थ बकवास नहीं करना, ये चार वाणी के सत्कर्म हैं । प्राणीघात, चोरी, पर स्त्री गमन, ये तीन काया के दुष्कर्म हैं ।. अहिंसा, अचौर्य, सदाचार ये तीन काया के सत्कर्म हैं ।
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मन के तीन पाप में से एक पाप है नास्तिकता - श्रश्रद्धा । कोई व्यक्ति चाहे धर्मस्थान में न जाता हो या धार्मिक क्रियाएँ न करता हो तो वह नास्तिक नहीं माना जा सकता बशर्ते कि वह सत्यवादी हो प्रामाणिक हो, श्रद्धाशील माना जाता है ।
जैन दर्शन यह कहता है कि मलिन से मलिन कर्म भी संयम - साधना एवं तप से नष्ट हो जाते हैं और जीव शुद्ध स्वरूप को पा लेता है ।
आत्मा वस्तुतः परम ज्योति स्वरूप शुद्ध सच्चिदानन्दमय है, अतः निर्मल भाव-परिणाम से अन्ततः निज स्वरूप प्राप्त कर लेती है ।
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वचन योग
'योगः सर्व विपदल्ली विताने परशुः शित: ।
- अमूलमंत्र तंत्र च कार्मणं वृत्तिश्रियः ।।' जीता तो पशु के भी होती है, किंतु वह बोलकर अपने विचारों को प्रकट नहीं कर सकता, जबकि मनुष्य अपने अन्तर्मन के विचारों को वाणी द्वारा प्रकट कर सकता है। जैसे देवताओं की संपत्ति अमृत है, वैसे ही मनुष्य की संपत्ति मधुर वाणी है। वाक् शक्ति पाकर्षण का मुख्य केन्द्र है । कई शास्त्रों में वाणी को अग्नि की उपमा भी दी गई है। अग्नि जैसे प्रकाश भी देती है और जला भी सकती है, उसी प्रकार वाणी के सदुपयोग से समाधि प्राप्त होती है, तो दुरुपयोग से लड़ाई-झगड़ा भी होता है । जब आप वैद्य या डाक्टर के पास जाते हैं तो सबसे पहले जिह्वा की परीक्षा होती है । यदि आपकी जीभ साफ नहीं है तो पता लग जाता है को आपका पेट भी साफ नहीं है। जीभ द्वारा शरीर की प्रांतरिक स्थिति का अनुमान किया जा सकता है । संसार की अनेक प्रकार की विपत्तियों के समूह रूपी बेल को काटने के लिये योग तीक्ष्ण कुल्हाड़ी के समान हैं। यह मोक्ष लक्ष्मी का मूल है और मंत्र-तंत्र एवं वशीकरण है।
वाणी के पाठ गुण होते हैं- (१) कार्य पतितं, (२) गर्व रहितम, (३) अतुच्छम् (४) धर्म संयुक्तम् (५) निपुणम, (६) स्तोक, (७) पूर्व सकलितम् और (८) मधुरम्ज्ञानी सीमित बोलता है, जबकि अज्ञानी निरर्थक बोलता है।
एक शिक्षक ने छात्रों से कहा, "जो लोग दिमागी काम अधिक करते हैं, उनके सिर पर बाल नहीं उगते, वे प्रायः गंजे हो जाते हैं ।
इस पर एक हाजिर जवाब छात्र बोल पडा, "आप ठीक कह रहे हैं, सर ! इसीलिये तो लड़कियों के मूछ नहीं पाती क्योंकि वे होठों से ही अधिक काम लेती हैं।"
शिक्षक ने छात्र की बात को काट दिया, “यह एक पक्षीय आक्षेप है। पुरुषों को भी आजकल मतदान प्रचार के लिये होठों का अधिक
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बचन योग
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प्रयोग करना पड़ता है इसीलिये तो अाजकल अधिकांश पुरुष सफाचट मूछे वाले होते हैं।"
वाणी की विशेषता बताते हुए पंडित वीर विजयजी म. ने जिनेश्वर परमात्मा की वाणी की कितनो सुन्दर महिमा व्यक्त को है पाठ महाप्रतिहार्यों में तीसरा अतिशय वाणी है
'जिन मुख दीठी, वाणी मीठी, सुरतरु बेलड़ी।' प्रभु की वाणी बेल के समान है। कल्पवृक्ष के समान है । वह बहुत मधुर है । कल्पवृक्ष से प्राप जिस किसी वस्तु को इच्छा करें, उससे आपको वह इच्छित वस्तु प्राप्त होती है, इसी प्रकार परमात्मा की वाणी आपके सभी संकल्पों को पूर्ण कर देती है । पाप पूछेगे कि यह कैसे हो सकता है ? जिन कारणों से आपके मन में संकल्प विकल्प उठते हैं, उन कारणों को ही प्रभु की वाणी समाप्त कर देती है ।
'द्राक्षविहासे गइ वनवासे ।' द्राक्ष को लोग मीठी कहते थे, परन्तु प्रभु की वाणी की मधुरता के समक्ष बेचारी द्राक्ष फीकी पड़ गई और लज्जित होकर जंगल में चली गई।
एक वृद्ध स्त्री दोपहर की गर्मी में जंगल में लकड़िये इकट्री करने गई । लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रख कर चलने लगी तो अचानक एक लकड़ी नीचे गिर गई । गट्ठर को सिर पर रखे हुए ही अपने शरीर को झुका कर एक हाथ से लकड़ी उठाने लगी इतने में ही प्रभु की वाणी सुनाई दी । वह स्त्री उसी अवस्था में खड़ी हुई प्रभु की वाणी सुनती रही। प्रभु का उपदेश बंद होने पर ही उसने अपने शरीर को सीधा किया। यह है प्रभु की वाणी का प्रभाव ! ईख को घाणी में डाला तो उसमें से रस निकलने लगा, रस को देखकर ईख रो पड़ी, 'कहाँ प्रभु की वाणी और कहाँ में ? यह रस नहीं मेरी अश्रुधारा है ।' इसी पद में प्रभु की वाणी के विषय में प्रागे कहा गया है
'साकर सेती तारण लेती मुखे पशु चावती' शक्कर तो प्रभु की वाणी की मधुरता से घबरा कर पहले से ही
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शरणागति स्वीकार करली । पुराने जमाने में शक्कर (खाँड ) में घास प्राती थी । श्रतः कवि ने कहा, "हे प्रभो मैं तो आपकी गाय हूँ ।" ऐसा कह कर मुंह में तृरण लेकर शरण लेली । शक्कर में घास के तृरण होने से कवि ने कल्पना की कि प्रभु की वारणी के समक्ष शवकर भी घास खाती है ।
पद आगे बढ़ता है, कवि की कल्पना और सजग हो जाती है
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ני
'अमृत मीठु स्वर्गे दीठु"
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अमृत मीठा तो है पर वह भी समझ गया कि इस धरती पर प्रभु की वाणी के समक्ष मेरा मीठास फीका लगेगा, जिन वारणी से मोर्चा लेने में आनन्द नहीं है इसलिये भय से घबरा कर अमृत भी स्वर्ग में चला गया ।
वचन योग
वाणी चार प्रकार की होती है परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरी । वैखरी की एक उपमा दी गई है कि जैसे मक्की की धानी फूटती है तब फटफट की आवाज होती है, वैसे ही जो बात मुंह से फटाफट बिना सोचे विचारे निकलती जाये और कान में जाकर समाप्त हो जाये, वह वैखरी Parti | इस वाणी का प्रायुष्य बहुत ही कम होता है, मात्र कुछ मिनिटों का । आजकल लोगों को बोलने का शौक इतना बढ़ गया है कि शब्द का मूल्य बहुत कम हो गया है। वैखरी वाणी मात्र शब्दों की भरमार होती है पर अर्थ का कोई अतापता नहीं होता । श्रर्थ का अनर्थ हो जाता है ।
उपरोक्त वाणी के वक्ता कई भाई 'एसो पंचनमुक्कारो' को जल्दी जल्दी में 'एपाचारो मुह 'कालो' ऐसा बोल जाते हैं। संसार दावानल का एक पद है- 'चूलावेलं गुरुगममरिण' उसे वैखरी वारणी वाले 'चूलावेलरण गुरुगमणी' कर देंगे और 'पही गजरमरणा' को पीहर जाकर मरणा' कर देंगे ।
एक प्रार्थना है:
'महावीरे तीजे पाट जन्म मरण से बला काट ।'
वैखरी वाणी वाले इसका उच्चारण करते हैं:
'महावीरे तीजे पाट जन्म मरण से बकरा काट ।'
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इसी प्रकार 'हरडे बेहडा प्राँवला' को वैखरी जुबान वाले 'धरड़ा बेरा प्रांधला' कह देते हैं ।
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वचन योग
।
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___एक बहरा अपने बीमार मित्र से मिलने गया, कितु उसके पहुँचने के पहले ही मित्र मर चुका था। बहरे ने उपस्थित लोगों से पूछा कि 'भाई का स्वास्थ्य कैसा है ?'' लोगों ने कहा "वह तो मर चुके हैं।" बेहरे ने सुना तो कुछ नहीं पर अपने मन से ही सोच लिया कि ये लोग स्वास्थ्य में सुवार की बात कर रहे होंगे। बेहरे ने कहा “अच्छी बात है, भगवान ने अच्छा ही किया, इलाज किसका चल रहा है ?' मित्र के लड़कों ने कहा "यमराज का" । बेहरे ने कहा, "यह डाक्टर बहुत अच्छा है. उसके हाथ में खूब यश है, पथ्य क्या दिया ?" औरतों ने कहा "पत्थर'' बेहरे ने समझा दलिया खिचड़ी दी होगी। बोला, “पथ्य बिल्कुल ठीक है, सभी इसी का उपयोग करते हैं, खैर भाईजी सोले कहाँ हैं ?'' लोगों ने कहा 'श्मशान में' बेहरे ने समझा पास वाले कमरे में । बोला "हाँ, हाँ, बाल बच्चों को भी वहीं सुला देना' लोगों को गुस्सा ग्राया, गला पकड़ कर घर से बाहर किया।
वैखरी के साथ जब पगवरणी की गूज हो जाये और सुनने वाला भी सावधान चित्त वाला हो तो थाड़े से शब्दों में अधिक काम हो जाता है । तेज चाल वाला घोड़ा इशारे मात्र से समझ जाता है ।
मध्यमवाणी में रटे गये सूत्र का अर्थ तो समझ में प्राता है, परन्तु वह हृदयस्पर्शी नहीं बन पाता , अर्थ तो समझ गया पर गूढ़ अर्थ नहीं समझा, अत: कभी कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है।
पिता ने पुत्र को शिक्षा दी:--- 'मातृवत् परदारेष परद्र व्याणि लोष्टुवत् । प्रात्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडितः ।।'
हे पुत्र ! परस्त्री को माता के समान, परद्रव्य को मिट्टी के समान तथा सबको अपने समान समझना चाहिये । पुन ने जवाब दिया, "पिताजी तब तो मेरो स्त्री आपकी माता के समान हुई । हलवाई को मिठाई मिट्टी के समान हुई तथा सबको अपना समझने से तो परस्त्री और परधन भी अपना ही हुया, पराया तो फिर कुछ है ही नहीं।" देखा आपने, कितना स्वार्थपूर्ण अर्थ का अनर्थ हुअा है ।
पश्यन्ती वाणी अर्थात् देखने वाली वाणी सूत्रों को स्मरण करते समय अन्तप्रज्ञा को प्रकाशित करती है । मन को प्रांखों के समक्ष साक्षात् चित्र
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वचन योग
खड़ा हो जाता है । 'नमो अरिहंताणं' पद के उच्चारण के साथ ही समव. सरण में विराजमान धर्म देशना देते हुए परमात्मा का साक्षात् दर्शन हो जाता है।
शब्द को ब्रह्म कहा जाता है। सातों नयों में शब्द नय का स्थान अग्रणी है । व्याकरण का प्राधार भी शब्द पर ही निर्भर है। शब्द की शक्ति अचित्य, भाव अगम्य, प्रकथ्य तथा प्रवरणनीय है।
बादशाह हुमायू बेहराम खाँ के साथ बातचीत कर रहा था। बातचीत करते-करते बेहराम खाँ ने अाँख बन्द करली, तब हुमायू ने पूछा, "क्या प्राप स्वप्न देख रहे हैं ?"
बेहराम खाँ ने कहा, 'मेरे बुजुर्गों ने मुझे आदेश दिया है कि तीन स्थानों पर संयम रखना चाहिये । (१) साधु से बात करते समय मन का संयम रखना चाहिये। (२) बादशाह से बात करते समय आँख का संयम रखना चाहिये तथा (३) जन समूह से बात करते समय वाणी का संयम रखना चाहिये।
बात करते हुए अपने कथन में गर्व का पुट नहीं होना चाहिये। एक कलाकार ने दो वस्तुएँ बनाई, एक ढ़ाल और एक तीर । वह लोगों से कहता था, "ससार में ऐसी कोई वस्तु नहीं जो मेरे तीर को भेद सके । संसार में ऐसा कोई शस्त्र नहीं जो मेरी ढाल को छेद सके।" तब किसी ने कह दिया, "यदि आपका तीर ही आपकी ढ़ाल को छेदना चाहे तो ? यह सुनकर बेचारा कलाकार निरूत्तर हो गया। सच है, व्यक्ति अपनी प्रशंसा में अपना विवेक खो बैठता है।
एक व्यक्ति अपने साथियों में अपनी बढ़ाई हांक रहा था, "मैं वहां सभा में गया था। संघ वालों ने कहा आगे पधारो। मेरे मना करने पर भी मुझे आग्रह पूर्वक आगे बैठाया। मुख्य वक्ता में मेरा नाम लिख दिया और हाथ पकड़कर माइक पर खड़ा कर दिया। मैंने भी ऐसा घुमाघार भाषण दिया कि तालियों की गड़गड़ाहट हो गई। लोगों ने कहा प्रापका भाषण क्या था, बिजली की चकाचौंध थी।" इतने में ही उसी का एक साथी बोल पड़ा, "यार मैं भी साथ में ही था। याद नहीं, तीन घटे बाद एक गिलास पानी मिला था।" उनके सामने ही उनकी प्रशंसा का खंडन हो गया।
। अतः समझदार व्यक्ति को संयम रखकर बोलना चाहिये तथा अपने मुह मियां मिठ्ठ नहीं बनना चाहिये।
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काय योग ( हठ योग )
योगश्चतुर्विधो मन्त्र - लय राजह्याभिधः । सिध्यत्यभ्यासयोगेन सद्गुरोपदेशतः ।
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योग प्रणालिका मुख्यतः चार प्रकार की है : - मन्त्रयोग, लययोग, राजयोग और हठयोग । ये योग अभ्यास द्वारा तथा सद्गुरु के उपदेश से सिद्ध होते हैं ।
क्रियायुक्तस्य सिद्धि: स्यादक्रियस्य कथंभवते । न शास्त्रपाठमात्रेण योग सिद्धिः प्रजायते ॥
जो व्यक्ति अभ्यासयुक्त क्रिया करता है, वह सिद्धि को वरण करता है, परन्तु जो क्रिया ही नहीं करता उसे सिद्धि कैसे प्राप्त हो सकती है ?
कुछ लोगों का कहना है कि हम भी योगाभ्यास करना चाहते हैं, किन्तु योग बहुत कठिन होने से हम नहीं कर पाते । किंतु शास्त्र में कहा गया है कि
'सर्वेषां तु पदार्थानामभ्यासः कारणं परम् ।'
सभी पदार्थों को प्राप्त करने का मुख्य कारण अभ्यास है । प्रतः परिश्रमपूर्वक अभ्यास करते रहना चाहिये, सफलता अवश्य मिलेगी. अभ्यास से क्या नहीं हो सकता ? कहा भी है
'अभ्यासेन स्थिरं चित्तमभ्यासे सेनानिलच्युतिः । अभ्यासेन परानन्दोह्यभ्या सेनात्मदर्शनम् ॥'
मन बहुत चंचल है, फिर भी अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है । पवन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, फिर भी अभ्यास द्वारा उसे वश में किया जाता है । परमानन्द की प्राप्ति सरल नहीं है, पर अभ्यास द्वारा उसे भी प्राप्त की जा सकती है । श्रात्मदर्शन या आत्म-साक्षात्कार जो योग का मुख्य लक्ष्य है, उसे भी अभ्यास द्वारा प्राप्त किया जा सकता है ।
प्रश्न है कि सिद्धि प्राप्ति कैसे की जा सकती है ? दीन बनकर
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काय योग (हठ योग)
बैठने से नहीं, अभ्यास द्वारा सिद्धि प्राप्त की जा सकती है । यद्यपि पक्षियों में जन्म से ही उड़ने की शक्ति होती है, फिर भी उन्हें अभ्यास करना पड़ता है। च्यवनप्राश लोहगुग्गल, रसायनचर्ण आदि प्रौषधि खाने से शरीर को शक्ति प्राप्त होती है। मंत्र से प्राकाश गमन अणिमा प्रादि की सिद्धि की प्राप्ति होती है । तप से संकल्प सिद्धि प्राप्त होती है । समाधि से ध्यान धारणा, ध्येय की सिद्धि प्राप्त होती है । उपासना से सत्य की प्राप्ति होती है । प्रार्थना से चित्त एकाग्र होता है । इसी प्रकार स्वरोदय के ज्ञान से मनुष्य के विचारों का तथा संस्कार का ज्ञान होता है । स्वरोदय जो वास्तव में योग का विषय होते हुए भी पूर्ण अभ्यास के बिना नहीं समझा जा सकता है।
प्राकृत द्वाश्रय महाकाव्य के अन्त में श्रुतदेवी ने कुमारपाल को उपदेश देते हुए हठयोग प्रणाली का उपदेश दिया है। हठ को बोलचाल की भाषा में जिद्द या आग्रह कहा जाता है। परन्तु योग में हठ का अर्थ संकेत से लिया जाता है। सिद्ध सिद्धांत पद्धति में गोरखनाथ ने कहा है कि
'हकार : कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चन्द्र उच्यते। सूर्यचन्द्र प्रसोर्योगात् हठयोगी निगद्यते ।।'
आप कहेंगे सूर्य और चन्द्र भी कभी इकट्ठे होते होंगे ? यहां सूर्य का अर्थ सूर्यनाडी से हैं अर्थात् दाँया स्वर और चन्द्र का अर्थ चन्द्रनाड़ी ,से अर्यात् बाँया स्वर । ह से दाँया स्वर और ठ से बाँया स्वर इन दोनों नाड़ियों के स्वर के मिलाप को हटयोग कहा जाता है।
हठयोग का मूल प्रचार मांकडेय ऋषि से हुअा था, परम्परा विच्छेद होने से नौवीं शताब्दी में मत्स्येन्द्रनाथ तथा गोरखनाथ ने फिर से इस प्रणाली का विकास किया । नाथ संप्रदाय वाले इस योग को अधिक महत्व देते हैं। हठयोगी कहते हैं कि शरीर की शुद्धि से प्राण का, प्राण से मन का और मन से चित्तवृत्ति का नियन्त्रण होता है ।
धौति, बस्ति, नेति, त्राटक, नौलि, कपाली, भीति इस प्रकार षट्कर्म की योजना करते है । हठयोगी ८४ पासन मानते हैं। वर्तमान में १०० प्रासन तक हो गये हैं. इनमें से ३० प्रासन ही महत्त्व के हैं। इन आसनों से अनेक प्रकार के रोगों का शमन होता हैं और चर्बी बढ़ना बंद हो जाता है।
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काय योग ( हठ योग )
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स्वरोदय ज्ञान
सूर्य निम्न प्रकार के माने गये हैं । यहाँ सूर्य को सूर्यनाड़ी के अर्थ में लिया गया है- १. विद्याकटस्थ सूर्य २. स्नानसूर्य ३. भोजनसूर्य ४ लेखनसूर्य ५. निद्रासूर्य ६. कामसूर्य ७. वस्तुसूर्य ।
पानी पीना, स्थंडिल जाना, पद्मासन लगाना चंद्रनाड़ी में श्रेष्ठ. माना जाता है। नींद उड़ने पर यह देखना चाहिये कि कौन से तत्त्व से निद्रा का विच्छेद हुआ है । यदि जल और पृथ्वी तत्त्व से निद्रा वह शुभ है । यदि आकाश या अग्नि तत्त्व से निद्रा टूटी दुःखदायी है ।
टूटी है तो है तो वह
प्रत्येक माह के शुक्न पक्ष की प्रथम तिथि से ३ दिन तक प्रातःकाल सूर्योदय के समय यदि चन्द्रनाड़ी वायु तत्त्व है तो वह शुभ है । कृष्ण पक्ष की तिथि से ३ दिन तक प्रातःकाल सूर्योदय के समय सूर्यनाड़ी में वायु तत्त्व है तो वह शुभ है ।
यदि वायु तत्त्व में चंद्रनाड़ी बहे और सूर्योदय हो तो वह शुभ है यदि वायु तत्त्व में चंद्रनाड़ी बहे और सूर्यास्त हो वह शुभ है ।
पांच तत्त्वों को पहचान
पवन पृथ्वी से ऊपर की तरफ उठ रही हो तब अग्नि तत्त्व, पवन ऊपर से पृथ्वी की तरफ नीचे उतर रही हो तब जल तत्त्व, यदि पवन तिर्द्धा बहे तो वायु तत्त्व, दोनों तरफ बहे तो पृथ्वी तत्त्व और पवन सभी दिशाओं में फैल जाय तो आकाश तत्त्व माना जाता है ।
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सूर्यनाड़ी हो या चंद्रनाड़ी हो, उसमें वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश में सभी तत्त्व क्रमशः निरन्तर बहते रहते हैं । तत्त्वों के परिवर्तन का समय इस प्रकार माना गया है- पृथ्वी ५० पल, जल ४० पल, श्रग्नि ३० पल, वायु २० पल और आकाश १० पल ।
पृथ्वी और जल तत्त्व में शांति कार्य करें तो सफलता प्राप्त होती है । श्रग्नि, वायु और ग्राकाश तत्त्व की तीव्रता में कार्य श्रेष्ठ है । आयुष्य जय, लाभ, वर्षा, धान्य उत्पत्ति, पुत्र प्राप्ति, युद्ध, गमन, आगमन आदि का प्रश्न करते समय यदि पृथ्वी और जल तत्त्व हो तो श्रेयष्कर और वायु
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५२
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(ग्रहत) अरिहंत पद
अग्नि और आकाश तत्त्व हो तो अशुभ माना जाता है। अर्थ सिद्धि के स्थिर कार्य में पृथ्वी और शीघ्र कार्य में जल तत्त्व श्रेयष्कर है ।
पांच रंग के तत्त्व शास्त्र में कहा गया है कि शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् अर्थात् धर्म साधना करने के लिये शरीर ही साध्य है, अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। फिर कहा गया है कि 'परोपकारार्थमिदं शरीर अर्थात् यह शरीर परोपकार के लिये है। किन्तु शरीर से परोपकार के कार्य तभी होंगे जब शरीर स्वस्थ होगा ।
प्राचीन चिकित्सा विज्ञान के अनुसार रोगों के तीन मुख्य कारण बताये गये हैं वात पित्त और कफ । वायुजन्य रोगों का शमन अग्नि तत्त्व से होता है। अग्नि तत्त्व का रंग लाल है । अत: वायु रोग के शमन के लिये लाल रंग का ध्यान करना चाहिये। पित्त कोप या पित्त क्षय से होने वाले रोगों का शमन पृथ्वी तत्त्व से होता है। पृथ्वी तत्त्व का रंग पीला है अत: पित्त रोगों के शमन के लिये पीले रंग का ध्यान करना चाहिये। कफ दोष की शांति जल तत्त्व से होती है जिसका रंग सफेद है। यदि किसी को वात पित्त की बीमारी है तो हरे या नीले रग के ध्यान से ठीक हो सकती है। यदि वात, पित्त, कफ त्रिदोष की बीमारी हैं तो आकाश तत्त्व लाल रंग के ध्यान से ठीक हो सकती है ।
रंगों से मनुष्य के स्वभाव की पहचान भी होती है । हम नैतिक हैं या अनैतिक, उत्तेजित हैं या अनुत्तं जित, उदार स्वभाव के है या स्वार्थी, इनका पता किस रंग का और किस व्यक्ति का अधिक लगाव है, इससे पता लग
मूल रंग ! चार हैं-लाल, हरा, नीला, पीला, चार ही इनके सहायक रंग हैं जामुनी, काला, कत्थई और सलेटी । प्रत्येक रग हमारे शारीरिक स्वास्थ्य और मनोभावों को प्रभावित करता है।
लाल रंग का प्रभाव अत्यंत चमकते हुए लाल रंग के समक्ष पागल मनुष्य को रखने से पागल अधिक उन्मत्त बनते हैं, वश में नहीं रहते । पागल व्यक्ति को मात्र माघे घटे के लिये लाल रंग से पुते कमरे में बंद कर दीजिये, वह तूफान
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काय योग (हठ योग)
मचाना प्रारंभ कर देगा। कुछ पशु भी लाल रंग से भड़कते हैं, विशेष कर साँड और बाघ को लाल रंग अधिक उत्तेजित करता है। कुछ पक्षियों को भी लाल रंग से द्वेष होता है। यदि पाप केनरी नामक पक्षी के समक्ष लाल रंग का कपड़ा उड़ायें तो उसे हिचकी आने लगेगी। यदि किसी घर में कोई व्यक्ति तेज मिजाज का है और कमरे का रंग लाल है या लाल पर्दे लगे हुए हैं तो पति-पत्नि में कलह अवश्य भावी है ।
गहरे लाल रंग के ध्यान से, मांसपेशियों की उत्तेजना बढ़ती है। इस रंग के अधिक ध्यान से नाक से खून गिरते हुए और कभी कभी व्यक्ति को बेहोश होता भी देखा गया है। दूसरे ही दिन नीले, काले रंग के साथ सिद्ध पद का ध्यान करने से बिना किसी उपचार के एक सप्ताह में स्वस्थ होते हुए भी देखा गया । रक्त वेग अपने पाप ही शान्त हो गया ।
एक माता ने बताया कि जब वह बच्चे को लाल रंग के कपड़े पहनाती है और स्वयं भी लाल साड़ी पहनकर बच्चे को गोद में लेती है, तब कुछ ही मिनटों बाद वच्चा बैवेन हो जाता है । बच्चे की नाड़ी की गति और रक्तचाप तेज हो जाते हैं। एक माता ने बताया कि उसके और बच्चे के कपड़े लाल थे। बच्चा मेरी गोद में था। कुछ समय बाद बालक सुस्त हो गया। जब डाक्टर से जाँच करवाई तो डाक्टर ने बालक को उच्च रक्त चाप होना बताया। बालक को अस्पताल में भर्ती कर दिया गया। जब माता का सम्पर्क छूटा और बालक को अस्पताल के सफेद कपड़े पहनाये गये तो बिना किसी इलाज के बालक स्वस्थ हो गया। उसका रक्तचाप ठीक हो गया।
श्वेत रंग सफेद रंग प्रत्येक रंग की विशेषता को अपनी ओर आकर्षित करता है। यह रंग पवित्रता का प्रतीक है । इस रंग के ध्यान से काम, क्रोध आदि प्रवत्तियों की कालिमा से दूर रहने की भावना उत्पन्न होती है। इस रंग का उपासक, क्रमशः संदेहावस्था में ही राग द्वेष से मुक्ति पा लेता है । वैसे यदि मात्र सफेद रंग को ही निरन्तर प्रखण्ड देखा जाय तो अत्यन्त हानि होती है । उत्तरी ध्र व प्रदेशों में निरन्तर बर्फ को देखने वाले लोगों में अधापन एक सामान्य रोग माना जाता है। यदि आप निरतर आठ दिन तक मात्र सफेद रंग को ही देखें तो अधापना पा सकता है ।
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काय योग (हठ योग)
काला रंग काला रंग सबसे स्थायी रग है । इस पर किसी दूसरे रंग का असर नहीं होता। कहावत भी है काली कंबलिया पर चढ़त न दूजो रंग ।' इससे अधिक गहरा और सक्रिय और दूसरा कोई रंग नहीं होता इस रग का प्रेमी सिद्धान्त प्रिय, त्यागी और विचारशील होता है। काले रंग को प्रमुखता देने वाला व्यक्ति बलवान, संकल्प वाला और लक्ष्यपूर्ति के लिये सब कुछ त्यागने में समर्थ होता है। जैसे काला रंग किसी दूसरे रंग को स्वीकार नहीं करता, वैसे ही उसके उपासक को भी एक बार वैराग्य जागृत हो जाने पर वह कभी मुड़ कर भी संसार की अोर नहीं देखता।
हरा रंग हरा रंग उत्साह शांत और स्थिर स्वभाव का सूचक है। यही एक ऐसा रग है जो व्यक्ति को अनियन्त्रित क्रोध, रक्तक्रांति तथा निरंकुश व्यक्तियों से बचाता है। वर्तमान रंग विशेषज्ञों का कहना है कि यदि प्रतिदिन नियमित रूप से हरियाली के मध्य रहा जाय तो अनेक शारीरिक और मानसिक रोगों से बचा जा सकता हैं । इस रंग को प्रमुखता देने वाला व्यक्ति स्वाभिमानी और दृढ़ संकल्पी होता है। यह रंग ज्ञान तन्तुओं के उत्तेजन का शमनकारी होता है, इसलिए अस्पतालों में शोभा के लिए हरे रंग के पर्यों का उपयोग किया जाता हैं। शुद्ध हरे रंग के साथ थोड़ा राख जैसा रंग मिश्रित किया जाय तो वह रंग अत्यन्त शांति प्रदायक होता है । अत्यन्त चमकदार धातु से बना हरा रंग हानिकारक होता है।
पीला रंग ऐसा जानने में आया है कि पीले रंग के साथ दीर्घकाल तक रहने से शरीर में रोग के अत्यन्त बासदायी चिह्न प्रकट होते हैं इन चिह्नों के शरीर में प्रकट होने के पश्चात् भी यदि बीमार को पीले रंग के कमरे में रखा जाय तो उसे अपस्मार का रोग हो जाता है । खरगोश और सुपर पर तो पीले रंग का असर इतना अधिक होता है कि वे स्वयं अपने को ही काटने लगते है। वे इतने भयभीत हो जाते है कि जरा सी आवाज होने पर चमक कर मर जाते हैं । इस रंग का उपासक अपनी इच्छानुसार कार्य करने वाला और कर्म में प्रफुल्लता उत्पन्न करने वाला होता है । इस रंग की प्रधानता में शक्ति, बुद्धिमता, दयालुता और नम्रता आदि
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काय योग (हठ योग)
गुरण प्रकट होते हैं । हल्का पीला रंग स्वार्थ त्याग का प्रतीक माना गया है । पीला, रंग भी लाल रंग की भांति उत्तेजक है किन्तु लाल से कम विक्षे. पक है। इस रंग के ध्यान से चेहरे पर तेज प्रकट होता है और पाचन शक्ति प्रबल बनती है। पीले रंग का उपासक मस्ती का जीवन जीता है, संघर्षों का सामना करता है और उसका झुकाव रूढ़िवादिता की अोर न होकर नवीनता की अोर होता है, साथ ही ऐसा व्यक्ति अत्यन्त घमंडी भी होता है।
अच्छे-अच्छे कपड़े पहन कर, मीठा-मीठा भाषण देकर तुम लोकरंजन कर सकते हो, पर प्रात्मरंजन या परलोकरंजन नहीं कर सकते। तुम लोकरंजन या प्रात्मरंजन इन दो में से एक कर सकते हो, क्योंकि ये एक दूसरे के विपरीत हैं । इसलिए शुद्ध और प्राडम्बररहित धर्म का प्राचरण करो जिससे लोकोत्तररजन हो । इसका साधन दान, शील, तप, भाव, ध्यान, धृति, सत्य प्रादि हैं ।
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दर्शन योग
जैन दर्शन एक महान् दर्शन है, जिसके मुख्यतः तीन आधार स्तंभ हैं. :- (१) दर्शन (२) ज्ञान और (३), चरित्र । सम्यग दर्शन शब्द सम्यग में दर्शन को जोड़कर बना है। सम्यग शब्द दर्शन का विशेषण है। दर्शन के भी अनेक अर्थ होते हैं। जैसे दर्शन अर्थात देखना यह इसका लोक प्रसिद्ध व्यवहारिक शब्दार्थ है, किंतु विशिष्टि रूप से तत्त्व या वस्तु को भली प्रकार से देखना ही सम्यग् दर्शन है।
दर्शन का दूसरा अर्थ होता है तात्त्विक सिद्धान्तों की भिन्न-भिन्न विशिष्ट प्रकार की विचार धाराएँ जैसे जैन दर्शन, बौद्ध दर्शन, संख्य दर्शन, वेदान्त दर्शन आदि ।
दर्शन का तीसरा अर्थ होता है श्रद्धा, जिसका संबंध विचारों और मान्यताओं से हैं । कौन-कौन सा तत्त्व हेय, ज्ञेय या उपादेय है इसको जानकर निश्चय करना। श्रद्धा शुद्ध व अशुद्ध दोनों प्रकार की हो सकती है । इस की स्पष्टता के लिये दर्शन के पर्व सम्यग् विशेषण को जोड़ा गया है।
सम्यग् दर्शन का प्रालंबन लेकर साधक कषायों के पहाड़ और वासना की नदी को आसानी से पार कर सकता है। कहा भी है :
'दंसरण मूलो धम्मो' धर्म का मूल ही दर्शन है । सम्यग् दर्शन बीज है जो फल-फूल कर एक दिन चारित्र के विशाल वट वृक्ष के रूप में परिणित हो जाता है और जो अनन्त-प्राणियों का शान्ति प्रदायक होता है ।
सम्यग् दर्शन के लिये तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है:'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सभ्यग्दर्शन'
भगवान द्वारा प्रतिपादित नौ तत्त्वों में श्रद्धा रखना ही सम्यग् दर्शन है। किसी प्राचार्य ने स्वभाव और पर के विवेक को सम्यग् दर्शन बताया है ।
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दर्शन योग
[ ५७
प्रतिक्रमण-पावश्यक सूत्र में कहा है:'प्ररिहन्ती महदेवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुयो। जिणपण्णत्तं तत्तं इय सम्मतं मए गहियं ।।'
अरिहन्त मेरे देव हैं सु-साधु मेरे गुरु हैं और जिनेन्द्रों द्वारा प्रतिपादित तत्त्व मेरा धर्म है, ऐसे देव-गुरु-धर्म से युक्त जो सम्यक्त्व है, उसे मैंने जीवनपर्यत के लिये ग्रहण किया है।
____ कुछ प्राचार्यों ने प्रात्मा की सत्ता को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करने को सम्यग्दर्शन कहा है। इस प्रकार व्याख्या अलग अलग होने पर भी सबका लक्ष्य एक है और वह है जड़ से भिन्न चेतन की अनुभूति होना। वस्तुत: जिसने अात्मा और अनात्मा के भेद को जान लिया है, वही सच्चा सम्यक्त्वी है । सम्यग्दर्शन के प्राप्त होने पर व्यक्ति को पाप से भय और परमात्मा से प्रीति हो जाती है। वस्तु का जैसा स्वरूप हो, उसे वैसा ही समझना और मानना सम्यग्दर्शन है ।
अकबर ने बीरबल से कहा, "मैंने एक स्वप्न देखा।" बीरबल-"कैसा स्वप्न जहांपनाह ?"
अकबर-"हम दोनों जंगल में घूमने निकले। वहां पर दो कुण्ड थे, एक अमृत से भरा और दूसरा विष्टा से भरा हुअा था। हम दोनों उनमें झाँकने लगे, तभी मैं अमृत के कुण्ड में गिर पड़ा और तुम विष्टा के कुण्ड में गिर गये।"
सुनकर सभी सभासद हँसने लगे। तभी बीरबल बोल उठा, "हुजूर मैंने भी कुछ ऐसा ही स्वप्न देखा था, पर मैंने इसके आगे भी कुछ देखा है।
अकबर-"तुमने क्या देखा ?'
बीरबल- 'मैंने देखा कि मैं आपको चाट रहा था और आप मुझे चाट रहे थे।"
सम्यगदर्शनी का जीवन बीरबल के जैसा होता है, जो संसार का विषयुक्त (मिथ्यात्वपूर्ण) वातावरण में रहकर भी सम्यक्त्वरूपी अमृतरस का पान करता है और मिथ्यादर्शनी का जीवन बादशाह के जैसा होता
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दर्शन योग
है, जो अमृत के समान उच्च जाति एवं कुल में उत्पन्न होकर भी मिथ्यात्व की गंदगी को चाटता है।
सम्यग्दर्शनी के लिये योगबिन्दु में कहा है:'मोक्ष चित्तं तदुर्भवे ।'
सम्यग्दर्शनी का शरीर संसार में रहने पर भी उसका मन सदा मोक्ष में लगा रहता है। सम्यग्दर्शन के विषय में और भी कहा है:
'शुद्ध देव गुरु धर्म, परीक्षा सद्दहंणा परिणाम। जेह पामीजे तेह नमीजे, सम्यग्दर्शन नामरे ।।' भ. सि. पद वंदो०
परीक्षापूर्वक सुदेव गुरु धर्म को श्रद्धा के परिणाम को सम्यग्दर्शन कहते हैं। उसे हम सभी नमस्कार करते हैं ।
सम्यग्दर्शन क्या है ? यह एक प्रकार की रुचि है, प्यास है, भूख है । किसी वस्तु को आपने देख लो, वह आपके मन को अच्छा लगी। पापको बार-बार यह इच्छा होती है कि इस वस्तु को कैसे प्राप्त करें ? यही सम्यग्दर्शन है । यह आत्मा का गुण होने से प्रात्मा में ही रहता है। सम्यग्दर्शन बाहर से नहीं पाता । लाख या करोड़ मोहर से भी बाजार में नहीं मिलता । जिस दुकान में देव-दुर्लभ वस्तुएँ मिलती हो, वहां भो सम्यग्दर्शन नहीं मिल सकता।
सम्यक्त्वो के लिये शास्त्र में कहा है:'सम्यग्दर्शन पुनात्मा रगते न भवोदधौ । सम्मत्त दसी न करेइ पाप ।।'
सम्यक्त्वधारी आत्मा इस संसार में नहीं भटकता। वह पाप-कार्य नहीं करता । सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन किसी संप्रदाय के नाम नहीं है । ऐसा कोई पंथ नहीं कहता कि अमुक व्यक्ति को मान लो तो सम्यग्दर्शन और नहीं मानो ता मिथ्यादर्शन । हमारे शरीर में एक प्रकाशमय तत्त्व है कि यदि आप उस तत्त्व की साधना करें तो ग्राप उच्च से उच्चतम भूमि को प्राप्त कर सकते हैं. यहां तक कि आप परमात्मा भी बन सकते हैं। विश्व में जितने भी महात्मा बने हैं वे सम्यग्दर्शन से ही बने हैं। कब और कैसे बने ? अपनी प्रात्मा का विकास करते हुए बने हैं।
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[ ५६
सम्वत्वधारी ग्रात्मा को दो बड़े लाभ मिलते हैं । १. दुख में प्रदीनला और २. सुख में अलीनता । दुःख से घबराता नहीं तो सुख से प्रसन्न भी नहीं होता । समुद्र में नदियों का पानी ग्राकर गिरे और वह भर जाय तो भी बाहर नहीं छलकता और नदियों के न गिरने से भी सूखता नहीं । सम्यग्दर्शनी का जीव सागर की तरह गंभीर सभी परिस्थितियों में समान रहता है ।
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ग्राम का एक सघन वृक्ष था। एक बंदर उस पर कूदा । उसके हाथ में ग्राम की डाली आ गई । वह उस पर बैठकर प्राराम से पके हुए आम तोड़ तोड़कर खाने लगा। दूसरे बंदर ने भी छलांग लगाई पर उसके हाथ नीचे की छोटी डालो आई जिससे ग्राम भी छोटे छोटे मिले। एक तीसरा बंदर जो सामने ही मदारी के घर खूंटे से बँधा था, इन दोनों बंदरों को श्राम खाते देखकर रोने लगा, क्योंकि वह लाचार था, उसका जीवन पराधीन था ।
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सम्यग्दर्शी जीवात्मा को भोग सामग्री पर राग हो जाता है, किंतु उस राग पर भी तो राग नहीं होता। ग्राम प्रापको अवश्य अच्छा लगेगा, पर आम के प्रति प्रासक्ति तो अच्छी नहीं लगनी चाहिये । जिस व्यक्ति को ग्राम के राग पर राग नहीं है उसको आम का त्याग करते देर नहीं लगती इस संसार में भोग- सामग्री के प्रति राग तो हो जाता है, वह इतना भयंकर नहीं, किंतु उस राग के प्रति जो आसक्ति है, वह बहुत ही
खतरनाक
मृत्यु से नहीं डरता किंतु जन्म से डरता है, ऐसा कौन होगा ? संसार में मृत्यु से डरने वाले तो बहुत मिलेंगे, पर जन्म से डरने वाला तो कोई विरला ही मिलेगा । जन्म से डरने वाले से यदि आप पूछेंगे कि तुम कौन हो ? तो वह कहेगा मैं सम्यग्दर्शी प्रात्मा हूँ । मृत्यु से डरने वाला तो मिथ्यादृष्टि जीवात्मा है, किंतु जन्म से डरने वाला सम्यग्दर्शी जीवात्मा है वास्तव में तो जो मृत्यु से डरते हैं, उन्हें भी जन्म से डरना ही चाहिये, क्योंकि मृत्यु को लाने वाला जन्म ही है ।
हम जब बिजली के बटन को चालू कर के कमरे को प्रकाशित कर सकते हैं, तो उसी बटन को बंद कर के अंधेरा भी तो कर सकते हैं । इसी प्रकार मृत्यु और जन्म को हम ला भी सकते हैं और उसे रोक भी सकते हैं ।
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दर्शन योग
जन्म के बाद मृत्यु का आना तो निश्चित ही है । मोक्ष प्राप्त करके ही हम जन्म-मरण के चक्कर से बच सकते हैं । इसीलिये सम्यग्दर्शी जन्म से डरता है । शास्त्र कहा है :
'दसरण मुक्को य होइ चल सक्कओो ।'
दर्शन रहित जीवन, प्रारण रहित मुर्दा जीवन है । सम्यग्दर्शन प्राध्यात्मिक साधना का प्रारण है। जैसे जीवरहित शरीर शिव नहीं शव कहलाता है, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित साधना भी निष्प्राण है ।
एक बार हनुमानजी ने विभीषण से पूछा "जब सीता का अपहरण करके रावरण उसे लंका में ले आया तब उस विषम वातावरण में भी प्राप लंका में कैसे रहे ?"
विभीषण ने कहा "हे हनुमान ! जिस प्रकार बत्तीस दाँतों के बीच अकेली जीभ रहती है, उसी प्रकार मैं भी रावण की लंका में राक्षसों के बीच अकेला रामभक्त सतर्कता पूर्वक रहा ।"
जैसे सोने को हजारों वर्षों तक जल में रखने पर भी उस पर जंग नहीं चढता वैसे ही सम्यग्दर्शी भो संसार में रहते हुए भी दाँतों के बीच जीभ और पानी में पड़े स्वर्ण के समान सतर्क रहते हैं। मिथ्यादर्शन ग्रात्मा का विकारी भाव है तो सम्यग्दर्शन आत्मा का श्रविकारी भाव है । मिथ्यादर्शन विष तुल्य तो सम्यग्दर्शन प्रमृततुल्य है । जिस प्रकार वैद्य विष खाकर भी नहीं मरता, उसी प्रकार सम्यग्दर्शी ग्रात्मा कर्मोदय से सुख दुःख का अनुभव करते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होता ।
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एक सेठ विदेश से धन लेकर अपने नगर में आरहा था । मार्ग में एक ठग मिल गया । ठग बोला, "सेठजी सावधान रहना, जंगल का मामला है ।" सेठ ने धन दिखा कर कहा कि "इतना धन मेरे पास है । रक्षक तो पुण्य है । "धन देखकर ठग के मुँह में पानी आगया । दोनों एक ही धर्मशाला में ठहरे । ठग सेठ को नींद आने की प्रतीक्षा कर रहा था । जैसे ही सेठ को नींद आई, ठग ने सेठ का सारा सामान और शरीर संभाल लिया, पर उसे धन नहीं मिला । तीन दिन तक लगातार ठग रात को इसी प्रकार सेठ को संभालता रहा, पर धन न मिलना था सो नहीं मिला । आखिर ठग ने हार मान ली और सेठ से पूछा, "मैं हार गया सेठ, अब तो
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दर्शन योग
बतादे धन कहाँ है ?" सेठ बोला, "रात को मैं अपना धन तुम्हारे सामान में रख देता हूं और सुबह वापस ले लेता हूं। मैं जानता हूं कि ठग दूसरों का सामान संभालता है, अपना नहीं।'
इसी प्रकार मिथ्यादर्शी पूदगलों में सुख को खोजता है, पर उसे सुख नहीं मिल पाता, वह विफल हो जाता है। किंतु सम्यग्दर्शी सेठ के समान अपनी पूजी को सुरक्षित रखता है, वह पुद्गलों में सुख को न खोज कर अपनी आत्मा में सुख को खोजता है। आस्मिकसुख को कोई ठग चुरा नहीं सकता है। इसलिये सेठ सफल होता है ।
'रुचिनिनोक्त तत्त्वेषु सम्यक श्रद्धानमुच्यते । जायते तन्निसर्गेण गुरोरधिगमेण वा ।।'
जिनेश्वर भगवान् द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त में रुचि ही सम्यक दर्शन है, इसी को सम्यक् श्रद्धा भी कहते हैं । यह स्वभाव से तथा गुरु के उपदेश से होती है ।
कई बार आपको भगवान् द्वारा कथित तत्त्वों पर श्रद्धा नहीं होती। भगवान् ने कहा पृथ्वी गोल नहीं है, यह सुनकर हमारे युवक बोल उठते हैं कि विज्ञान ने तो सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी गोल है । हम भगवान् की बात को कैसे सत्य मान लें भगवान् ने कहा कि चन्द्रमा पर देवता रहते हैं, किंतु युवकों को इस बात पर भी विश्वास नहीं होता क्योंकि मानव चन्द्रमा पर पहुंच चुका है और उसने वहाँ किसी प्राणी को नहीं पाया । भगवान् ने कहा कि व्यक्ति दुर्लभ मानव-जीवन लेकर इस संसार में प्राता है । विश्व में मानव बहुत कम हैं और आप कहते हैं कि मानव बढ़ते ही जा रहे हैं। भगवान् की वाणी पर भी श्रद्धा नहीं होती । क्या सचमुच मानव बढ़ रहे हैं ? नामधारी मनुष्य तो अवश्य बढ़ रहे हैं. पर वास्तविक मानव तो कहीं बढ़ नहीं रहे हैं ।
श्रद्धारहित ज्ञान निरर्थक है । १४ राजलोक में रहने वाले जीवों के दो विभाग करने में आये हैं-भव्य और अभव्य । इन दोनों में भव्य जीव ही सम्यग्दर्शन के अधिकारी हैं
__ चूल्हे पर तपेली में पानी डालकर मूग उबालने को रखे हैं। प्रायः सभी मूग पक जाते हैं, पर कुछ मूग ऐगे होते हैं जो नहीं पकते, उन्हें
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दर्शन योग
'कोरडू' या अपक्व मूग कहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन मूगों में पकने की योग्यता थी वे पक गये, किंतु जिन में योग्यता नहीं थी वे अपक्व रह गये । इसी प्रकार जिन आत्माओं में मोक्ष जाने की योग्यता होती है, वे ही मोक्ष जाती हैं और उन्हें भव्य कहा जाता है। जिस प्रकार तालाब और सड़क की मिट्टी समान होने पर भी तालाब की मिट्टी ही घड़ा बनाने के काम आती है, सड़क की मिट्टी से घड़ा नहीं बनता । भैंस और ऊंटनी का दूध रंग में समान होते हुए भी एक में दही बनने की शक्ति है. एक में नहीं । इसी प्रकार भव्य और अभव्य जीव समान होने पर भी एक में मोक्ष जाने की योग्यता है, एक में नहीं ।
प्रत्येक वस्तु में अपनी अपनी योग्यता स्वभाव से ही होती है और स्वभाव के विषय में यह प्रश्न नहीं उठाया जा सकता कि ऐसा क्यों होता है ? अग्नि गर्म क्यों है ? पानी ठंडा क्यों है ? दूध सफेद क्यों है ? धुपा ऊपर ही क्यों उठता है ? क्योंकि इनका यह स्वभाव ही है।
भव्य जीव भी दो प्रकार के होते हैं-भव्य और जातिभव्य । इनमें से जातिभव्य स्वयंभूरमरण समुद्रतल की मिट्टी के समान होते हैं, जिनमें सामग्री प्राप्ति का सामर्थ्य नहीं होता, अतः वे मोक्ष जाते नहीं, गये नहीं जायेंगे नहीं । आप कहेंगे कि भव्य जीव तो सभी मोक्ष में जायेंगे ही। हाँ, सभी मोक्ष जायेंगे, यह तो निश्चित है, किन्तु जिनकी भव-स्थिति परिपक्व हो गई है, वे ही मोक्ष जाते हैं। सभी भव्य जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता होने पर भी, कोई तीर्थ कर बन, कोई गणधर बन और कोई सामान्य केवली बन मोक्ष जाते हैं । योग्यता मात्र से वस्तु में फल प्रकट नहीं होता, उसके साथ अन्य सामग्री और पुरुषार्थ मिलने पर हो फन प्रकट होता है । मिट्टी में घड़ा बनने की योग्यता तो है, किंतु चाक नहीं, पुरुषार्थी कुम्हार नहीं, तो घड़ा बन सकता है क्या ? भविष्य में महान् बनने वाले छोटे बालक को भी यदि पढ़ने की सामग्री न मिले और वह पढ़ने का पुरुषार्थ ही न करे तो क्या उस में विद्वता का फल प्रकट होगा ? नहीं होगा । इसी प्रकार मात्र भन्यत्व से मोक्ष नहीं मिल सकता। भव्यत्व को परिपक्व करने के लिये मनुष्यत्व, जैनधर्म आदि पुरुषार्थ हो तभी भव्यत्व परिपक्व बनता है।
हम को कैसे ज्ञात हो कि हम भव्य हैं या अभव्य ? प्रात: उठते ही यदि हम विचार करें कि मैं भव्य हूं या अभव्य ? मैं आराधक हूं या
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दर्शन योग
[ ६३
विराधक ? यों जिसको अपने काव्यत्व के विषय में शंका हो वह अभव्य है।
"पापी अभव्य तजरे न देखे' सिद्ध गिरि की स्पर्शना द्वारा भव्यत्व निश्चित होता है ।
श्रद्धा के भी दो रूप होते हैं: --- (१) सम्यक् श्रद्धा और अन्धश्रद्धा । इन दोनों में जमीन आसमान का अन्तर है क्योंकि दोनों ही परस्पर विरोधी हैं । सम्यक् श्रद्धा में विनय गुण का समावेश होता है, जो गुरू द्वारा प्रदत्त ज्ञान को प्राप्त कराती है। अथश्रद्धा में अहंकार और जिद्द होती है, जो ज्ञान प्राप्ति में बाधक है । यह कर्मो के भार को बढ़ाती है । कहा भी है -
'अश्रद्धा परमं पाप, श्रद्धा, पाप विसोचनि । जहाति पापं श्रद्धावान् सर्पा जीवित्त्वचम् ।"
अश्रद्धा उत्कृष्ट पाप है और श्रद्धा पाप नाशक है । श्रद्धावान् व्यक्ति पाप को इस प्रकार छोड़ दते है, जैसे सर्प अपनी पुरानी केचुल का त्याग कर देता है । श्रद्धा, विश्वास और तपस्या जीवन के मुख्य निर्माणक हैं ।
अवंतिका नगर में विक्रमादित्य राजा का राज्य था। नगर के बाहर एक धर्मशाला थी, जिसमें जब कोई यात्री ठहरता था, भोजन करने के बाद जब वह सोता तो मर जाता । यह सुनकर विक्रमादित्य वेष बदल कर धर्मशाला में आया । मुर्दे को तो उसने कपड़े से ढ़क दिया और स्वयं नंगी तलवार लेकर छिपकर बैठ गया । धर्मशाला के एक कोने से धुपा निकला, फिर प्रकाश हुमा और एक भयंकर नाग प्रकट हुा । वह यात्रियों से पूछने लगा कि पात्र कौन ? एक ने कहा धर्म, दूसरे ने कहा रूप, तीसरे ने कहा कीति । सर्प ने सबको मार डाला । तब विक्रमादित्य प्रकट हुआ। विनय पूर्वक बोला, "श्रद्धा से पवित्र वना मन ही परम पात्र है।" सपं बहत प्रसन्न हुप्रा । विक्रमादित्य की विनती पर उसने सब मृत यात्रियों को पून: जीवित कर दिया।
दिल्ली का प्राचीन नाम इन्द्रपस्थभा, वहां अनंगपाल राजा राज्य करता था। एक दिन अनंगपाल की अध्यक्षता में ज्योतिषी ने नये किले की स्थापना के लिये जमीन में एक मत्रित कील गडवाई। वह कील शेषनाग के फरण पर लगी, अत: ज्योतिषी ने कहा कि यहाँ राज्य सुस्थिर होगा। होगा। पर राजा को ज्योतिषी की बात पर विश्वास नहीं हमा, अतः कील को वापस निकलवाया, देखा कील रक्त से सनी हुई थी, तब जाकर राजा
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को विश्वास हुआ । ज्योतिषी के प्राग्रह पर राजा ने उस कील को फिर से उसी स्थान पर गडवाई, किंतु इस बार कील मजबूत नहीं लगी। ज्योतिषी ने कहा कील ढोल लगी है, यहाँ किसी का राज्य स्थिर नहीं रहेगा । सब से इन्द्रप्रस्थ का नाम ढीली ही पड़ गया जो अपभ्रश में उच्चारण भेद से दिल्ली हो गया और वहाँ किसी का राज्य स्थिर नहीं रहा । अनेक राजा महाराजा, बादशाहों, अंग्रेजों मुगलों, कांग्रेस और जनता का राज्य दिल्ली पर रहा और आज तक शासन बदलता ही रहा है ।
एक प्राचार्य अपने शिष्यों को अनुयोग तप करवा रहे थे, बीच में ही स्वर्गवासी हो गये। प्राचार्य की प्रात्मा ने मूल शरीर में प्रविष्ट होकर योगोद्वहन को पूरा करवाया फिर प्रकट होकर सब बात बता दी। किंतु शिष्यों के मन में शंका पैदा हो गई और उन्होंने परस्पर वन्दन भी छोड़ दिया। राजा को जब यह बात मालूम हुई तो शिष्यों को ठिकाने लाने के लिये एक उपाय ढूढा । उसने शिष्यों से कहा, "आप साधु नहीं लगते, मुझे तो साधु के वेष में चोर लग रहे हैं, बताइये आप साधु हैं या चोर ?" शिष्यों ने अपने बचाव के लिये प्राचार्यकृत योगोद्वहन को स्वीकार किया और पुन: स्थिर हो गये ।
राष्ट्रगीत वन्देमातरम् के रचयिता बकिमचंद्र चटर्जी उस समय के क्रांतिकारी पुरुष थे। उन्होंने सन् १८८२ में प्रानन्दमठ नामक क्रांतिकारी पुस्तक लिखी थी जिसने अंग्रेजी शासन में खलबली मचा दी थी। वे सारी जिन्दगी अंग्रेजों से लड़ते रहे । वे सत्य के उपासक थे। उन्होंने २७ ग्रन्थ लिखे जिनमें कृष्ण चरित्र श्रद्धा और भक्ति से पूर्ण था । मरने से ३-४ वर्ष पूर्व खूब बीमार पड़े, दाँत में से खून बहने लगा, एक समय में एक पाव खून बह जाता । डाक्टर ने कहा बोलना, स्वाध्याय, गीतापाठ बन्द कर देना चाहिये । किंतु उनकी गीता के प्रति इतनी श्रद्धा थी कि उन्होंने स्वाध्याय और गीता पाठ चालू रखा, फिर भी रोग समूल नष्ट हो गया और वे भले चंगे हो गये ।
__ योग तीन हैं:- १. ज्ञान योग २. दर्शन योग और ३. चरित्र योग । अाज दर्शन योग पर विवेचन चल रहा है । सम्यग्दर्शन की महिमा अपूर्व है, इसकी शक्ति प्रचित्य है । चौदह पूर्वधर भद्रबाहु स्वामी ने "उवसग्गहरं पार्श्व जिन स्तवन" में कहा है कि "हे भगवन् ! चिंतामणि रत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक आपके सम्यग्दर्शन रत्न की प्राप्ति से जीवात्मा
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दशन योग
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निविध्न अजरामर स्थान की प्राप्ति करता है. अतः आप सभी सम्यग्दर्शन नामक अमृत जल का पान करें।"
गणित को जानने वाले जानते होंगे कि अंक रहित शून्य का कोई महत्व नहीं है, जबकि अंक के साथ लगे एक शून्य का दस गुणा महत्व बढ़ जाता है । मात्र सात शून्य हो तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं है, पर एक के अंक के सामने सात शून्य लगे हों तो एक करोड़ का मूल्य हो जाता है । यही बात आध्यात्मिक क्षेत्र में भी है। शून्य के स्थान पर ज्ञान और चारित्र है और अंक के स्थान पर सम्यग्दर्शन है ।
प्रश्न उठता है कि कौन-सा जीव अजरामर स्थान की प्राप्ति करता है ? उत्तर में शास्त्र कहता है:
'सद्दमाणो जीवो वच्चइ अयरामर ढाणं ।' श्रद्धायुक्त जीव अजरामर स्थान को प्राप्त करता है।
फिर प्रश्न उठता है कि जब मोक्ष-प्राप्ति में अनन्तरण कारण चारित्र को माना गया है, तब सम्यक् दर्शन-श्रद्धा वाला जीव मोक्ष कैसे प्राप्त करता है ? उत्तर यह है कि चारित्र के मूल में ज्ञान रहा हुया है और ज्ञान के मूल में श्रद्धा रही हुई है। वास्तव में श्रद्धा वाला ही मोक्ष जाता है ।
जैसे धन की प्राप्ति से धनवान और विद्या की प्राप्ति से विद्वान् बन जाता है, वैसे ही श्रद्धा की प्राप्ति से श्रद्धावान् बन जाता है। यदि दर्शन शब्द का शाब्दिक अर्थ लें तो इसका अर्थ है देखना। किंतु देखने देखने में भी भेद होता है । एक व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से देखता है तो दूसरा किसी दूसरे ही दृष्टिकोण से देखता है।
वैद्य ने रोगी से कहा कि अधिक भोजन नहीं करना चाहिये, यह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। रोगी हट्टा-कट्टा था, बोला, "तो क्या भूखे मरना चाहिये ? भोजन नहीं करना चाहिये ?" वैद्य ने समझाया, "प्राप मंदाग्नि के मरीज हैं, इसीलिये अधिक भोजन न करने को कहा है, पाप तो नाहक नाराज होते हैं।" बताइये रोगी नाराज क्यों हुप्रा ? वैद्य के दृष्टिकोण को ठीक न समझने के कारण । परन्तु वैद्य के दृष्टिकोण को समझने के बाद वह शांत हो गया ।
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वस्तुत: यहां दर्शन का अभिप्राय है वस्तु लत्त्व को विशेष अभिप्राय से, विशेष दृष्टिकोण से तथा सर्वांगीण दृष्टि से देखना । दर्शन को सम्यग् दर्शन तब ही कहा जाता है, जब उसमें श्रद्धा का अंश प्रविष्ट हो। श्रद्धा तभी होती है जब उस वस्तु को सभी प्रकार से देख समझ कर उसकी सहो स्थिति पर विश्वास हो जाय कि वस्तु तत्त्व अचित्त है, सचित्त है या मिश्र है । भूतकाल में क्या था, वर्तमान में क्या है, भविष्य में क्या होगा ? सम्यक् का अर्थ है भली प्रकार से सही स्थिति का ज्ञान । तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है :
'तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन ।'
... तत्त्वों की सच्ची श्रद्धा उन पर दृढ विश्वास ही दर्शन है। जितने भी माध्यात्मिक सुख हैं उनका मूल कारण सम्यक्त्व है। ज्ञान और चारित्र का मूल भी सम्यक्त्व है । यदि सम्यक्त्व न हो तो ज्ञान प्रोर चारित्र मिथ्या है। सम्यक् दृष्टि से जो कुछ भी पाच रग करता है, वह निरा का हेतु है । सम्यक्त्व की इतनी महिमा है कि इसे साधुत्व से भी श्रेष्ठ माना गया है, क्यों ? उत्तर में कहा गया है:
'सम परिणामी संत का, कहां लौ करू बखान । अन्य मती शुभ गुण धरे वो भी नीका मान ।।'
सम्यक्त्वधारी माधुयों और श्रावकों की कहाँ तक प्रशंसा करू ? यदि अन्य तीर्थों और अन्य वेषधारी भी सम्यक्त्वयुक्त हों तो वे भी पूज्य हैं । वेष मुख्य नहीं, सम्यग्दर्शन मुख्य है । और भी कहा है :
'कोटि वर्ष ताप तपें, ज्ञान बिन कर्म झरे ते । ज्ञानि के छिन मांहि, त्रिगुप्ति तै सहज टरै रे ।।'
सत्तर लाख करोड़ और छप्पन लाख करोड़ वर्षों को पूर्व कहते हैं । ऐसे करोड़ पूर्व तक तपस्या करके अज्ञानी मिथ्याष्टि जीव जितने कर्मों की निर्जरा करता है, उतने कर्मों को निर्जरा ज्ञाना सम्यक्त्वी क्षण मात्र में कर लेता है । भक्त अपनी भावना प्रकट करते हुए कहता है:
'पुद्गलमय सुख का अभिलाषी, विधि पूर्वक समकित नहीं चाखी। लही तद पियतने नहीं राखी, साप्रत नो पिण प्रभु तू साखी ।।'
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मैं अभी तक पुद्गल और भौतिक सुखों की इच्छा की है । सम्यक्त्व रूपी आत्मरस का स्वाद नहीं चखा है। कौन व्यक्ति सम्यक्त्व है प्रोर कौन नहीं, इसे कैसे पहिचाना जाय ? अन्य व्यक्तियों की बात छोड़ दें, याप स्वयं भी सम्यक्त्व हैं या नहीं, इसे कैसे जानेंगे ?
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योगशास्त्र में शास्त्रकार ने सम्यक्त्व के पांच लक्षण बताये हैं: सम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्था । जिस व्यक्ति में ये लक्षण हों उसे सम्यक्त्व समझ लीजिये । सम्यक्त्वों के व्यवहार में ये लक्षण स्पष्ट दिखाई. देते हैं । अब इन लक्षणों को भो सक्षेप में समझ लेना चाहिये ।
ज्ञान आत्मा को प्रकाशित करता है, तप श्रात्मशुद्धि करता है और गुप्तिद्वार को बंध करने वाला संयम है । इन तीनों के मिश्रण से मोक्ष होता है । मोक्ष प्रर्थात् आत्मा का स्वयं में निवास करना । अभी हम शरीर में रहते हैं, पर एक दिन इसे छोड़कर जाना ही पड़ेगा । आत्म-गृह स्थायी निवास स्थान है । प्रात्म- गृह में रहने के लिये पहले उसे ज्ञान से प्रकाशित करना चाहिये। फिर कर्म और पाप के कचरे को तप रूपी भा से साफ करना चाहिये | फिर संयम से उसके ग्राश्रत्रद्वार की खिड़कियें बन्द करनी चाहिये, ताकि नया कचरा न आ सके ।
सबसे प्रथम ज्ञान द्वारा आत्मा को प्रकाशित करना है जो विश्व दर्शन, श्रात्मदर्शन या परमात्वदर्शन से ही हो सकता है । दर्शन अर्थात् देखना या किसी भी वस्तु या सिद्धांत का परिचय । दर्शन दो प्रकार का है: - ( १ ) सम्यग्दर्शन और (२) मिथ्यादर्शन |
गृहस्थ के १२ व्रतों के विषय में शास्त्रकार कहते है:'सम्यक्त्वमूलानि पंचाणुव्रतानि गुरणास्त्रयः । शिक्षापदानि चत्वारि व्रतानि गृहमेविनाम् ॥'
सम्यक्त्व-युक्त पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ये बारह गृहस्थ धर्म के व्रत हैं । अब सम्यक्त्व के विषय में कहते हैं:
'या देवे देवताबुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिदमुच्यते । '
जो बुद्धि सु-देव को देव, सु-गुरु को गुरु और सच्चे धर्मं को घम माने वह सम्यक्त्व है । ज्ञानरूपी वृक्ष का मूल सम्यक्त है । जैसे बिना
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दर्शन योग
मूल के वृक्ष नहीं हो सकता, वैसे ही बिना सम्यक्त्व के ज्ञान नहीं हो सकता । सम्यक्त्व किसे कहा जाय इसको जानने के लिये पहले इसके विरोधी मिथ्यात्व को पहिचानना आवश्यक है । 'यहां प्रमुक व्यक्ति नहीं है' इस कथा को समझने के लिये पहले यह जानना जरूरी होगा कि 'अमुक व्यक्ति कौन था ? उसका परिचय क्या था ?' इसी प्रकार मिथ्यात्व को पहले समझना चाहिये, क्योंकि किसी भी वस्तु की यदि दोनों बाजूओं को बराबर नहीं समझेंगे तो परिणाम उल्टा श्रायेगा ।
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एक सेठ की बूढ़ी माँ थी, एक बार वह बीमार पड़ गई, उसके मुँह से बार-बार थूक निकलता, जिससे मक्खियें उसके मुँह पर भिनभिनाती । सेठ ने मक्खियें उड़ाने के लिये एक नौकर रखा और उसे कहा कि "माँजी के शरीर पर मक्खी न बैठे, इसकी सावधानी रखना ।" नौकर मक्खियें उड़ाते उड़ाते थक गया तो हाथ में एक लाठी लेकर मक्खियों को धमकाने लगा, "देखो, इस बार तो उड़ा देता हूं, पर अगली बार आई तो तुम्हें जिन्दा नहीं छोडूंगा ।" मक्खियें कहाँ मानने वाली थी, वे तो आई और माँजी के मुँह पर बैठ गई । नौकर ने आव देखा न ताव, मक्खियों को मारने के लिये हाथ की लाठी माँजी के सिर पर मार दी। मक्खियें तो एक भी न मरी, सब उड़ गई, किंतु मांजी के प्रारण पखेरू उड़ गये क्योंकि लाठा की चोट से माँजी का सिर फट गया। सेठ ने मक्खियों के त्रास से माँजी को बचाने को कहा था, पर नौकर सेठ की बात को और मक्खियों के स्वभाव को न समझने के कारण, परिणाम उल्टा प्राया ।
अब आप सम्यक्त्व स्वरूप सुन लें, पर उसका चितन मनन करने और उसे जीवन में उतारने के समय यदि आप भी मक्खी उड़ाने वाले नौकर जैसे बन गये तो लेने के देने पड़ जायेंगे, अतः पहले उसके विरोधी मिथ्यात्व को भी समझ लेना चाहिये, जिससे कि सम्यक्त्व का सही स्वरूप आपके सामने या सके। इसीलिये योगशास्त्र में भी मिथ्यात्व की बात कही गई है ।
जो व्यक्ति आँख से देखकर नहीं चलता, वह ठोकर खा सकता है, नीचे गिर सकता है । कौनसी वस्तु किस की है इसका पूरा ध्यान न होने से भूल से वस्तु बदल भी सकती है, जैसे कई बार व्याख्यान स्थल या मन्दिर में चप्पल जूते या छाते बदल जाते हैं । किंतु समझ आने के बाद या वस्तु का स्पर्श हो जाने के बाद दुबारा भूल नहीं कर सकता, जैसे प्रापने गलत जूता
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भूल से पहिन लिया है तो थोड़ा चलने पर आपको ज्ञात हो जायगा कि यह जूता प्रापका नहीं है। किंतु मिथ्यात्व तो गाढ़ अन्धकार से व्याप्त है, अत: भाव-अंध मिथ्यात्वी अपनी आदत को नहीं छोड़ सकता।
यह अट्ठारवाँ मिथ्यात्व-शल्य अंतिम पाप स्थानक है। मिथ्यात्व उत्पन्न होने के दो कारण हैं:-१) अज्ञान और (२) दुराग्रह । योगशास्त्र में दुराग्रह को अभिनिवेष के नाम से जाना जाता है। अभिनिवेष के तीन अर्थ होते हैं: -- (१) क्रूरता-दुष्टता, (२) उतावलापन-जल्दबाजी और (३) प्राग्रह-दुराग्रह । यदि किसी व्यक्ति को चांदी का सही ज्ञान न हो तो वह चमकती सीप को भी चांदी मान लेता है। इसी प्रकार यदि जीव को सही वस्तु का ज्ञान न हो तो वह अमद् वस्तु को ही सद् वस्तु मान लेता है। इसी का नाम मिथ्यात्व है।
इंग्लैंड में एक ऐसा विचार पक्ष है जो अपने को Agnostic या निष्ज्ञानवादी कहते हैं। उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु को प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध करो तभी हम उसके अस्तित्व को स्वीकार करेंगे । ऐसे लोगों को हम ज्ञान जिज्ञासु कह सकते हैं, परन्तु कई ऐसे दुराग्रही मनुष्य भी होते हैं, जो पकड़ी हुई बात को कभी नहीं छोड़ते । जैसे: --
तातस्यकूपोऽयं इति वाणा: क्षार जल कापुरुषा:पिबन्ति ।'
"यह मेरे बाप का कुना है, मैं तो इसो का पानी पीऊंगा।' ऐमा कहकर जो लोग मीठा जल मिलने पर भी, बाप के कूए का खारा जल पाते हैं, वे मूर्ख हैं. कायर हैं. उनमें विवेकशक्ति नहीं है। शरीर में जब तक बुखार का असर होता है, तब तक जीभ में कडुवापन रहता है, अाँख या सिर में स्थिरता नहीं होती। ठीक यही स्थिति मिथ्यात्वी की होती है, क्योंकि मिथ्यात्व को बुखार की उपमा दी गई है । जिसके असर से देव, गुरु, धर्म पर श्रद्धा नहीं रहती । कदाग्रह अपरिवर्तनीय होता है। वह दा प्रकार हैं:- १. चिकित्सकीय और २. अचिकित्सकीय । जा कदाग्रह जीवन भर न छूटे उसे अचिकित्सकीय कहते हैं ।
जमाली ने भगवान के पास दीक्षा ली, किन्तु मात्र एक बात को लेकर भगवान से इतने दूर हो गये, फिर भी अपनी बात नहीं छोड़ी। कदाग्रह अहकार का पाषण करता है, वह जीव को नम्र नहीं बनने देता । जमाली बीमार पड़ा, शिष्य को संथारा करने को कहा । संथारा प्राधा
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दर्शन योग
बिछाया गया, प्राधा बाकी था. तभी जमाली ने पूछा, "पूरा हो गया क्या? अभी आधा ही बिछा है फिर भी शिष्य कहता है "हां. हो गया।" अमुक नय से संथारा हो गया है । जमालो भगवान् के सभी सिद्धांतों को मानता था, पर इस सिद्धांत में तो वह अपने को ही सत्य समझता था।
' 'कडेमाणे कडे' निश्चय नय से होने वाले कार्य को भी हो गया है कहा जाता है कोई व्यक्ति बंबई जाने के लिये घर से रवाना हुआ, अभी तो वह स्टेशन पर टिकट ही खरीद रहा है, तभी उसके घर पर उससे मिलने कोई प्रा जाता है। पूछा, "कहाँ गये?'' तो उत्तर मिला, 'बंबई गये हैं।' वास्तव में तो वह व्यक्ति अभी इसो नगर के स्टेशन पर ही है, किंतु व्यवहार नय से 'बंबई गया है' कहा जाना है। जमाली का अचिकित्सकीय कदाग्रह था इसलिये उसने अपनी बात मरते दम तक भी नहीं छोड़ी।
__ जमाली की ही तरह भगवान् की पुत्री प्रियदर्शना भी दीक्षित हुई । उसने भी जमाली का कदाग्रह पकड़ा । श्रावक ने साध्वीजी को बहत समझाया, पर वह नहीं मानी। तब एक कुम्हार श्रावक ने साध्वी की साड़ी पर अंगारा रख दिया। साध्वी चिल्लाई, "मेरा कपड़ा जल गया।" श्रावक बोला, "कपड़ा कहाँ जल गया ? अभी तो उसका एक अंश जला है, जब पूरा जल जाय तब कहना ।" साध्वी मान गई, उसने प्रायश्चित्त लेकर कदाग्रह का त्याग किया, भगवान् वोर की प्राज्ञा को शिरोधार्य किया। उसका यह कदाग्रह चिकित्सकीय था ।
अविरति को जन्म देने वाला अज्ञान है और प्रज्ञान को जन्म देने वाला मिथ्यात्व है । संसार को नव पल्लवित रखने वाला यदि कोई है तो वह अविरति का कारण मिथ्यात्व है। जब तक मिथ्यात्व न हटे, तब तक अज्ञान न घटे । जब तक अज्ञान न घटे, तब तक अविरति-बाह्यरमण न हटे । पांच महाव्रतों का पालन, नव पूर्व तक का अभ्यास और जप, तप, व्रत, प्रत्याख्यान प्रादि बाह्य साधनों का सुन्दर रीति से पालन करते हुए भी मिथ्यात्व के योग से इन आत्माओं को द्रव्य-विरति (द्रव्य चारित्र वाले) ही कहा गया है- ___ 'अट्ठविह कम्म रुक्खा सब्वे ते मोहविज्ज मूलागा।'
आठ प्रकार के कर्मवृक्षों का मूल मिथ्यात्व मोहनीय ही है। मिथ्यात्व हट जाय तो प्रात्मा को मोक्ष होने में अधिक से अधिक पुद्गल परावर्तन से ज्यादा समय नहीं लगेगा।
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दर्शन योग
आपने सुना होगा कि मनुष्य हिमालय पर्वत की सर्वोच्च चोटो एवरेस्ट पर चढ़ गया। पर्वत पर चढ़ना जैसे अत्यंत कठिन है वैसे ही गुणस्थानक पर चढ़ना भी अत्यंत कठिन कार्य है। साहसिक और धैर्यवान प्रात्मा ही गुणस्थानक पर चढ़ सकती है । गुरगस्थानक न तो कोई पर्वत ही है, न कोई भौगोलिक वस्तु ही, परन्तु यह प्रात्मा से संबंधित वस्तु है। व्यापार का जैसे अर्थशास्त्र के साथ प्रगाढ संबंध है, आयुर्वेद का जैसे औषधि के साथ अभिन्न संबंध है, उसी प्रकार गुणस्थानक का कर्म के विषय के साथ प्रगाढ संबंध है ।
जैसे पाप के स्थान को पापस्थान या पापस्थानक कहते हैं, वैसे ही गुण के स्थान को गुणस्थान या गुणस्थानक कहते हैं। प्राकृत या अर्धमागधी भाषा में 'गुरगठाण' शब्द है। अपभ्रश भाषा में 'गुराग ठा-' कहते हैं। गुरगठाणु, गुणस्थान या गुणस्थानक पर्यायवाची शब्द हैं । प्रात्मा के गुण ज्ञान, दर्शन, चारित्र उनका स्थान अर्थात् अवस्था । जिसमें आत्मा के गुणों की विविध अवस्था या भिन्न भिन्न भूमिका दिखाई गई हो, उसे गुणस्थानक कहते हैं। तात्त्विक दृष्टि से देखा जाय तो प्रात्मा के विकास का असंख्य अवस्थायें होती हैं, तब गुरणस्थान भी असंख्य होने चाहिये, किंतु इस प्रकार प्रात्मा के विकास को समझना कठिन हो जायगा । इसीलिये शास्त्रकारों ने इनका वर्गीकरण करके १४ विभाग किये हैं । इनको चौदह गुरणस्थानक कहते हैं। ७ वाँ, ८ वां या १० वां गुरणस्थानक तो आपने सुना होगा, किंतु २० वां, २५ वां या ३० वां गुणस्थानक अापने कभी सुना है ? जैसे बार सात होते हैं, पाठवां वार नहीं होता. तिथि १५ होती है १६ वी तिथि नहीं होती, बैंसे ही रणस्थानक कभी १४ ही होते हैं । वे १४ गुगास्थान कौन कौन से हैं ? शास्त्र में कहा है
"मिच्छे सासण मीसे अविरय देसे पमत्त अपमत्ते । ८ ९
१० ११ १२ १३ १४ निअट्टि अनिअट्टि सुहूमुवसम खीणे जोगि अजोगि गुणाः ।।'
(१) मिच्छे = मिथ्यात्व गुणस्थानक, (२) सासरण = सास्वादन सम्यग् दृष्टि गुणस्थानक, (३) मिसे = मिश्र सम्यग् मिथ्या दृष्टि गुणस्थानक, (४) अविरय = अविरति सम्यग् दृष्टि गुणस्थानक, (५) देसे = देस विरति गुणस्थानक, (६) पमत्त = प्रमत्त सयत गुगास्थान
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७२ ]
दर्शन योग
(७) अपमत्ते -- अप्रमत्त सयत गुणस्थान, (८) निअट्टि = निवृत्ति बादर गुणस्थान, (६) अनिअट्टि - अनिवृत्ति बादर गुरगस्थान, (१०) सूहुम= सूक्ष्म संपराय गुणस्थानक, (११) उवसम = उपशांत मोहनीय गुरणस्थानक, (१२) वीणे = क्षीण मोहनीय गुरणस्थानक, (१३) जोगि-सयोगी केवली गुणस्थानक और (१४) अजो ग = अयोगी वे वली गुरणस्थानक ।
जो संख्या दो से बड़ी हो उस में प्रादि, मध्य और अन्त होता है । इस दृष्टि से प्रथम गुणस्थानक प्रादि है, २ मे १३ नक मध्य है और १४ वां गुणस्थानक अंतिम है । क्रम दो प्रकार का होता है एक उन्नत और दूसरा अवनत । रात, दिन, सप्ताह, पक्ष, माह, ऋतु, वर्ष यह उन्नत क्रम है, इसमें कोल उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। ब्रह्मांड, विश्व, देश, प्रांत, जिला तहसील, गांव यह अवनत क्रम है, इस में उत्तरोत्तर क्षेत्रफल कम होता है। गुरणस्थानक का क्रम उन्नत क्रम है, क्योंकि उनमें प्रात्मा की विकसित अवस्थाएं बताई जाती हैं।
मिथ्यात्व में स्थित प्रात्मा की अवस्था विशेष को मिथ्यात्व गुरणस्थान कहा जाता है। मिथ्यात्व शब्द से व्यक्त मिथ्यात्व समझना चाहिये। इस गुणस्थानवी जीव राग द्वेष के गाढे परिणाम वाले होते हैं । भौतिक सुख में ही संतुष्ट रहते हैं। उनकी सभी प्रवृत्तियों का लक्ष्य सांसारिक सुख का उपभोग तथा उससे संबंधित साधनों का संग्रह करना होता है । उनको मोक्ष की बात अच्छी नहीं लगती। मोक्ष के साधनों के प्रति उसे घृणा. तिरस्कार और अनादर होता है ।
आप पूछेगे कि जहाँ मिथ्यात्व अर्थात् श्रद्धा के विपरीत आचरण होता है वहाँ गुणस्थान कैसे हो सकता है ? यह बात सत्य है कि व्यक्त मिथ्यात्वी को श्रद्धा से विपरीतपन होता है, फिर भी उनमें प्रात्मा के ज्ञान आदि गुणों का अमुक अंश में अस्तित्व होता है, इसीलिये इसे गुरणस्थान कहा गया है। क ख ग सीखने वाले बालक में विद्या के कौन से गुरण होते हैं ? फिर भी उसे विद्यार्थी तो कहा जाता है न ? अागम में कहा है कि सभी जीवों को प्रक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान का अंश तो निरंतर खुला ही रहता है। यदि ज्ञान का यह सूक्ष्मतम अंश भी ढ़क जाय तो फिर जीव अजीव बन जायगा ।
मिथ्यात्व पाँच प्रकार के हैं आभिग्रहिक, अनभिग्राहक,अभिनिवेशिक
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सांशयिक और अनाभौगिक । मिथ्यादर्शन की पकड़ को रखने वाला, पौद्गलिक सुखों में प्रानंद मानने वाला जीव अभिग्रहिक मिध्यात्वी होता है | जो यह कहे कि सभी धर्म अच्छे हैं, सभी दर्शन अच्छे हैं, वह अनभिग्रहिक मिथ्यात्वी है। जिसको तत्त्व के सूक्ष्म या प्रतिन्द्रिय विषय में संशय हो और उस संशय को दूर करने के लिये सद्गुरु की संगति करने की इच्छा भी न हो, उसे सांशयिक मिथ्यात्वी कहते हैं । सूक्ष्म और बादर निगोद, वेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरेन्द्रिय, अंसज्ञी मनुष्य, तिर्यच, सज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य, जिन्होंने एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त न किया हो, ऐसे जीवों को अनाभौगिक मिथ्यात्व होता है ।
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संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों ने यदि एक बार भी सम्यग्दर्शन प्राप्त किया हो किंतु फिर से मिथ्यात्वी हो गया हो तो उसे अनाभौगिक के अतिरिक्त चार में से कोई भी एक मिथ्यात्व होता है ।
संयम - सदाचाररूपी स्वर्ण मुकुट भौतिक अर्थात् द्रव्य कंचन - किरीट से भिन्न है । भौतिक स्वर्ण मुकुट नाशवान् है, क्षणिक है । संयमरूपी स्वर्ण मुकुट शाश्वत है |
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काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व तीन प्रकार का है - ( १ ) अनादि ग्रनन्त, (२) अनादि सांत और (३) सादि सांत । प्रभव्य श्रात्मा को मिथ्यात्व अनादि काल से है, वह कभी दूर होने वाला भी नहीं है, अतः उसे अनादि अनन्त कहते हैं । जाति भव्य के प्रतिरिक्त भव्य प्रात्मा को अनादि काल से मिथ्यात्व होता है, परंतु उसका अंत श्राता है, अतः उसे अनादि सांत कहते हैं । जो भव्य सम्यक्त्व को छोड़ कर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए हैं, उनके मिथ्यात्व का अंत श्राने वाला है, अतः उनका मिथ्यात्व सादिसांत कहा जाता है ।
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योग शब्द की व्याख्या करते हुए हेमचन्द्र सूरि म.सा. कहते हैं कि ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही योग है। तत्त्वार्थ सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि
'सम्यग्दर्शनजानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।' सम्यग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र मिलकर मोक्ष मार्ग है । सर्व प्रथम यह समझना आवश्यक है कि ज्ञान क्या है ? योग शास्त्रकार ज्ञान की परिभाषा इस प्रकार करते है
'यथावस्थित तत्त्वानां संक्षेपाद् विस्तरेण वा। योऽवबोधस्तमत्राहुः सम्यक् ज्ञानं मनीषिणः ।।'
तत्त्व ज्ञान क्या है ? जो वस्तु जैसी है उसे वैसी ही जानना । चाहे संक्षेप में जाने या विस्तार में, किंतु जो जैसा है उसे वैसा ही जानने को सम्यक् ज्ञान कहते हैं । वर्तमान काल में व्यक्ति ज्ञान की परिभाषा तो कर लेता है, किंतु सम्यक् ज्ञान के द्वारा व्यक्ति को क्या प्राप्त होता है, यह समझने का प्रयत्न नहीं करता।
गीता के सार स्वरूप कृष्ण ने कहा कि सारे संसार में ज्ञान के समान पवित्र कोई नहीं है । सब से पवित्र सम्यक् ज्ञान है । कहा भो है -
'ज्ञानेनहीना: पशुभि: समानाः ।। ज्ञान रहित मनुष्य पशु के समान है । वाट इज नॉलेज (what is knowledge ?) ज्ञान क्या है ? नॉलेज इज लाइट (knowledge is light) ज्ञान एक प्रकाश है । वाट इज नॉलेज ? नॉलेज इज पावर = ज्ञान एक शक्ति है ।
वाट इज नॉलेज ? नॉलेज इज दा बेस्ट वरच्यु = ज्ञान सर्वोत्तम गुरण है । शास्त्रकार कहते हैं
'ज्ञानस्य परा संवित्ति चारित्रः ।' पहले ज्ञान, फिर चारित्र । अाप पूछेगे कि ज्ञान के पहले सम्यक शब्द क्यो लगाया गया है ? जिस प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और
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ज्ञान योग
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अवधिज्ञपन हैं. उसी प्रकार उनके प्रतिपक्षी मतिप्रज्ञान, श्रतअज्ञान और विभंग ज्ञान भी हैं, ये तीनों ज्ञान चाहे जितने विशाल क्यों न हों, फिर भी अज्ञान ही माने गये हैं।
ज्ञानं श्रेष्ठ गुणो जीवे मोक्ष मार्ग प्रवर्तकः । भव्याधुत्तारणे पोतः शृगार सिद्धि सद्भनः ।।
जीव का मुख्य गुण यदि कोई है तो वह ज्ञान ही है। दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व आदि गुण भी जीव के हैं, किंतु ज्ञान उसका मुख्य गुण है। जैसे स्वर्ण में जड़ता, नरमाइ और पीलापन है, वही पीतल मे भी है । किंतु स्वर्ण में कष् गुण श्रेष्ठ है। इसी प्रकार जोव में ज्ञान गुरण श्रेष्ठ है ।
ससार में जन्म लेने वाले सभी जीते है, किंतु अज्ञानी पुद्गल प्रधान बनकर जीता और ज्ञानी प्रात्मप्रधान बनकर जीता है । अज्ञानी दो पैसे के लिये भयंकर कषायी बन जाता है, जबकि ज्ञानी समता रखता है । अज्ञानी का जीवन विष्टा भक्षण करते सूअर जैसा है, जबकि ज्ञानी का जीवन मानसरोवर में मोती चुगते हंस जैसा है।
उपयोग जीव का लक्षण है अर्थात् आत्मा की पहिचान ही चेतना है । सिद्ध हो या ससारी ज्ञानोपयोग प्रात्मा का असाधारण गुरण है । प्रात्मा के अतिरिक्त उपयोग कहीं नहीं मिलता । विश्व के सभी जीव परमात्म स्वरूप हैं, क्योंकि मूल स्वभाव में तो अनत ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अनंतवीर्य वर्तमान में भो विद्यमान हैं, परन्तु जैसे जोव अनादि है वैसे ही कम संयोग भी अनादि है। कर्म संयोग के कारण ही पात्मिक गुरण दबे हुए हैं । फिर भी आत्मा में ज्ञान का प्रांशिक अंश तो सदा खुला रहता ही है। चाहे घनघोर बादलों में सूर्य छिपा हो, हाथ से हाथ न दिखता हो, फिर भी आपको यह तो मालूम हो ही जाता है कि दिन है या रात ?
एक राजा जंगल में भूखा, प्यासा, थका हा शिकार की खोज में भटक रहा था, पर उसके हाथ शिकार नहीं आया। अचानक एक खडमकडी राजा के हाथ में प्रा गई। राजा उसे चुटकी में मसलने लगा तो खडमकडी बोली "राजन ! मेरे पेशाब का छींटा लगने से शरीर में फफोले हो जाते हैं। मुझे खाने से शरीर में जलन होगी। मुझे जिन्दा छोड़ दो तो मैं तुम्हें तीन बात कहूंगी। पहली बात हथेली पर बैठ कर कहूंगी ।
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ज्ञान योग
दूसरी बात तुम्हारे कंधे पर और तीसरी बात सामने के वृक्ष पर बैठ कर कहूंगी । तुम्हारी इच्छा हो तो सुनना।'
भगवान् की आज्ञा है, हे मुनि ! तुझे स्त्री की ओर दृष्टि भी नहीं करनी चाहिये। साथ में दूसरी जगह यह भी कहा गया है कि मुनि स्त्री को सिर से पाँव तक देखे । यह परस्पर विरोधी बात क्यों ? गुरु ने समझाया, 'स्त्री को विकार भाव से नहीं देखे, परन्तु आहार पानी लेने से पहले अच्छी तरह देख लेना चाहिये कि उसके मस्तक में फल या वेरणी तो नहीं है, हाथ कच्चे पानी से गीले तो नहीं हैं ? इसलिये स्त्री को सिर से पाँव तक देखने को कहा है। 'गुरणेहिं साहु अगणेहिं साहु' गुणों से युक्त हो तो साधु और गुरणों से मुक्त हो तो भी साधु । सम्यगज्ञान दर्शन चारित्र से युक्त हो तो साधु और काम गुणों से युक्त हो तो भी साधु । हे राजन् ! ऐसे परस्पर विरोधी शास्त्रवचन हो, गुरुगम्य भी हो, तो भी स्वयं का अनुभव जो कहता हो वही करना चाहिये।' इतना कह कर खडम कडी उड़ गई और हंसने लगा। जब राजा ने हंसने का कारण पूछा, तो बोली, "मेरे मस्तक में दो तोले के मोती थे, मुझे जिन्दा नहीं छोड़ होती तो मिल जाते ।" राजा ने बन्दूक से निशाना साधा, तभी खडमकडी बोली, "राजन् ! अभी ही भूल गये। जब मैं तुम्हारे हाथ में थी तब मेरा वजन दो तोले से अधिक था क्या ? तुम्हारा अनुभव क्या कहता है।" शास्त्र ज्ञान का साधन है, गुरु सारभूत वस्तु हमें बताते हैं। पुण्यादय हो तो वाणी सुनने को मिलती है । सुनकर भी उसे अनुभव से जाँचना पड़ता है । शास्त्र कहता है : ----
_ 'अप्पा चेव दमेयत्रो ।' सबसे प्रथम अपनी प्रात्मा का ही दमन करना चाहिये अर्थात् अात्मविजय करनी चाहिये । आप पूछेगे प्रात्मा कोई किला है या शत्रु है कि उस पर विजय प्राप्त करें ? आत्मा तो आप स्वयं ही हैं, फिर उस पर विजय प्राप्त करने से क्या लाभ ? जो आत्मा की हानि कर रहे हैं, जो प्रात्मगुरगों को ढक रहे हैं, उन सबको दूर कर प्रात्मा के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करना ही प्रात्म-विजय है ।
जैसे एक फौलादी स्टील की तलवार की धार पर भी बहुत दिनों से पड़ी रहने के कारण जंग लग गया है, उसे साफ करने पर वह चमकने लगेगी, वैसे ही प्रात्मा के साथ जो कर्म मल चिपका हुआ है, उसे दूर करके
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ज्ञान योग
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सच्चिदानंदघन स्थिति प्राप्त करनी है । सत् + चित् + आनंद + घन । सत्य ग्रर्थात् शाश्वत, चित् अर्थात् चेतन, आनन्द अर्थात् सहज सुख स्वरूप और घन प्रर्थात् समूह । प्रात्मासत् चित् प्रानन्द है और समूह रूप है । आत्मा ही सबसे बड़ा है, इससे बड़ा कोई नहीं । जैसे दीपक मरिण आदि का प्रकाश सूर्य के प्रकाश में समा जाते हैं क्योंकि सूर्य का प्रकाश सबसे अधिक है । किंतु उसकी भी एक सीमा है । सूर्य ४७,८६३ योजन क्षेत्र को ही प्रकाशित कर सकता है, किंतु आत्मज्ञान तो १४ राजलोक को, यहाँ तक कि लोकालोक को भी प्रकाशित करता है |
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३,८१,१२,६७० मरण का एक गोला यदि उपर से गिराया जाये तो जमीन पर आते उसे छ: माह, छः पक्ष, छः दिन, छः प्रहर, छः घड़ी, छः पल लगेंगे और घर्षण से गेंद जितना छोटा हो जायेगा। इतनी दूरी को एक राजलोक कहते हैं, ऐसे १४ राजलोक ऊँचे एवं लंबाई × चौड़ाई x ऊँचाई का घनफल ३४३ राजलोक जितने क्षेत्र को प्रात्मा का ज्ञान जानता है । इस ग्रात्मज्ञान के प्रकाश के समक्ष सूर्य का प्रकाश कितना तुच्छ है ?
जब प्रात्मज्ञान इतना विशाल है तो वह प्रकट क्यों नहीं होता ?
।
मान लीजिये कि बहुत तेज गया है, त्राहि त्राहि मची हुई है लगाकर पानी प्राप्त कर लिया। नहीं था तो कहाँ से आया ? पृथ्वी के नीचे था इसलिये दिखाई नहीं दिया। श्रात्मज्ञान यही बात है । वह भी कर्म दल के नीचे दबा हुआ है। कर्म दल हट जाते हैं तब ज्ञान प्रकाशित हो जाता है ।
गर्मी पड़ रही है, पानी चारों ओर सूख इंजीनियरों ने पाताल फोड़ ट्यूबवेल अब बताइये, पानी था या नहीं ? यदि था तो पहले क्यों नहीं दिखाई दिया ? के विषय में भी सद्प्रयास से जब
भगवान् ने जहां जहां हिंसा का निषेध किया है, वहां वहां परिग्रह का भी निषेध किया है, क्योंकि प्रायः परिग्रह के लिये हिंसा का श्राचरण किया जाता है । परिग्रह मनुष्य को आंतरिक चेतना की एक शुद्धवृत्ति है । जब चेतना बाहरी वस्तुत्रों से प्रसक्ति, मूर्छा या ममत्व उत्पन्न करती है, तब परिग्रह होते हैं । वस्तुएँ परिग्रह नहीं हैं, परन्तु परिग्रह मनुष्य की भावना में है ।
एक महात्मा एक अनजाने गांव में संध्या के समय पहुँच गए । रात को वहां रहना था। एक हलवाई अपनी दुकान बंद कर रहा था । महात्मा
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ज्ञान योग
ने पूछा, "तुम्हारी इच्छा हो तो एक रात मैं यहां रह जाऊँ ?" हलवाई ने सोचा कि मेरे यहां तो २४ घंटे १८ पाप का सेवन करने वाले आते हैं, ऐसे महात्मा पुरुष के चरण हमारे यहाँ आने से मेरी दुकान पवित्र हो जायेगी । कहा, "आप सुख पूर्वक यहां रहिये ।" दुकान के सामने ही राजमहल था, राजा झरोखे में बैठा सब कुछ देख रहा था। दुकान में कहीं कोयले और वहीं राख पड़ी थी, एक तरफ भट्टी थी, बहुत गंदगी थी । राजा को चिंता ई कि संसार में ऐसे कितने लोग हैं, जिनके घर नहीं हैं, सोने बैठने की जगह नहीं है । सुबह संत को बुलाकर पूछूंगा। मुनि ने सारी रात आवश्यक क्रिया, ज्ञान, ध्यान, स्वाध्याय में पूरी कर दी । राजा का सिपाही आया और बोला, राजा साहेब आपको बुला रहे हैं । "संत ने सोचा राजा को मुझसे क्या काम हो सकता है ? फिर भी मेरे जाने से यदि किसी का भला होता हो तो जाने में क्या एतराज है ? आगे आगे संत और पीछे सिपाही चलने लगे । रास्ते में एक युवक मिल गया । “महाराज रूकिये। मुझे आपसे एक प्रश्न पूछना है । क्या आपने परलोक को देखा है ?"
जरा
"
संत बोले, "मैंने परलोक नहीं देखा, पर श्रद्धा से मानता हूँ ।
युवक "यदि आपने परलोक नहीं देखा तो यह दुःख क्यों देखते हो ? मेरे जैसे बन जाओ ।"
संत "तुम मुझे पहले यह समझा दो कि सुख दुःख क्या है ?" युवक "यह तो मैं भी नहीं जानता, आप ही बता दें ।'
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संत "जिस व्यक्ति ने जिस वस्तु में आनन्द माना हो, उसको उसमें सुख मिलता है । किसी को मिठाई खाने, सिगरेट पीने, शराब पीने, भोग विलास करने में श्रानन्द श्राता है । किसी को देव, गुरु, धर्म की भक्ति में सामयिक, प्रतिक्रमण में प्रानन्द आता है । मुझे भी दोक्षा में प्रानन्द प्रता है, इसलिये मुझे सुख है । यह बात ठीक है या नहीं ? यदि ठीक है तो पहले यह स्वीकार करो कि त्याग में दुःख नहीं है ।"
युवक- "मुझे यह स्वीकार है ।"
संत- "तुमने मुझे कहा कि परलोक नहीं हैं, तो क्या तुमने ऐसा निश्चय कर लिया है ?"
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[ 19 €
युवक- "नहीं, निश्चय तो नहीं किया है ।"
संत - "तब फिर तुम मना क्यों कर रहे हो कि परलोक नास्तिक से नास्तिक की भी परलोक की शंका तो रहती ही कहता है कि ग्रात्मा नहीं है, परलोक नहीं है, किंतु मन में ही है कि मैंने दान नहीं दिया, दया का पालन नहीं किया, किया, अब मैं मर जाऊंगा और शायद परलोक हुआ तो मेरा क्या होगा ? तुम कहते हो परलोक नहीं है. पर निकल गया तो तुम्हारा क्या होगा ? अतः परलोक है और आत्मा भी है । प्रात्मा न हो तो कर्म भी न हो । कर्म न हो तो संसार की विचित्रता न हो । एक हो माता है उसके दो पुत्र हैं एक रोगी, एक निरोगी, एक ज्ञानी तो भेद को किसने किया ?
'नहि बीज प्रयोजनाभ्यां बिना कस्याचिदुत्पतिरस्ति ।'
जिसका कोई कारण नहीं है और जिसका कोई फल नहीं हैं, ऐसी कोई वस्तु इस जगत में नहीं है । प्रत्येक कार्य के पीछे कारण श्रौर फल अवश्य होते हैं । कारण के बिना कोई कार्य होता नहीं । जैसा कारण होता है, वैसा ही कार्य होता है तब रोगी, निरोगी, ज्ञानी, मूर्ख का कारण क्या ? इस जन्म में तो कोई कारण दिखता नहीं, तब अन्य जन्म के कर्म ही इसके कारण हुए । किसी को शुभ या अशुभ कार्य को तो मानना ही पड़ेगा | आप आत्मा को भी नहीं मानते और कर्म को भी नहीं मानते तो नहीं चलेगा। बालक को जन्मते ही स्तनपान की इच्छा क्यों होती है ? उसे कौन सिखाता है ? पूर्व संस्कार के कारण होती है । जिस व्यक्ति को जो जो संस्कार दृढ़ हों, वे वे संस्कार शीघ्र उदय में आते हैं, इसीलिये बालक जन्मते ही स्तनपान करता हैं ।
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नहीं है ? है । नास्तिक भय तो रहता परोपकार नहीं
एक ही पिता है, दूसरा मूर्ख । इस
कोई भी व्यक्ति चाहे जो प्रवृत्ति करे, उसके दो
कारण होते हैं:
१. यह मेरा इष्ट साधन है २. यह मुझसे हो सकता हैं । जैसे भोजन करना मेरा इष्ट साधन हैं और यह मुझसे हो सकता है । इस प्रकार के ज्ञान से ही मनुष्य भोजन करता है । आप व्याख्यान में क्यों प्राते हैं ? इसलिये कि यह आपका इष्ट साउन है, इससे लाभ मिलता है और यह हो सकता है ।
ज्ञान भी दो प्रकार का है : (१) अनुभव ज्ञान ( २ ) स्मरण ज्ञान ।
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ज्ञान योग
यह पुस्तक है, स्थापनाजी है, बाजे के शब्द अच्छे लगते हैं, यह जो वर्तमान ज्ञान है, वह अनुभव ज्ञान है। मैंने कल मिठाई खाई थी, कल मैंने व्याख्यान सुना था । आज का अनुभव किया हुअा कार्य जो कल या बाद में याद आता है उसे स्मरण ज्ञान कहते हैं । आपने खीर खाई हो तो कल याद रहेगा किंतु यदि आपने रोटी खाई हो तो खीर याद नहीं आयेगी। आप बम्बई जाकर वापस आ गये तब आपको बम्बई की याद आई, किंतु अहमदाबाद बीच में आता है उसकी याद नहीं आई। इसीलिये एक ही माता-पिता के दो पूत्रों में रोगी और निरोगी का भेद पूर्व के कर्म के कारण हुप्रा । इससे प्रात्मा का अस्तित्व भी सिद्ध होता है।
संसार में यदि पापको प्रिय से प्रिय कुछ है तो वह आत्मा है । प्रापको प्रिय से प्रिय कौन है ? धन है, पुत्र है, शरीर है, इन्द्रियें हैं, प्राण हैं ? मनुष्य को धन सब से प्रिय है। धन के लिये घर छोड़कर परदेश जाता है । धन से भी प्रिय पुत्र है । पुत्र बीमार हो गया तो लाखों रुपये खर्च करके भी पुत्र को बचाप्रोगे। पुत्र से भी प्रिय शरीर है, शरीर पर जब दुःख आता है तो मनुष्य धन और पुत्र दोनों को छोड़ देता है ।
एक बुढ़िया थी, उसके एक लड़का था, दोनों घर में रहते थे। रात को सोते समय बुढ़िया नित्य भगवान् से प्रार्थना करती "हे भगवान् ! तुम मुझे उठा लेना पर मेरे पुत्र को बचाना, उसको सही सलामत रखना।" बुढ़िया को किसी ने कह दिया था कि यमराज पाड़े का रूप धारण कर किसी को ले जाने के लिये पाते हैं । एक दिन पड़ौसी का पाड़ा छुटकर बुढ़िया जहां सो रही थी वहाँ प्रागया और उसके बिछौने को मुह में डालकर खींचने लगा । बुढ़िया चमक गई, देखा साक्षात् यमराज पा गया है, बचने का कोई साधन नहीं है, बोली, "हे यमरोज ! आप भूल गये हैं, जिसको आप लेने पाये हैं, वह तो मेरा पुत्र है, मेरे पास ही उसकी खाट है, उसको ले जाओ।" बुढ़िया को पुत्र से भी अपना शरीर अधिक प्रिय है।
__ शरीर से भी इन्द्रियें अधिक प्रिय है। कभी दुर्घटना में हाथ-पाँव टूट जाय तो आप क्या कहेंगे ? हाथ पाँव भले टूटे आँख नाक तो बच गये। इन्द्रियों से भी प्रिय प्राण है। आप गिर गये, आँख फूट गई, जीभ कुचल गई तो आप कहेंगे कोई बात नहीं प्रारण से भी प्रिय कौन है ? एक व्यक्ति को केंसर है, भयंकर वेदना है, कहता है अब तो मेरे प्रारण निकल जाय तो अच्छा है। प्राण तो आपको प्रिय है, उसे भी प्राप छोड़ देना चाहते
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हैं तो प्राण किसके थे ? मेरे 'प्रारण' कहने वाले को प्रारण से भी प्रिय 'मेरा' है । तब 'मेरा' नामक कोई वस्तु होनी ही चाहिये, वही हमारी आत्मा है ।"
८ १
इस प्रकार विचार करते संत राजा के पास पहुंच गया । राजा ने पूछा, "महात्मन ! कैसे बीती ?" राजा ने सोचा कि सत कहेगा सारी रात दुःख में बीती, नींद नहीं आई, हैरान हो गया । परन्तु महात्मा ने तो और ही बात कही संत बोले, "राजन् ! आधी तेरे जैसी और ग्राधी तेरे से अच्छी ।" सुनकर राजा को क्रोध आ गया । महाराज का चित्त ठिकाने है कि नहीं ?
राग और द्वेष शुभ भावनाओं के बल से घटते हैं । जब आत्मा का राग-द्वेष रूपी मालिन्य पूर्णतया नष्ट हो जाता है अर्थात् प्रात्मा कषायमुक्त हो जाती है, तब पूर्ण शुद्धि में से प्रकट होने वाला पूर्ण ज्ञानप्रकाश जिसे केवलज्ञान कहते हैं, उसे प्राप्त हो जाता है । केवलज्ञान पूर्णानन्द अवस्था है ।
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मुनि ने सोचा राजा के गुस्से के चार कारण होते हैं:- १. यौवन अवस्था महान् अनर्थकारी होती है । २. जो धर्म न मिला हो तो धन संपत्ति अनर्थकारी होती है । ३. प्रभुत्व का अधिकार भी अनर्थकारी होता है । ४. प्रविवेक भी अनर्थकारी होता है । राजा युवक है, वैभवयुक्त है, अधिकारी है और अविवेकी भी है । इसके पास अविवेक अधिक है इसलिये क्रोध करता है । महात्मा ने ऐसे क्रोधी राजा से बहस करना ठीक नहीं समझा । अतः जैसे प्राये थे वैसे ही वापस चले गये ।
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चारित्र योग
योगशास्त्र के प्रणेता श्राचार्य हेमचन्द्रसूरि सम्यक् चारित्र का गुणगान करते हुए कहते हैं:
'सर्वं सावद्य योगानां त्यागश्चरित्रमिष्यते । कीर्तितं मदहिंसादित्रत भेदेन पचधा ॥'
सभी पाप प्रवृत्तियों का त्याग ही चारित्र है । यह चारित्र, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप से पाँच भेदों वाला है । भगवान् महावीर के अनुसार चारित्र ही मोक्ष का राजमार्ग है। यदि कोई व्यक्ति मुख्य सड़क को छोड़कर काँटों भरी पगडंडी से अपने गांव पहुँच जाता है, तो वह अपवाद मार्ग कहा जाता है । सही मार्ग तो दीक्षा द्वारा चारित्र धारण करने का ही है ।
आज का मानव चारित्र से अधिक ज्ञानवादी बनता जा रहा है । किंतु ज्ञान तथा चारित्र का एकीकररण नहीं हो पा रहा है । इस विषय में शास्त्र कहता है :
'संसार सागराम्रो उच्छुढो मापुरणो निवुडेज्जा । चरण गुरण विप्पहरणो वुड्ढइ सुबहुपिजारणन्तो ।'
हे ज्ञानी ! तू इस अहंकार का त्याग कर दे कि "मैं श्रुत ज्ञान से सम्पन्न हूँ और ज्ञान के बल पर संसार सागर से पार हो जाऊँगा ।" इस प्रकार ज्ञान का अहंकार करने वाले और चारित्र को स्वीकार नहीं करने वाले अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार में डूब गये हैं । ज्ञान के द्वारा संसार और मोक्ष का कारण तथा उपाय जाना जा सकता है, परन्तु संसार सागर से पार तो चारित्र से ही हो सकता है । संसार में जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे सभी सम्यक् चारित्र से ही वन्दनीय, पूजनीय और स्मरणीय बने हैं ।
सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान प्रर्थात् जानना और मानना ठीक होने पर भी जब तक सम्यक् चारित्र का पालन न हो तब तक साधक प्रभिष्ट सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता | आध्यात्मिक विकास की १४ भूमिकाओं में प्रथम की चार ( प्रथम से चौथे गुणस्थान तक) भूमिकाएँ सम्यग्दर्शन पर
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चारित्र योग
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आधारित हैं, आगे की १० भूमिकाएँ ( पांचवें से १४ वें गुणस्थान तक) चारित्र पर ही निर्भर हैं। चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति और १३ वें गुणस्थान में सम्यक्ज्ञान की पूर्ण उपलब्धि होती है । किंतु चारित्र को पूर्णता के प्रभाव में मुक्ति प्राप्त नहीं होती । ज्यों ही चरित्र पूर्ण हुआ कि अयोगी बनकर आत्मा मुक्ति को प्राप्त कर लेती है ।
ज्ञान से पदार्थों का स्वरूप जाना जाता है, दर्शन से श्रद्धा होती है, चरित्र से कर्मों का निरोध होता है और तप से आत्मा निर्मल होती है । घर में कूड़ा-कचरा भरा हुआ है, किंतु उसे निकाल कर बाहर फेंकने का प्रयत्न नहीं किया गया तो जानने का क्या अर्थ होगा ? अमुक औषधि के सेवन से रोग नष्ट हो जायेगा, ऐसा जानते हुए भी यदि औषधि का सेवन न करें तो क्या रोग चला जायेगा ? थाली में भोजन परोसा हुआ है, आप यह भी जानते हैं कि भोजन करने से भूख मिट जायेगी, फिर भो यदि आप भोजन न करें तो क्या भूख मिटेगी ? इसीलिये कहा गया है कि:'हयं गाणं क्रिया हीणं'
क्रिया रहित ज्ञान व्यर्थ है । ज्ञान के द्वारा संसार और उससे पार होने का उपाय समझा जा सकता है, किंतु संसार समुद्र से पार होने के लिये तो चारित्र ही आवश्यक है । अत: ज्ञान और चारित्र दोनों को साधना से ही मुक्ति होती है । किसी कवि ने ठीक ही कहा है:
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'चर्चा ही चर्चा करे, धारण करे न कोय |
धर्म बिचारा क्या करे, धारे ही सुख होय ॥ '
कुछ उदाहरण ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्होंने बिना चारित्र लिये ही मोक्ष प्राप्त किया है, जैसे भरत चक्रवर्ती, कूर्मापुत्र, इलाचिपुत्र, आषाढ़भूति, मरुदेवी माता श्रादि, किंतु वे अपवाद स्वरूप है ।
चारित्र किसे कहते हैं ? इस विषय में शास्त्र में कहा है:
'सुह किरिया चाम्रो, सुहासु किरियासु जोय अपमान । तं चारितं उत्तम गुणजत्तं पालह निरुत्तम ॥'
अशुभ क्रिया का त्याग और शुभ क्रिया का राग एवं गुण धारण रूप उत्तम चारित्र का पालन करो । चारित्र में क्या करना चाहिये ? कहा है:
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चारित्र योग
'जाइ मरणं परिन्नायं चरे संक्रमेण दृढ़े।' जन्म मरण को अच्छी तरह समझकर चारित्र में दृढ़ रहे, उसे चारित्र संपन्न कहते है । चारित्र की संपन्नता से क्या होता है ? कहा है:
'सैलेसी भावं जरणयई' चारित्र की संपन्नता से शैलेसी भाव अर्थात् १४ वें गुणस्थानक की अडोल स्थिति प्राप्त होती है ।
चारित्र शब्द 'चद्' धातु से बनता है जिसका अर्थ है चलना या गति करना । अपनी प्रात्मा स्वभाव दशा से विभाव दशा में जा रही है, उसको फिर से स्वभाव दशा में लाने को ही चारित्र कहते हैं। अंग्रेजी में कहावत है:
'करेक्टर इज ए लुकिंग ग्लास, ब्रोकन वन्स इज गोप्रान ग्लास ।'
चारित्र एक दर्पण है जिसके टूट जाने पर वह समाप्त हो जाता है। दर्पण को तो फिर से जोड़ा भी जा सकता है, किंतु चारित्रभ्रष्ट को पुन: चारित्रवान् बनाना अशक्य है । वस्त्र पर लगा हुआ धब्बा दूर हो सकता हैं, किंतु चारित्र पर लगा हुआ धब्बा दूर नहीं होता । इसलिये मन, वचन, काया का व्यवहार पूर्णतः शुद्ध होना चाहिये । मन, वचन, काया की एकता को प्राप्त करने के लिये कठिन पुरुषार्थ करना होगा । अंग्रेजी कहावत के अनुसार:
__ 'बी हार्ड विथ योर सेल्फ' स्वयं पर अनुशासन करना होगा । मैंने एक अंग्रेजी पूस्तक देखो, जिसके चारों कोनों पर चार वाक्य लिखे थे। एक कोने पर लिखा था
'ब्लड इज लाइफ' खून ही जीवन है क्योंकि जीवित रहने के लिये शरीर को खून की अत्यंत अावश्यकता है ।
दूसरे कोने पर लिखा था
'नॉलेज इज लाइफ' ज्ञान ही जीवन है। खून तो पशुओं के शरीर में भी बहुत होता है, किंतु पशु-जीवन भी कोई जीवन है ?
तीसरे कोने पर लिखा था'ट्र थ इज लाइफ' सत्य ही जीवन है ।
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चारित्र योग
चौथे कोने पर लिखा था'कंडक्ट इज लाइफ' चारित्र ही जीवन है ।
मनुष्य के शरीर में जीवित रहने के लिये खुन हो, संसार की स्थिति को समझने का ज्ञान भी हो, सत्य की महिमा को भी मानता हो, कि । यदि वह इनका सदुपयोग नहीं करता, तो ऐसा ज्ञान और जानकारी क्या काम आयेगी ? इसी लिये आचरण अर्थात् चारित्र की सर्व प्रथम आवश्यकता है । चारित्र के दो भेद हैं- (१) द्रव्य चारित्र और (२) भाव चारित्र । भाव चारित्र के होने पर भी द्रव्य चारत्र की आवश्यकता तो रहती ही है। दोनों चारित्र मोक्ष के अंग हैं।
शास्त्र में कहा गया है कि एक समय में १०८ मुनि उत्कृष्ट मोक्ष जाते हैं । मात्र भाव चारित्र वाले नहीं किंतु द्रव्य चारित्र वाले, जिन्होंने प्रभु का वेष धारण किया हो ऐसे उत्कृष्ट १०८ मुनि मोक्ष जाते हैं । यहाँ भी कम योग का प्राथमिकता दी गई है।
सम्यक चारित्र के सामान्यतः दो भेद हैं-सर्व विरति और देश विरति । देश-विरति अर्थात् अंशत: व्रत धारण करना और सर्वविरति अर्थात् संपूर्ण पाँच महाव्रतों को धारण करना । देश-विर ति में सामायिक चारित्र की ही प्रधानता है। उसके तीन भेद हैं---(2) सम्यक्त्व सामायिक, (२) श्रुत सामायिक और (३) देश-विरति सामायिक ।
प्रसन्नचंद्र राजर्षि एक क्षण में सातवीं नरक के कर्म बांध लेते हैं, क्योंकि वहाँ उनको कुछ अशुभ विचार आ गये, रौद्र परिणामी बन गये, परन्तु उनको द्रव्य चारित्र था, उन्होंने प्रभु का वेष धारण किया था, मस्तक का लुचन किया था। अत: जैसे ही शस्त्र से घात करने के लिये ऊपर उठाते हैं, उनका हाथ मस्तक पर चला जाता है और लुचन किये हुए मस्तक का स्पर्श उन्हें चारित्र की याद दिला देता है और राजर्षि अपने रौद्र परिणाम का त्याग कर शुद्ध परिणामी बन जाते हैं और केवलज्ञान भी प्राप्त कर लेते हैं। यदि इस समय वे द्रव्य चारित्र में न होते तो अवश्य ही भाव चारित्र से भी नीचे गिर जाते ।
चारित्र के बिना पंडित वीर्य की प्राप्ति नहीं होती। पंडित वीर्य का प्रारंभ ही छठे गुरगस्थानक से अर्थात् चारित्र के प्रारंभ से होता है ।
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चारित्र योग
जितनी अविरति (व्रत-प्रत्याख्यान) उतना ही पंडित वीर्य और जितनी अविरति उतना ही बाल वीर्य ।
चारित्र पाँच प्रकार का होता है:- १ सामायिक २. छेदोपस्थानीय ३ परिहार विशृद्धि ४. सूक्ष्म संपराय और ५. यथाख्यात चारित्र ।
सामायिक और छेदोपस्थानीय छठे से नौवें गुणस्थानक में होता है। परिहार विशुद्धि छठे और ७ वें गुरणस्थानक में होता है । सूक्ष्म संपराय १० वें गुरणस्थानक में होता है । यथाख्यात चारित्र ११ वें से १४ वें गुरगस्थानक में होता है । इन पाँचों चारित्रों की पारावना करने वाले पाँच प्रकार के साघु होते हैं:- १. पुलोक २. बकुल ३. कुशील ४. निग्रंथ और ५. स्नातक।
दर्शन (श्रद्धा) रहित ज्ञान व्यर्थ है और क्रिया रहित ज्ञान भी व्यर्थ है। इसीलिये तो शास्त्र कहता है:---
'ज्ञानदर्शनक्रियाभ्यां मोक्षः ।' ज्ञान, दर्शन और क्रिया की त्रिवेणी से ही मोक्ष मिल सकता है ।
शाश्वत सुख प्राप्त करने का अहिंसा के पूर्ण पालन को छोड़कर अन्य साधन हो ही नहीं सकता। इसी वजह से वीतराग सर्वज्ञा भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट आगमों का प्रधान विषय अहिंसा
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पुरुषार्थ चतुष्टय दर्शन शास्त्र के जगत् में तीन दर्शन मुख्य माने गये हैं-(१) यूनानी दर्शन, (२) पश्चिमी दर्शन और (३) भारतीय दर्शन । यूनानी दर्शन का महान् चितक अरिस्टोटल (अरस्तू) माना जाता है। उसका अभिमत है कि दर्शन का जन्म आश्चर्य से हुआ है । (फिलासफी बिगिन्स विथ वन्डर). इसी कथन को प्लेटो ने भी स्वीकार किया है ।
पश्चिम के प्रमुख दार्शनिक डेकार्ट, काण्ट, हेगल आदि ने दर्शन शास्त्र का उद्भावक तत्त्व संशय माना है । (दर्शन का प्रयोजन पृ. २६ S/o भगवानदास) भारतीय दर्शन का जन्म जिज्ञासा से हुआ है। जिज्ञासा से मूल दुःख में रहा हुआ है। जन्म, जरा, मरण प्राधि, व्याधि, उपाधि से युक्त होकर समाधि प्राप्त करने के लिये जिज्ञासाएं जागृत हुई। अन्य दर्शनों की भाँति भारतीय दर्शन का ध्येय ज्ञान प्राप्त करना मात्र न होकर परम सुख मोक्ष को प्राप्त करने में भी है। भारतीय दर्शन केवल विचार प्रणाली नहीं, किंतु जीवन प्रणाली भी है। वह जीवन और जगत् के प्रति एक विशिष्ट दृष्टि प्रदान करता है । मोक्ष भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु है । पुरुषार्थ चतुष्टय में मोक्ष को प्रमुख स्थान दिया गया है । धर्म साधन है तो मोक्ष साध्य है । मोक्ष को केन्द्र बिन्दु मानकर हा भारतीय दर्शन फले फूले हैं । कहा भी है--
'चतुर्वऽग्रणीमोक्षो योगस्तस्य च कारणम् । ज्ञान श्रद्धान चारित्र रूप रत्नत्रयं च सः ॥ १-१५
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थो में मोक्ष मुख्य है। उसका कारण योग है । वह योग ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र के रूप में रत्नत्रयी है। कुछ लोगों का विचार है कि भारतीय संस्कृति पूर्णतः धार्मिक और प्राध्यात्मिक है । भौतिक जीवन का इसमें कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है। किन्तु ऐसी बात नहीं है । यहाँ धार्मिकता और आध्यात्मिकता के साथ ही साथ भौतिकता का भी समान महत्व समझा गया है। हमारे जीवन के श्रेष्ठ और प्रादर्श चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं । इनमें से अर्थ और काम पुरुषार्थ भौतिकता के ही प्रमाण हैं । धर्म पर ही
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पुरुषार्थ चतुष्टय
हमारे समस्त कार्य संचालित होते हैं । धर्म वस्तुतः भारतीय जीवन पद्धति का ही दूसरा नाम है । परन्तु अर्थ और काम का महत्त्व भी धर्म से कम नहीं है । काम पुरुषार्थ के लिये अर्थ पुरुषार्थ साधन है। इसी प्रकार मोक्ष पुरुषार्थ के लिये धर्मं पुरुषार्थं साधन है । वैसे आध्यात्मिक दृष्टि से काम और अर्थ पुरुषार्थ त्याज्य हैं और धर्म तथा मोक्ष पुरुषार्थ ग्रहणीय हैं ।
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चाहे हम किसी भी गति या किसी भी योनि में क्यों न हों, वहाँ हमने एक क्षरण भी ऐसा नहीं बिताया होगा, जहाँ, उपयुक्त चारों में से किसी एक पुरुषार्थ को न किया हो । यह पुरुषार्थं सत् हो या असत् यह दूसरी बात है, पर पुरुषार्थ तो है ही । एक बड़े बंगले में एक नौकर कचरा साफ कर एक स्थान पर एकत्रित कर रहा था । सेठ का एक बच्चा उसी कचरे में से मुठ्ठी भर भर कर इधर उधर बिखेर रहा था । नौकर और बच्चा दोनों ही अपनी अपनी समझ से पुरुषार्थ कर रहे थे, किन्तु नौकर का पुरुषार्थ सत् और बच्चे का पुरुषार्थ असत् था ।
किसी पदार्थ का ज्ञान किस प्रकार प्राप्त किया जाता है इसके ११ उपाय बताये गये हैं, इनमें से प्रथम उपाय उद्यम है । कर्म को ही सब कुछ मानने वाले लोग कहेंगे कि राजा तो हमेशा बैठा ही रहता है, मात्र ग्रीज्ञा देता है तथा उसकी प्राज्ञा का पालन करते हुए उसके सेवक, नौकर चाकर उसका सब काम कर देते हैं । इसी प्रकार हम भी भाग्य के भरोसे बैठ जायें तो हमें भी उद्यम नहीं करना पड़े । भाग्य में जो होगा वह तो मिल ही जायेगा। किंतु यह धारणा गलत है, पुरुषार्थ के बिना मात्र भरोसे कोई काम नहीं हो सकता ।
भाग्य के
एक सेठ जंगल में गया, वहाँ उसे एक खोपड़ी मिली जिसमें लिखा था कि इस व्यक्ति ने १०० की हत्या की है और १०१ का वध करने वाला है । सेठ खोपड़ी को उठाकर घर लाया और उसका पूजन करने लगा । सेठानी को संदेह हो गया कि यह खोपड़ी मेरी सौत की है। उसने खोपड़ी को चूल्हे में जलाकर राख कर दिया और राख को दूध में घोलकर पी गई। कुछ दिन बाद सेठानी गर्भवती हुई। उसे कमल जैसा सुन्दर पुत्र हुआ । उसका नाम भी कमल रखा गया । बड़ा होकर वह व्यापार करने परदेश गया । उस देश के राजा को कमल ने बड़ा मच्छ भेंट किया । राजा ने मच्छ को रनिवास में भेज दिया । रानी ने उसे यह कह कर वापस भेज दिया कि मच्छ पुरुष है और रनिवास में कोई पुरुष नहीं आ सकता । राजा
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पुरुषार्थ चतुष्टय
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के अतिरिक्त कोई पुरुष यहां नहीं पा सकता । राजा ने कहा कि मेरी रानियें पतिव्रता हैं। कमल ने कहा कि इसकी परीक्षा होनी चाहिये। रानियों की परीक्षा के लिये नगर में ढिंढोरा पिटवाया गया। कमल ने स्वयं ढोल पकड़ कर ढिढोरा पीटा । एक बड़ी खाई खुदवाई गई जिसे पांव द्वारा लांघा जा सके । सभी रानियों को खाई लांघने के लिये कहा गया । १०१ रानियें खाई लांघ गयी। उसमें ७५ रानियें थीं। सात वेषधारी स्त्री थी । यह पुरुष है या स्त्री इसकी परीक्षा कैसे हुई ? खाई लांघते समय स्त्रियें पहले बाँया पाँव उठायेगी और पुरुष दायां पांव पहले उठायेंगें। इसी से स्त्री पुरुष की परीक्षा होती है । राजा कमल की इस परीक्षा विधि से बहुत प्रसन्न हुया और उसे बहुत इनाम देकर विदा किया।
भोजन की थाली परोसी हुई आपके सामने रखी है, किंतु यदि प्राप हाथ न चलायें तो भोजन मुह में कैसे जायेगा ? यदि किसी ने मुह में कौर दे भी दिया तो भी दाँतों को चबाना पड़ेगा ही। अतः उद्यम पिता है और भाग्य उसका पुत्र ।
दही में मक्खन तो है, यदि आप वर्षों तक उसे प्रणाम करते रहें, प्रार्थना करते रहें कि हे दहो देवता ! कुछ मक्खन दो, तो क्या आपको मक्खन मिल जायेगा ? समुद्र के पास रत्नों का भंडार हैं, किंतु क्या प्रार्थना करने पर वह पापको रत्न निकाल कर दे देगा? उसके लिये आपको उद्यम करना पड़ेगा । दही को बिलौना पड़ेगा, तभी मक्खन मिलेगा । समुद्र में गोता लगाकर रत्न ढढने पड़ेंगे तभी रत्न मिलेंगे।
एक विचारक ने ठीक ही कहा है कि भक्ति के पास हृदय है, ज्ञान के पास आँखें हैं और पुरुषार्थ के पास पांव हैं। हृदय से हम किसी भी वस्तु पर विश्वास कर सकते हैं। प्रांखों के द्वारा हम मार्ग देख सकते हैं। परन्तु चलने का काम तो पाँव ही करेंगे । मंजिल की दूरी विश्वास से कम नहीं हो सकती। देखने मात्र से मंजिल आपके पास नहीं पा जायेगी। पाँव ही आपको उस मंजिल तक पहुँचा सकते हैं । अतः भक्ति में तन्मयता है, ज्ञान में प्रकाश है किन्तु चैतन्यता तो पुरुषार्थ में ही है । पुरुषार्थ के पाँच पाये हैं:- (१) उत्थान : आलस्य का त्याग कर खड़े हो जाना, (२) कर्म : काम में संलग्न हो जाना, (३) बल : स्वीकृत कार्य में मन, वचन, काय योग का उपयोग करनो, (४) वीर्य : स्वीकृत कार्य को संपूर्ण करने का उत्साह
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पुरुषार्थं चतुष्टय
आनन्द बनाये रखना और (५) पराक्रम : चाहे जैसी मुसीबत में भी डटे रह कर धैर्यपूर्वक खड़ा रहना ।
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प्रथम सोपान उत्थान का एक उदाहरण: एक चोर चोरी करने गया । कुछ लोगों ने चोर को देख लिया और वे उसके पीछे पड़ गये । चोर भागता हुआ एक देवी के मन्दिर में जा घुसा श्रौर मूर्ति के सामने गद्गद होकर कहने लगा, "माँ मेरी रक्षा करो।" देवी ने कहा, "घबरात्री नहीं मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी, पर एक काम तुमको करना होगा, तुम्हारा पीछा करने वाले लोग जब यहाँ प्रावें तब तुम जोर से हुँकार करना । "
चोर बोला, “माँ ! मैं हुँकार कैसे करूंगा, डर के मारे मेरा तो गला बैठ गया है ।
"
देवी ने कहा, "अच्छा, तुम उन्हें प्राँखें ही दिखा देना : "
चोर - "आँखें कैसे दिखाऊँगा, भय से मेरी तो आँखें ही बंद हो रही है ।"
देवी- "तो तुम उठकर दरवाजा तो बन्द कर दो ।"
चोर- 'मेरे पाँव भय से काँप रहे हैं, दरवाजे तक कैसे जाऊँ ? "
देवी - "ठीक है, कुछ नहीं कर सकते तो तुम मेरी मूर्ति के पीछे ही छिप जाओ ।"
"
चोर" भय से मेरा तो हिलना डुलना ही बन्द हो गया है । देवी - "तुम पुरुषार्थहीन हो, कायर हो, निकम्मे हो, ऐसे व्यक्ति की मैं रक्षा नहीं करती ।"
दूसरे सोपान कर्म का एक उदाहरण एक निर्धन परिवार था । भरापूरा परिवार था, किंतु घर के सभी सदस्य उद्यमहीन थे, दिन भर घर में पड़े रहते थे। घर में नववधु आई तो उसने देखा कि घर के सभी लोग पुरुषार्थ हीन हैं. तब घर का खर्च कैसे चलेगा ? नववधु ने सारे परिवार के सदस्यों को एक शिक्षा दी "कि आप में से कोई भी जब घर से बाहर जाये, तब बाहर से कुछ न कुछ लेकर आये, खाली हाथ कोई भी न लौटे। नियमानुसार सभी लोग जब बाहर जाकर घर लौटते तो मुट्ठीभर मिट्टी, पत्थर, फटे पुराने कपड़े या अखबार के कागज कुछ न कुछ लेकर आते । ऐसा करते
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पुरुषार्थ चतुष्टय
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उनको पुरुषार्थ की पादत होने लगी। एक दिन घर के एक सदस्य को कुछ नहीं मिला, एक मरा हुआ सपं मिल गया तो वह उसे ही उठा लाया। नववधु ने उस मरे हए सर्प को घर की छत पर डाल दिया। संयोग की बात की एक चील कहीं से एक सोने का हार उठा लाई थी, वह उड़ती हुई उधर से ही निकली। चील ने जब छत पर साँप देखा तो उसने अपने स्वभावानुसार झपट्टा लगाया। साँप को लेकर उड़ गई । घर के सदस्यों ने जब मरे हुए सर्प के स्थान पर सोने का हार देखा तो बहुत प्रसन्न हुए। भाग्य ने उनके निकम्मे पुरुषार्थ को भी सफल कर दिया था।
आयुर्वेद का अभिमत है कि शरीर में दो कमल होते हैं - हृदयकमल और नाभिकमल । सूर्यास्त हो जाने पर ये दोनों कमल संकुचित हो जाते हैं। अतः रात्रि-भोजन निषिद्ध है। इस निषेध का दूसरा कारण यह भी है कि रात्रि में छोटे-छोटे जीव भी खाने में आ जाते हैं । (प्रकाश होने पर अन्य जीव भी भोजन में गिर जाते हैं। ) इसलिए रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये ।
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धर्म पुरुषार्थ पाँच इन्द्रियों में पांचवीं इन्द्रिय कान है । अाँख अाक्रामक है तो कान ग्राहक है । यदि कोई हमारी तरफ एक टक ताक कर देखता हो तो हमें अच्छा नहीं लगेगा, किंतु यदि हमें कोई अपनी मन पसन्द बात कहे तो हमें अच्छा लगेगा । इसी से सिद्ध होता है कि अाँख आक्रामक है और कान ग्राहक । यदि आपको कोई आँखें दिखावे तो बहुत बुरा लगेगा किंतु मधुर बात करे तो उसके साथ घंटों बिता देंगे। अाँख को पाक्रामकता से कान की ग्राहकता का मूल्य इसीलिये अधिक है। धर्म श्रवण कान से ही होता है। आप पूछेगे कि धर्म श्रवण किसलिये ? जब तक प्रात्मा को धर्म श्रवण नहीं मिलता, तब तक आत्मा का मैल दूर नहीं होता, इसलिये धर्म श्रवण की आवश्यकता है । मैल को हटाने के लिये धर्म श्रवण तेजाब का काम करता है । धर्म श्रवण नोलवेल वनस्पति जैसा है । सर्प नौलिये के युद्ध में जब सर्प नौलिये को डस लेता है, तब नौलिया शीघ्र ही अपने जहर को उतारने के लिये नोलवेल वनस्पति को सूघ कर आ जाता है, जिससे उसका जहर उतर जाता है। जब विषय कषाय रूपी सर्प पापको डस ले तब आप भी धर्म श्रवण रूपी नोल वेल वनस्पति का उपयोग कर विष कषाय के जहर को उतार सकते हैं ।
जिस बस डिपो के बाहर लिखा हो 'भीतर' और 'बाहर' वहां बस एक तरफ से भीतर जायेगी और दूसरी तरफ से बाहर आयेगी । इसी प्रकार धर्म श्रवरण भी यदि एक कान से सुने और दूसरे कान से निकाल दे तो उससे क्या फायदा ? धर्म के कारण से ही अर्थ और काम प्राप्त होता हैं, इसलिये अर्थ और काम में तल्लीन बनकर धर्म को भूलना नहीं चाहिये।
आम में कुछ अंश खाने का और कुछ अंश फेंकने का होता है । रस चूसकर गुठली और छिलका फेंक देना होता है। इसी प्रकार अनार में दाने खाने और छिलका फेंकने के काम आता है। किंतु अंगूर में कुछ भी फेंकना नहीं पड़ता । जैसे तूबा छोटा हाने पर भी तीन मरण के शरीर को नदी पार करा देता है, वैसे ही पढ़ाई अक्षर का धर्म भी आत्मा को डूबने से बचाता है । धर्म से तात्पर्य क्या है ? वैश्या का धर्म शरीर बेचना हैं, सैनिक का धर्म शत्रु को मारना है, जल्लाद का धर्म फांसी लगाना है, सती का धर्म पति के साथ मरना है। कोई दान, शील, तप, भावना में धर्म मानता है तो कोई अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह में धर्म मानते हैं । जो विचार-पाचार प्रात्मा की चारित्र शक्ति को विकसित करे और जीवन में सदाचार सद्विचार की ज्योति जला दे, वही धर्म है।
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अर्थ पुरुषार्थ कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने गृहस्थ जीवन को सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिये योगशास्त्र में चार पुरुषार्थो का वर्णन किया है । वे चार पुरुषार्थ हैं:-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को त्रिवर्ग कहा जाता है । पर धर्म को मोक्ष के साथ भी प्राय: जोड़ा जाता है। ऐसा क्यों ? इसलिये कि धर्म का ध्येय ही मोक्ष है ।
साध भी एक साधक है और गृहस्थ भी एक साधक है । वैसे दोनों ही के जीवन में साधना है, किंतु दोनों के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं । साधु घर परिवार से संबंध विच्छेद कर एकाकी बन कर आत्म-साधना में लीन होते हैं । इन पर घर परिवार की कुछ भी जिम्मेदारी नहीं होती, जबकि गहस्थ के सिर पर घर परिवार की पूर्ण जिम्मेदारी होती है । गृहस्थ के पास धर्म के साथ साथ अर्थ और काम के भी क्षेत्र हैं, क्योंकि अर्थ (धन) के बिना गृहस्थ जीवन नहीं चल सकता और संसार की वृद्धि के लिये काम भी एक प्रावश्यक पुरुषार्थ है । अत: गृहस्थ के लिये धर्म के साथ साथ अर्थ और काम पुरुषार्थ को जोड़कर त्रिवर्ग की सृष्टि की गई है।
__ अर्थ के भी दो शब्दार्थ होते हैं: -- एक धन और दूसरा प्रयोजन । पहले हम प्रयोजन शब्दार्थ पर कुछ विचार कर लें। बाजार में जाकर स्टेशनरी की दुकान पर एक ग्राहक ने पूछा, "यह पेन कितने का है ?" दुकानदार ने कहा, "पाठ रुपये का ।"
ग्राहक-"कीमत तो ठीक है पर यह चलेगा कितने दिन ?" दुकानदार - "जिंदगी तक चलेगा।"
ग्राहक कलम लेकर घर गया । संयोग की बात कि लिखते लिखते कलम उसी दिन टूट गई । ग्राहक दूसरे दिन टूटी हुई कलम लेकर दुकानदार के पास आया और बोला, "आप तो कहते थे कि यह कलम जिन्दगी भर चलेगी, पर यह तो एक ही दिन मैं टूट गई।"
दुकानदार- "मैंने यह तो नहीं कहा था कि आप जीवित रहोगे तब तक यह पेन चलेगी। अरे भाई ! पेन का आयुष्य था, तब तक वह चली।
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अर्थ पुरुषार्थ
उसका आयुष्य पूरा हो गया तो टूट गई। इसमें इतना क्रोधित होने की क्या बात है ?"
बेचारा ग्राहक मुह लटकाये वापस चला गया। यह है अर्थ को एक पदार्थ प्रयोजन का उदाहरणा । यह संसार तो ऐसे जीवों से भरा पड़ा है। बिना प्रयोजन के बोलना और अपनी इच्छानुसार शब्दों के अर्थ को ग्रहण करना तो यहां साधारण बात है। फिर लड़ाई झगड़े होते हैं, राग द्वष और कषायों की वृद्धि होती है अतः अर्थ पुरुषार्थ को भी न्याय नीति और धर्म से नियंत्रित करने की अावश्यकता है।
एक अन्य उदाहरण । यात्रा में रेल में बैठे बैठे पाँच युवक मित्रों ने स्टेशन पर 'गरमागरम भुजिया' की आवाज सुनी। पाँच प्लेट मंगवाई और पैसे दे दिये। गाड़ी भी चल पड़ी। जब भुजिये खाने लगे तो देखा कि ऊपर ऊपर तो गर्म थे और नीचे सब ठंडे थे । एक मित्र बोला, "यार ! हम तो ठगे गये । साले ने गरमा गरम कह कर ठंडे और गरम मिला कर दे दिये ।"
उन में से एक मित्र सस्कृत भाषा को जानने वाला था, उसने कहा, "भाई ! उसने तो ठीक ही कहा था, गरम+अगरम - गरमागरम यानि गरम और ठंडे भुजिये । उसने तो कोई गलती की नहीं थी। हमें ही भाषा का ज्ञान नहीं होने से हम ठग गये ।
विजयसेन सूरि म.सा. ने योगशास्त्र के प्रथम श्लोक 'नमो दुर्वार रागादि' पर ५०० से ७०० अर्थ किये है । सोमप्रभसूरि म.सा. ने 'शतार्थ काव्य' वसंत तिलका छंद में रचा है। उसके प्रत्येक श्लोक के भिन्न भिन्न एक सौ अर्थ किये गये हैं तथा उस पर स्वयं उन्होंने टीका भी लिखी है। सन् १६४६ में अकबर बादशाह ने जब काश्मीर विजय के लिये प्रस्थान किया था, तब समयसुन्दरजी ने एक अष्ट लक्षी ग्रंथ बनाया। उसमें पाठ अक्षरों का एक वाक्य था, "राजा नो ददते सौख्यं" राजा हमें सुख प्रदान करे । इस वाक्य के समयसुन्दर जी ने पाठ लाख अर्थ किये थे।
पाटण चतुर्मास के समय उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. सतोष बहिन की प्रेरणा से प्रात्मयोगी अानंदधनजी से मिले थे। उस समय उपाध्याय जी ने अपनी विद्वता को प्रदर्शित करने के लिये उनके सम्मुख
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प्रर्थ पुरुषार्थ
दशवैकालिक सूत्र की प्रथम गाथा 'धम्मो मंगल मुकिट्ट' के ५० अर्थ
किये थे ।
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श्री नमस्कार मंत्र में चौदह पूर्व का समावेश होता है । पाँच समिति तीन गुप्ति, प्राठ प्रवचनमाता में द्वादशांगी का समावेश होता हैं । 'अनेकार्थ रत्न मंजूषा' में नमो अरिहंताण पद के एक सौ आठ अर्थ किये हैं । इसी ग्रंथ में 'धम्मो मंगल मुकिट्ट' पद के १०८ और गायत्री मंत्र के १०८ अर्थ किये गये हैं । इसी प्रकार 'भुत्रलय ग्रंथ' ७०० भाषाओं में लिखा गया है ।' उत्पलव ग्रंथ' के रचयिता हषं ने उसमें अनेक युक्तियों द्वारा संसार के सभी धर्मों का खंडन किया है ।
'हरि आयो हरि उपन्यो, हरि पुठे हरि धाय । हरि गयो झट हरिना विये, हरि बेठो वा खाय ||
'सप्तानुसंधान' महाकाव्य के एक एक श्लोक में क्रमबद्ध सात-सात महापुरुषों के चरित्र वरिंगत हैं । देखिये :
--
[
एक अन्य उदाहरण:
'सुवर्ण को ढूढत फिरे, कवि कामी और चोर | चरण धरत पीछे फिरे, चाहत शोर न मोर ।'
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अर्थात् वर्षा आने से मेंढक उत्पन्न हुम्रा । सर्प मेंढक के पीछे दौड़ा, तब मेंढक शीघ्र पानी में डुबकी लगा गया, अतः सर्प मेंढक की अनुपस्थिति में वायु भक्षरण करने लगा। यहां एक 'हरि' शब्द के अनेक अर्थ हुए हैं ।
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अर्थात् कवि सुवर्ण (सुन्दर अक्षरों) को ढूंढता है । कामी पुरुष सुवर्ण ( सुन्दर रूपवती स्त्री) को ढूंढता है और चार सुत्र ( धन सोना ) को ढूंढता है । कवि श्लोक का चरण (पाद) बनाकर मुड़ जाता है । कामी पुरुष और चोर चररण (पांव) रख रखकर पीछे मुड़कर देखता है, कहीं उसे कोई देख न ले, भयभीत है कि कहीं पहचान लिया न जाय, अतः वह किसी प्रकार की आवाज को पसंद नहीं करता । कवि तो मयूर को बार बार पीछे मुड़कर देखता है, किन्तु चोर को तो उसकी आवाज पसंद नहीं है । यहां 'सुवर्ण' और 'चरण' शब्द के भिन्न भिन्न अर्थ हुए हैं ।
एक पंडित ने अपने मित्र को चार 'क' लिखकर भेज दिये और अपने
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अर्थ पुरुषार्थ
सेवक से कहा कि जा उसे कह दे कि इसको पढ़कर इसमें लिखी वस्तु शीघ्र भेज दे । पंडित का मित्र भी विद्वान था, उसने जब उस कागज के पुर्जे को देखा तो वह उसका अर्थ करने लगा। चार क यानी 'कचारि' इसका संधि कर दें तो हो जायेगा 'कच-+-अरि' अब शब्दार्थ हो गया। कच - बाल
और अरि = शत्रु यानि बाल का शत्रु नाई । मित्र ने शीघ्र नाई को भेज दिया इस प्रकार एक ही शब्द के अपनी इच्छानुसार भिन्न भिन्न अर्थ निकाल कर अपना प्रयोजन (कार्य) सिद्ध करने को प्रयोजन कहते हैं ।
'अर्थ' शब्द का दूसरा अर्थ है धन । कोई कोई व्यक्ति तो मम्मरण सेठ की भो ति एक मात्र धन को ही साधना करते हैं । परन्तु ऐसा करना अयोग्य है क्योंकि धर्म और काम का उल्लंघन कर उपाजित धन का उपभोग प्रायः अन्य लोग ही किया करते हैं और पाप का भागो उपार्जक स्वयं होता है : जैसे हाथो का वध करने वाला शिकारी हाथी दांत का उपयोग नहीं करता, हाथी दांत और हस्तिन्मुक्ता का उपयोग तो कोई अन्य लोग ही करते हैं।
एक करोड़पति सेठ को बीमार हो जाने पर अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। जब बीमारी कुछ ठीक हुई. तब अस्पताल से छुट्टी लेकर आराम करने हेतु घर पर ले आये । सेठजी घर में पलग पर सो रहे थे, पास ही सेठानी बैठी थी, तभी सेठानी की कुछ सखियें आ गई और पूछा, 'सेठजी की तबीयत कैसी है ?'
सेठाणी ने कहा, 'तबियत में कुछ सुधार तो हुना है, पर अभी पूर्ण स्वस्थ नहीं हुए हैं । यदि सेठजी जीवीत रहते हैं तो एक लाख का लाभ है और यदि मृत्यु हो जाय तो सवा लाख का लोभ है।"
एक सखी ने पूछ ही लिया, "वह कैसे ?"
सेठानी ने कहा, “सेठजी में अभी काफी जीवन शक्ति है, घर दुकान का काम अच्छी तरह संभाल सकते हैं, अतः यदि जीवित रहें तो एक लाख रुपया कमा कर दे सकते हैं, और यदि मृत्यु हो तो सवा लाख का बीमा किया हुया है, सो तो मिलेगा ही।"
देखा आपने ! धर्म रहित अर्थ पुरुषार्थ की विडंबना को !! पति के मृत्यु की इच्छा उसकी जीवन संगिनी कर रही है । यही तो है राग द्वेष
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अर्थ पुरुषार्थी
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अादि कषायों की वृद्धि कर इस जीव को संसार में भटकाने वाला धर्म रहित अर्थ पुरुषार्थ !
भूत भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में होने वाले सारे युद्धों के मूल में यह संग्रहवत्ति ही है । धनवान् लोग अपनी संपत्ति को बढ़ाते गये। राजा महाराजा लोग अपने राज्य की सीमा को बढ़ाते गये । सत्ताधारी सत्ता के क्षेत्र में वृद्धि करते गये । तभी क्राँतियाँ हुई, युद्ध हुए, विग्रह खड़े हुए। सभी लड़ाई झगड़ों का मूल तो परिग्रह अर्थात् धन संपति, राज्य, शक्ति प्रादि का संग्रह ही है। धन की लालसा का बड़ा पाप निर्दयता है । धन की मूर्छा मनुष्य को निर्दयी बनाये बिना नहीं रहती।
___ आप पूछेगे कि संपत्ति के पीछे इतनी मूर्छा क्यों होती है ? क्योंकि धन ही शक्ति का माध्यम है । धन में अनेक वस्तुओं को खरीदने की शक्ति है। सुख के समस्त भौतिक साधनों की प्राप्ति धन से ही हो सकती है। इस शरीर रूपी मकान को छोड़ने की तैयारी करने वाला मनुष्य भी मरते दम तक धन का त्याग नहीं कर सकता। जब धन में इतनी शक्ति है, तब उसकी प्राप्ति में और उसकी स्थिरता में कितने परिश्रम और मावधानी की आवश्यकता होगी ? संग्रहवत्ति (परिग्रह) प्रात्मा को भिखारी बना देती है । आत्मा के अन्य लोक में चले जाने पर सारी संपत्ति यहीं पड़ी रह जाती है, तब उसे लेने के लिये वह आत्मा वापस नहीं आती, उसे कोई अन्य ही भोगते हैं।
सब का लक्ष्य अपने ध्येय में सफल होना है। मनुष्य पुरुषार्थ करता है किंतु सभी को सफलता नहीं मिलती। सफलता न मिलने का कारण क्या है ? वैदिक दर्शन वाले कहेंगे कि 'ईश्वर की ऐसी ही इच्छा थी।' 'ईश्वर को यही पसंद होगा ।' जैन दर्शन कहता है कि सफलता के पाँच हेतु हैं-काल, स्वभाव, कर्म, पुरुषार्थ और नियति ।।
प्रत्येक कार्य की सफलता असफलता काल पर आधारित है। सर्दी में गर्म पदार्थ और गर्मी में ठडे पदार्थ क्यों अच्छे लगते हैं ? क्योंकि उस काल का वह स्वभाव है। विश्व की प्रत्येक वस्तु समय (काल) सापेक्ष होती है।
औषधि कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो, वह गले के नीचे उतरते ही
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अर्थ पुरुषार्थ
असर नहीं करती। इंजेक्शन कितना ही अच्छा क्यों न हो, वह उसी क्षण रोग को नहीं मिटा सकता। शक्ति की औषधि कितनी हो शक्तिवर्धक क्यों न हो पर उसके लेते ही शक्ति प्राप्त नहीं हो जाती। लेटर बाक्स में पत्र डालते ही मिलने वाले को नहीं मिल जाता। कम से कम ३-४ दिन तो लग ही जाते हैं। तार टेलीफोन शीघ्रगामी साधन अवश्य है पर उनमे भी समय लगता ही है। फोन बुक करा कर घंटों इन्तजार करना पड़ता है तब कहीं बात हो पाती है ।
प्रकृति में परिवर्तन लाने वाला भी काल ही है। वैशाख ज्येष्ठ में सूर्य क्यों तपता है ? बसन्त पाते ही उपवन क्यों प्रफुल्लित हो जाते हैं ? दैनिक जीवन के प्रयोग की वस्तुओं में भी परिवर्तन काल ही करता है । आज से २५ वर्ष पूर्व चावल में जो सुगंध और स्वाद था वह आज नहीं रहा । दस वर्ष पूर्व आपने ग्राम का जो रसास्वादन किया वह आज के ग्राम में प्राप्त नहीं होता । क्यों ? इसलिये कि काल सभी पदार्थों में शनैः शनैः परिवर्तन करता रहता है ।
मात्र जड़ पदार्थों पर ही नहीं, मनुष्य के मन पर भी काल का प्रभाव पड़ता है। दीपावली के दिन यदि आपके मुह से किसी को गाली निकल जाये, तो स्वयं आपको बाद में पश्चात्ताप होगा कि आज नये दिन मेरे मुह से गाली क्यों निकल गयी ? यह है मनुष्य के मन पर काल का प्रभाव ।
निश्चय दृष्टि से काल का महत्त्व इसलिये है कि काल लब्धि की परिपक्वता पर ही आत्मा को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व प्राप्ति का मूल कारण काल लब्धि ही है। काल ही सब कुछ है । कहा भी है:
'कालः स्त्रजति भूतानि, काल: संहरते प्रजाः । कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालोहि हरती क्रमः ।।'
काल ही प्राणियों को जन्म देता है। काल ही प्राणियों का संहरण करता है । काल सोते हुये को जगाता है और काल ही क्रमशः मनुष्य के मन का हरण करता है ।
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काम पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम और मोक्ष चार पुरुषार्थ हैं, इन में से अाज का विषय काम पुरुषार्थ है। कहा गया है कि:
'जानन् बलाबल' अपने सामर्थ्य और अपनी शक्ति का विचार कर ही कार्य करना चाहिये । मेरे शरीर में कितना बल है, मेरे पास कितना धन है, मेरे घर में और जहाँ मैं रहता हूँ उस स्थान विशेष में कितनी शक्ति है, मेरी हैसियत कंसी है ? इन सभी बातों पर विचार करके ही कोई कार्य करना चाहिये। शक्ति न हो तो जहाँ गुडे रहते हों वहाँ नहीं जाना चाहिये। यदि शक्ति की उपेक्षा करते जायेंगे तो मृत्यु को निमन्त्रण देना पड़ेगा। एक अहंकारी सेठ यह जानकर भी गुड़ों की गली में गया । गुड़ों ने घेर लिया। दस पैसे का सिक्का दो. जो जीतेगा वह पापकी हाथ घड़ी लेगा, जो हारेगा वह आपका पाकेट लेगा । चित्त भी मेरी, पट भी मेरी, उपर से दो चार धौल थप्पड़ पड़ जाँय तो अलग । अतः हम में कषाय कितना है ? स्वभाव कैसा है ? काम कितना बढ़ गया है ? प्रादि बातों का विचार करके ही कार्य करना चाहिये।
यहाँ आज काम पुरुषार्थ का विवेचन करना है । काम विज्ञान विशेषज्ञ डा. फ्रायड की मान्यता है कि काम वासना ही मन की मूल शक्ति है । वह इसको लिबिडो' कहता है । यह एक फ्रांसीसी शब्द है जिसका अर्थ है जीवन शक्ति । वास्तव में कामवासना मन की मूल शक्ति नहीं है । वातावरण के अनुसार इसका प्रादुर्भाव तिरोभाव होता है। जिनको बाल्यकाल से ही ब्रह्मचर्य पालन और सय मी वातावरण मिलता है, वे कामवासना के संस्कारों से प्रायः अछते ही रहते हैं। जैन शास्त्रों में काम भोग को घणित तथा निंद्य माना गया है। कामवासना का दमन करने के दो उपाय हैं: (१) ब्रह्मचर्य (२) हठयोग ।
योग के आचार्यों ने हमारे शरीर में छः चक्र माने हैं, उसमें से दूसरे चक्र का नाम स्वाधिष्ठान चक्र है। जब तक यह चक्र विकसित नहीं होता तब तक मनुष्य कामवासना में रस लेता है। इस चक्र को जब विशुद्ध च
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१०० ]
काम पुरुषार्थ
कठमणि से संयुक्त किया जाता है, तब आनन्द की अनुभूति का स्रोत ही बदल जाता है और जब प्राज्ञा चक्र या भूचक्र विकसित हो जाता है, तब तो वासनाएँ क्षय होने लगती हैं। ज्यों ज्यों वासनाएँ क्षय होती है, त्यों-त्यों प्रानन्द अनुभूति बढ़ती जाती है। इस ग्रानन्दानुभूति का स्रोत इन्द्रिय सुख न होकर आत्मिक सुख होता है। मानस शास्त्र में इसी को उदात्तीकरण कहते हैं । योगशास्त्र के अनुसार यह कामचक्र का उद्ध्वीकरण कहलाता है । काम को शक्ति प्रात्मा की अपनी नहीं है, वह बाहर से आई हुई है। प्रात्मा का अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र प्रादि जो शक्तियां हैं उन पर उसने आवरण डाल दिया है। काम वासना के कारण आत्मा की मूल शक्तियें दबी हुई रहती हैं ।
___ 'काम' शब्द के दो अर्थ होते हैं:- १. इच्छा कामना और २. विषय वासना । धन, सपत्ति, ऐश्वर्य, पद प्रतिष्ठा प्रादि सभी इच्छा कामना हैं, अन्त में जब तृष्णा बढ़ते हुए भोग विषयों की इच्छा करने लगती है, तब वह विषय वासना हो जाती है । शास्त्र में कहा है:
'सल्लं कामा विषं कामा, कामा आसि विषोत्रमा ।'
काम भोग शूल (कांटे) की तरह चुभने वाले हैं। काम भोग विष के समान मारने वाले हैं । इसीलिये काम भोगों को विष की उपमा दी जाती है। आगे कहा है:
'कामे कमाहि कमियं खु दुक्खं ।' हे साधक ! तू कामना न कर, कामना ही दुःख का कारण है, जब तू कामनाओं का त्याग कर देगा, तब तेरे सब दुःख दूर हो जायेंगे । कामनाओं के वशीभूत जीवन मुज राजा की तरह दुःख प्राप्त करेगा। काम के त्याग से ८४ चौरासी तक जिन का नाम अमर रहेगा । तू काम के त्याग से स्थूलि भद्रजी की तरह सुखी होगा । प्रानन्दघनजी ने कहा है:
'ससरो मारो बोलो भालो, सासु बाल कुवारि ।। पियुजी मारो झूले पारणिये, हुँ छौं झुलावन हारि ।। नहि परणेली नहिरे कुवारि, पुत्र जणावण हारि। काली दाढी नो कोई न मूक्यो, हजुए हुं छु बाल कुवारि
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काम पुरुषार्थ
क्रोध ससरो बोलो भालो, झट देखाई पावे । माया सासु बाल कुमारि, चंचल थवाथी घर बांध्यो ।। पति अज्ञानावस्थामां झूले छे, हु झुलाउं छु। हुं नथी परणेली. नथी कुवारि । संकल्प विकल्प दो पुत्र, मारू पेट भरातुनथी ।'
इस छलनी माया ने किसो को नहीं छोड़ा। प्राणीमात्र कामवासना के वशीभूत हैं । संकल्प विकल्प के बीच झल रहे हैं। इस झूले से ऊपर उठने पर ही प्रात्मा का उर्वीकरण हो सकता है ।
तीर्थधामों के दर्शन से भव्यजीवों में दान, शील, तप एवं भावमय सम्यक् धर्म की जागति-भक्ति बढ़ती है । जिनेन्द्र-भक्ति कल्पतरु के समान मोक्षफलदायिनी है।
इस विश्व में प्रचलित सर्व सामान्य बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सुख की अभिलाषा रखता है। दुःख की लपटों में जलना कौन चाहेगा ? प्रतः दु:खमुक्ति के लिए किसी भी प्राणी को दुःख मत पहुचानो। यही शाश्वत सुख का रहस्य है।
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स्वभाव पुरूषार्थ
म्वभाववाद दर्शन मानता है कि सभी पदार्थ स्वभाव सिद्ध हैं। काल की भी शक्ति है. किंतु काल स्वभाव के विरुद्ध वस्तु का निर्माण करने में असमर्थ है। प्याज को सैकड़ों वर्ष तक खेत में रोपा जाय तो भो प्याज में से जामफल उत्पन्न करने की शक्ति काल में नहीं है । काल, पुरुषार्थ और कर्म सभी मिलकर भी विष को अमृत में परिवर्तित नहीं कर सकते । क्यों कि स्वभाव अपरिवर्तनीय है । मछली वर्षों तक पानी में रहती है किन्तु मनुष्य क्या उतने समय तक पानी में रह सकता है ? नहीं रह सकता, क्यो कि यह उसका स्वभाव नहीं है।
बीरबल ने कहा "जो व्यक्ति माघ की ठंड में सारी रात जमुना नदी में खड़ा रहेगा, उसे इनाम दिया जायेगा।" एक व्यक्ति सारी रात जमुना में खड़ा रहा, दूसरे दिन जब वह इनाम लेने पाया तो बादशाह ने कहा, "मेरे महल के झरोखे में जो दीपक जल रहा था, उसी की गर्मी से तू रात भर जमुना में खड़ा रह सका, फिर इनाम किस बात का ?" बीरबल ने देखा बेचारा गरीब मुफ्त में मारा जा रहा है । उसने एक तरकीब सोची बादशाह के महल के नीचे दो बांसों पर खिचड़ी की हंडिया बांधी और उसके नीचे चल्हा जला दिया। बादशाह ने पूछा, 'बीरबल क्या कर रहे हो ?" बीरबल बोला, "हुजूर ! खिचडो पका रहा हूँ ।।"
बादशाह ' अरे इतनी ऊंची हंडिया में खिचड़ी कैसे पकेगी ?"
बीरबल "हजर ! जैसे आपके झरोखे के दीपक की गर्मी से एक व्यक्ति रात भर जमुना में खड़ा रह सका, वैसे ही मेरे चूल्हे की गर्मी से बांस पर बंधो खिचड़ी भी रात भर में पक ही जायेगी। चूल्हे से बांस को दुरी तो कम ही हैं, झरोखे के दीपक से जमुना की दूरी तो कुछ अधिक हो होगी।"
बादशाह निरुत्तर हो गया, उसने जमुना में खड़े रहने वाले व्यक्ति को बुलवा कर इनाम दे दिया।
स्वभाव के चार प्रकार है:- १. वस्तु स्वभाव २. देश स्वभाव ३ जाति स्वभाव और ४. काल स्वभाव ।
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स्वभाव पुरुषार्थ
देशस्वभाव : यूरोप निवासियों की चमड़ी गोरो होती है। अफ्रीका निवासी हब शियों की चमड़ी काली होती है। भारतीयों की चमड़ी गेहूँ के रंग की होती है । भिन्न भिन्न देश के वायुमंडल का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है वह देश स्वभाव है। केशर सिफ काश्मीर में पैदा होती है। प्राम भी भारतीय मिट्टी में हो पैदा होते है, अन्यत्र नहीं। यह देश स्वभाव है।
जाति स्वभाव : मुर्गे के मस्तक को कलगी और मोर के सुन्दर पंख किस चित्रकार ने बनाये होंगे ? वैदिक दर्शन वाले कहेंगे कि विश्व का विचित्रता ईश्वर को इच्छा पर अवलंबित है, परन्तु जैन-दर्शन वाले तो इसे जाति स्वभाव मानते हैं। ग्राप तोते को पढ़ा सकते हैं, पर गधे को पढ़ा सकेंगे क्या ? नहीं, क्यों कि तोते में पढ़ने का स्वभाव है, गधे में नहीं ।
काल स्वभाव : काल का भेद होने से स्वभाव में भी भेद हो जाता है । एक वृक्ष दो माह में पलता है तो दूसरा छः माह में । जैन दर्शन में छ पारे का वर्णन है। पहले पारे के समय पृथ्वी जैसी सुन्दर थी वैसी सुन्दर दूसरे आरे में नहीं रहती ! तीसरे और चौथे बारे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष जा सकता है, कितु पाँचवें प्रारे में जन्मा व्यक्ति मोक्ष नहीं जा सकता । यही तो काल स्वभाव की निश्चित्तता है।
स्वभाववादी व्यक्ति कहता है कि प्रत्येक स्तु अपने स्वभाव में स्थित है । किंतु इस मान्यता से तो पुरुषार्थ ही बेकार हो जायेगा क्योंकि काल में वापस मुडने या लौटने का स्वभाव ही नहीं है।
दार्शनिक दृष्टि से स्वभाववाद का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभाव में स्थित है, फिर धर्मास्तिकाय गति सहायक ही क्यों होता है ? स्थिति सहायक क्यों नहीं होता ? अमूर्त मूर्तरूप में परिवर्तित क्यों नहीं होता ? क्योंकि परिवर्तन इसका स्वभाव ही नहीं है।
राज्य क्रान्तियों में अनेक स्वर्ण मुकुट भू-लुण्ठित हुए हैं और हो रहे हैं। परन्तु मुनिपुगवों के दिव्य मस्तक पर शोभित संयम रूपी स्वर्णमुकुट शाश्वत हैं।
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कर्म पुरुषार्थ
यदि स्वभाव को विभाव में परिवर्तित करने वाला कोई है, तो वह कर्म समवाय है । आत्मा तो शुद्ध स्वरूपी अविकारी है. परंतु उसे विकृति में लाने वाला कर्म है। जैन धर्म के जितने मुख्य सिद्धांत हैं, उनमें कर्म सिद्धांत भी एक मुख्य सिद्धांत है । विश्व की विचित्रता का मूल कारण कर्म ही है । एक ही मां के पेट से जन्म लेने वाले दो भाईयों में एक बुद्धिमान् है तो दूसरा मूर्ख । कर्म सिद्धांत को जानने से फायदा क्या ? उसको जानने से यह लाभ है कि फिर आपको अन्य किसी व्यक्ति पर क्रोध या बैर जागृत नहीं होगा । आप जब यह समझ जायेंगे कि प्रापत्ति को निमंत्रण देने वाला मैं स्वयं हूं तब अन्य पर क्रोध क्यों आयेगा ?
गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से पूछा, "भगवन् ! जीव प्रात्मकृत दुःख को भोगता है या परकृत दुःख को भोगता है, या उभयकृत दुःख को भोगता है ?"
भगवान् ने कहा, "देवानु प्रिय ! जीव स्वकृत कर्म को ही भोगता है ।
पाप कर्म के मूल चार भेद हैं (१) स्पष्ट, (२) बुद्ध, (३) निघत्त और (४) निकाचित ।
( १ ) स्पष्टः सुइयों के पेकेट में सभी सुइयें एक दूसरी से चिपकी रहेगी, पर जब आप उन्हें हाथ से स्पर्श करेंगे तो वे अलग अलग हो जायेंगी। इसी प्रकार उपयोग वाले प्राणी को अचानक ( सहसात्कार पूर्वक) कोई कर्म बंध हो जाय तो वह कर्म निंदा गर्हा से नष्ट हो जाता है । जैसे प्रसन्न राजर्षि ने विचार ही विचार में ७० वीं नरक तक के कर्म बाँघ लिये थे, पर जैसे ही उनका हाथ मस्तक की तरफ गया और अपने मुंडे हुए सिर का ध्यान आया, उनके विचार बदले, अरे कैसा युद्ध ? मैं तो साधु हूं, मुझे तो श्रात्मा के शत्रुओंों से युद्ध करना है | बस इतना सोचना था कि उनके सभी कर्म क्षय हो गये । जो कर्म पश्चात्ताप से सहज में क्षय हो जाँय, वे स्पष्ट पाप कह जाते हैं ।
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कर्म पुरुषार्थ
[ १०५
(२) बद्धकर्म : सभी सुइयों को धागे से बाँधने के बाद जब उनके बंधन को छोड़ दिया जाय तब वे सुइयें अलग-अलग हो जाती हैं । मृगावती साध्वी और प्रतिमुक्ता मुनि के पापों के समान होते है | चंदनबालाजी ने मृगावती साध्वी को ठपका दिया कि साध्वी को रात्रि में उपाश्रय से बाहर नहीं रहना चाहिये । मृगावतीजी इरियावहिया करती करती अपने अपराधों को त्रिकरण से क्षमाने लगी । क्षमाते क्षमाते ही केवलज्ञान केवलदर्शन हो गया । मृगावतीजी का बंधा हुआ कर्म बद्धकर्म समझना चाहिये । प्रतिमुक्ता मुनि कच्चे पानी में अपनी पात्री रखकर उसे नाव की तरह तैराने लगे । किंतु आलोचना करते करते शुभध्यान से उन्होंने भी केवलज्ञान प्राप्त किया क्योंकि उनका कर्म बद्धकर्म था । उनकी नौका तो सचमुच इस भवसागर को पार कर गई ।
(३) निघत्त कर्म : धागे में बधी हुई सुइयें यदि लंबे समय तक पड़ी रहे तो उनमें जंग लग जायेगा और वे एक दूसरी से चिपक जायेगी । तेल लगाने पर, श्राग में तपाने पर या पत्थर पर घिसने से वे फिर अलग हो जायेंगी । इसी प्रकार जो कर्म अहंभाव से या इन्द्रियों के रसपूर्वक जानबूझ कर उपार्जित किया हो और लंबे समय तक प्रालोचना नहीं करने से जीव प्रदेश के साथ गहरे बंध गये हों, वे कर्म तीव्र गर्हा, गुरु के समक्ष छमासी आदि घोर तप द्वारा क्षय हो जाते हैं, जैसे सिद्धसेनदिवाकरसूरि के हुए थे । उनके पाप कर्म के बंध को जानकर गुरु महाराज ने सिद्धिसेनसूरि को १२ वर्ष का पारांचित' प्रायश्चित्त दिया । उन्होंने भी १२ वर्षं तक वेष को गुप्त रख कर चरित्र पाला । उज्जैन में अवंति पार्श्वनाथ तीर्थ प्रकट किया । विक्रमादित्य राजा को प्रतिबोधित कर जैन धर्म का डंका बजाया और विक्रमादित्य से 'सर्वज्ञ पुत्र' का बिरुद प्राप्त किया । ( ४ ) निकाचित कर्म : जैसे सुइयों के समूह को अग्नि में जलाकर नई सुइयें बनायी जाय । जीव ने हेतुपूर्वक पाप किया हो और कहता हो कि "मैंने यह ठीक किया है, भविष्य में भी ऐसा ही करूंगा" इस प्रकार बार बार अनुमोदना करते हुए जीव ने गाढे कर्मों को बांधा हो, जिनका गुरु महाराज द्वारा दिये गये घोर तप से भी क्षय नहीं होता हो, उन्हें निकाचित पापकर्म कहा जाता है । जैसे श्रेणिक राजा ने सगर्भा हरिणी को जानबूझ कर बारण मारा श्रौर फिर उसकी अनुमोदना भी की जिससे निकाचित कर्म बंधे । बाद में अनाथि मुनि से समकित प्राप्त किया । भविष्य में तीर्थ कर होंगे ।
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नियतिवाद पुरुषार्थ
नियतिवाद या भाविभाव का तर्क है कि विश्व की व्यवस्था निश्चित है । दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन निश्चित है। जड़ और चेतन सभी पदार्थ नियतिवाद की धुरी पर चल रहे हैं। मनुष्य पुरुषार्थ करता है और पुरुषार्थ करना ही मनुष्य के वश में है, परन्तु होगा वही जो नियति में निश्चित है । जब कभी कोई दुर्घटना हो जाती है तब हम यह सोचते हैं कि यदि हम घर से निकले ही न होते तो आज दुर्घटना ग्रसित न होते । परन्तु यह तो हमारी अल्पबुद्धि के विकल्प हैं, वास्तव में ज्ञानी भगवान् की दृष्टि में तो वैसा होना ही था ।
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कृष्ण ने नेमिनाथ भगवान् से प्रश्न किया कि "द्वारका का विध्वंस किसके हाथ होगा ?"
नेमिनाथ भगवान् ने कहा, "एक दिन द्विपायन ऋषि के क्रोध की ज्वाला में द्वारका नष्ट होगी ।"
कृष्ण ने फिर पूछा, "भगवन् ! क्या कोई ऐसा उपाय है जिससे द्वारका नष्ट न हो ?"
नेमिनाथ भगवान् ने कहा " हे कृष्ण भाविभाव को कोई नहीं टाल सकता । फिर भी द्वारका में जब तक प्रायंबिल तप चलता रहेगा, तब तक द्वारका का कुछ नहीं बिगड़ सकता
"
इसके पश्चात् ११ १२ वर्ष बीत गये । लोगों ने समझा द्विपायन आकर चले गये होंगे। लोगों ने प्रायंबिल तप बन्द कर दिया । एक दिन द्विपायन वहां आये और किसी यादव ने मदिरा के नशे में उन्हें कुछ उलाहना दे दिया । बस द्विपायन का क्रोध भड़क उठा उन्होंने शाप दे दिया और तप-विहीन नगर जलकर भस्म हो गया। जब चारों तरफ आग लग रही थी तब आकाशवाणी हुई कि "जो दीक्षा ले लेगा वह इस अग्नि से बच जायगा।" फिर भी एक भी व्यक्ति ने दीक्षा नहीं ली । कृष्ण बलभद्र खड़े खड़े देखते ही रह गये । कोई बचने की कोशिश करते तो देव उन्हें पकड़ कर फिर अग्नि में डाल देते । कृष्ण बलभद्र ने माता-पिता को रथ में
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नियतिवाद पुरुषार्थ
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बिठाया, स्वयं घोड़ों के स्थान पर रथ में जुड़े और रथ को खींचने लगे। रथ जब महल के द्वार से निकल रहा था तब धड़ाम से रथ द्वार पर गिरा जिससे माता-पिता वहीं जलकर मर गये । हाथी, घोड़ा, रथ, सेना, धन, संपत्ति, महल प्रालिकाएं आदि से स्वर्ग के समान सुसज्जित द्वारका नष्ट हो गई । आप सोचते होंगे कि यदि द्वारका में एक व्यक्ति भो प्रायविल तप चालू रखता, तो शायद द्वारका जलकर नष्ट न होती । किंतु जो होना होता है, वह तो होकर ही रहता है, द्विपायन तो निमित्त मात्र हैं। ज्ञानी के ज्ञान में तो उसी क्षण, उसी पल द्वारका का नाश स्पष्ट दिखाई दे रहा था । हमारी स्थूल आँखें तो बाहर के निमित्त को ही देखती हैं और निमित्त पर प्रसन्न या क्रोधित होती हैं । सर्वज्ञ के ज्ञान में तो यह स्पष्ट दिखाई देता है कि यह कार्य इस क्षरण, इस प्रकार होने वाला है। पांच पांडव जैसे शक्तिशाली व्यक्तियों के होते हुए भरी सभा में द्रोपदी का चीर खींचा गया, हमें यह घटना प्रतहोनी भले ही लगे, पर ज्ञानियों के ज्ञान में तो यह घटना इसी प्रकार घटित होना पहले से ही निश्चित थी ।
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एक व्यक्ति प्राज दीक्षा लेता है और कल छोड़ भी देता है । सर्वज्ञ अपने ज्ञान चक्षु से देखते हैं कि यह कल दीक्षा पालने वाला नहीं है, यह तो शासन का महान् शत्रु बनेगा, फिर भी दीक्षा देते हैं या नहीं देते ? अवश्य दीक्षा देते हैं आगम का पाठ भी है कि 'ऊपर से गुरु उतर रहे थे तब शिष्य ने एक बड़ी शिला उठाई और गुरु के ऊपर फेंक दी । यह तो संयोग की बात ही थी कि गुरु ने दोनों टांगें चौड़ी कर दो और शिला उन दोनों टांगों के बीच आकर गिरी जिससे गुरु की कोई चोट नहीं आई। भगवान् महावीर ने जमालि को दीक्षा दी, स्वयं का शिष्य बनाया । जानते थे कि यह दीक्षा लेकर छोड़ने वाला है, आगे चलकर यह निह्नत्र बनेगा, फिर भी उसे दीक्षा दी क्योंकि यह घटना ऐसे ही घटित होने वाली थी, उसे रोकने की शक्ति स्वयं भगवान् में भी नहीं थी ।
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अन्तर है ? यदि और यदि प्रशुभ
प्रश्न उठता है कि भाविभाव और कर्म में क्या किसी के शुभभाव का उदय है तो शुभ होने वाला ही है का उदय है तो अशुभ होने वाला ही है, तब फिर भाविभाव ( ( होनी) को कर्म से अलग क्यों माना गया ? बात यह है कि कर्म सिर्फ आत्मा (चेतन्य ) को लगता है । परन्तु पत्थर, लकड़ी, कपड़े आदि जड़ वस्तुनों से कर्म नहीं चिपकला | सूर्य के बाद चन्द्र और रात के बाद दिन आता है तो इसके
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नियतिवाद पुरुषार्थ
पीछे कौन-सा कर्म छिपा है ? अग्नि की ज्वाला ऊपर ही जाती है, इसके पीछे कौन-सा कर्म छिपा है ? यहां कर्म नहीं, किंतु नियति (भाविभाव) ही है। कर्म स्वयं भी नियति के अधीन है। तीर्थकर भगवान् स्वयं अपने ज्ञान से देखते हैं कि अमुक व्यक्ति अमुक समय क्रोध करेगा, कषाय मोहनीय का वध करेगा। तीर्थ कर किस आधार पर यह सब देखते हैं ? भाविभाव (नियति) के आधार पर । अमुक प्रात्मा अमुक समय कर्म से विमुक्त बनेगी । नये जन्म के लिये तो कर्म को आधार बनाया जा सकता है, किंतु कर्म विमुक्त बनने के लिये हम किसको आधार मानेंगे। उत्तर स्पष्ट है, होनहार बलवान !!
पाप कहेंगे कि जब विश्व की सब व्यवस्था नियत है तो फिर पुरुषार्थ को स्थान ही कहाँ है ? जब सभी को अपने भाग्यानुसार सब कुछ मिलेगा ही तब पुरुषार्थ कौन करेगा ? बात यह है कि जैसे कर्म नियत है वैसे ही पुरुषार्थ भी नियत है । अमुक समय कार्य होने वाला है यह तो निश्चित है, पर इसमें आपको अमुक पुरुषार्थ तो करना ही पड़ेगा। पुरुषार्थ करोगे तब ही आपको सफलता मिलेगी । जब सफलता नहीं मिलती, तब निराशा पाकर घेर लेती है, तब नियतिवाद (भाविभाव) एक संदेश देता है, "यह काम तो इसी प्रकार होने वाला था फिर शक किस बात का ?" हमारा काम तो पुरुषार्थ करना है, फिर भाग्य में जो लिखा है वह तो होकर रहेगा। अग्रे वर्तमान जोगी हमें वर्तमान में रहना है, भविष्य में नहीं । आगे जो होगा, वह देखा जायगा, अभी तो हमें परिश्रम करना ही है, फल तो भविष्य के हाथ है, भाग्य के या कहिये नियति के हाथ है ।
जिनेन्द्र-मार्ग की प्रतीति किये बिना यह जीव जन्म, जरा, मरण, रोग और भय से परिपूर्ण भवअटवी में चिरकाल से घूम रहा है।
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पांच महाव्रत की पांच भावना भावनाभिर्भावितानि पंचभिः पंचभिः क्रमात् । महाव्रतानि नो कस्य साधयन्त्य व्ययं पदम् ।।'
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने योगशास्त्र में चारित्र योग की परिभाषा करने के बाद उनके भेदों का निपरूण किया है। उन्होंने चारित्र के पाँच भेद बताये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । इन महाव्रतों को दृढ करने के लिये प्रत्येक महाव्रत की ५-५ भावनाएं होती हैं। कहा भी है
'भावना भवनाशिनी, भावना भववर्धनी ।' जैसी आपकी भावना होगी, वैसा ही फल मिलेगा। भावना से संसार-वृद्धि भी हो सकती है और संसार-भ्रमण का नाश भी हो सकता है।
उदायी राजा विचार करता है कि भगवान् स्वयं मेरे पास पधारें और उपदेश दें तो मैं दीक्षा ग्रहण करू । उसकी भावना सफल हुई ।
मुनिसुव्रत भगवान् के पूर्व भव का मित्र अश्वमेध यज्ञ में होमा जा रहा था, वह सोच रहा था कि भगवान् स्वयं पधार कर मेरी रक्षा करें, ऊसकी भावना भी फलवती हुई ।
उदायनमंत्री युद्ध में सोचता है कि अंतिम समय मुनि के दर्शन हो जाय तो अच्छा । भाट चारण ने मुनि का वेष धारण कर उसे दर्शन दिये और उसकी भावना सफल हुई ।
इलायची पुत्र रस्सो पर नृत्य करते हुए सोचता है कि राजा की दृष्टि मेरी पत्नि पर है । एक ओर पद्मिनी जैसी सुदर स्त्री मुनि को मोदक बहराती है, पर मुनि उसके सामने आँख उठाकर भी नहीं देखते । मोदक लेने से मना करते हैं। राजा मेरी घात चाहता है, ऐसा विचारते विचारते ही उनका कार्य सिद्ध हो जाता है ।
चिलाती पुत्र एक हाथ में सुषमा का मस्तक और दूसरे हाथ में
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पांच महाव्रत की पांच भावना
खून से सनी तलवार लिये है, फिर भी मुनि को पूछता है कि धर्म क्या है ? मुनि कहते हैं उपशम सवर और विवेक में ही धर्म है ।
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दृढ़ प्रहारो नगर के ४-४ दरवाजों पर मौनपूर्वक ताड़ना तर्जना सहन करता है । सोचता है ये नगर निवासी तो मुझ अकेले को ही मारते हैं, मैंने तो गाय, भ्रूण, स्त्री, ब्राह्मण की कई हत्यायें की है ।
भावना की वृद्धि और एकाग्रता की वृद्धि के लिये काउस्सग्ग ( कायोत्सर्ग) आवश्यक है । शरीर रूपी पृथ्वी पर शुभकर्म रूपी दिन और अशुभ कर्म रूपी रात दिखाई देती है । पर शरीर से भिन्न आत्मसूर्य के प्रकाश में आने पर रात्रि दिन से परे केवलज्ञान प्रकाशित होता है । केवलज्ञान की प्राप्ति में कायोत्सर्ग का फल है ।
हम मनुष्य हैं, हमारे पास चार गतिशील तत्त्व हैं: शरीर, श्वासोश्वास, वाणी और मन । ये राग द्वेष से प्रतिक्षण प्रकंपित होते रहते हैं । श्रावश्यकसूत्र में हरिभद्रसूरिजी म. सा. ने कायोत्सर्ग का वर्णन किया है । तत्त्वार्थसूत्र टीका में इसका वर्णन है । योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में भी इसका वर्णन है ।
डाक्टरों का कहना है कि ५० प्रतिशत रोग तनाव के कारण होते हैं । तनाव दूर करने का उपाय शवासन है । कायोत्सर्ग से शरीर तथा बुद्धि की जड़ता दूर होती है । मेघविजयजी म. सा. ने ग्रहंद गोता में कहा है कि वायु के उदय से चित्त में जड़ता अस्थिरता तथा भय पैदा होता है । ज्ञानाराधन से वायु की शुद्धि होती है । चारित्राराधन से कफ का नाश होता है । काउस्सग्ग निर्जरा का प्रसारण हेतु है । काउस्सग्ग तीन प्रकार से किया जाता है: सोते-सोते, बैठे-बैठे, खड़े-खड़े । इसके करने से सहनशीलता, एकनिष्ठा और मन, वचन, काया की एकाग्रता प्राप्त होती है । शरीर की जड़ता और मन की मंदता दूर होती है । धातु एवं वायु का वैषम्य दूर होकर बुद्धि एवं विचार-शक्ति की वृद्धि होती है ।
मैं तप से दुर्बल होकर, भय अथवा उपसर्गों से निर्भीक बनकर श्मशान में रह कर उत्तम पुरुषों की करणी कब करूगा ? वन में पद्मासन से काउस्सग्ग में बैठा हूँगा और हरिण के बच्चे मेरी गोद में आकर खेलेंगे । वृद्ध हरिण मेरे मुँह को प्रचेतन समझ कर कब सूघेंगे ? उन्नीस
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पांच महाव्रत की पांच भावना
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दोष से रहित शुद्ध काउस्सग्ग मैं कब करूगा ? ऐसी भावना होनी चाहिये। छद्मस्थ अवस्था में तीर्थ कर और जिनकल्पी मुनि खड़े-खड़े हा का उस्सरग करते हैं।
'सांम्यं स्यान्निर्ममत्वेन तत्कृते भावना श्रयेत् ।। अनित्यतामशरणं भवमेकत्व मन्यतां ।'
यो. शा. समभाव की प्राप्ति निममत्व के द्वारा होतो है। निर्ममत्व के लिये भावनाओं का प्राश्रय करना चाहिये । भगवान ने दो प्रकार का धर्म कहा हैः-श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । यों ता दोनों ही मुख्य हैं, किंतु चारित्र धर्म में उत्कृष्ट भावना करने का आदेश है । वर्तमान काल और संघया की अपेक्षा उत्कृष्ट धर्म नहीं कर सकते पर भावना तो कर ही सकते हैं। अन्य दर्शन में भी भर्तृहरि आदि ने भावना को गंगा नदी या शत्रुजय की उपमा दी है। इनके किनारे शिलाखंड पर बैठ कर प्रभ का ध्यान करू
बड पर बैठ कर प्रभु का ध्यान करू । वहाँ ध्यान में मुझे संसार की कोई अपेक्षा न हो।
योगी और त्यागी को ही ध्यान होता है । यदि अशुभ विचार या ही जाते हैं या न करने योग्य हो ही जाता है तो यह अापकी कायरता है । योग के अभ्यास में ऐसी कायरता कैसे चलेगी?
एक ब्राह्मण ने अपनी तीन पुत्रियों की शादी की। जब वे ससुराल जाने लगी तो कहा, "रात को सोते समय पति को हल्का सा धक्का लगा देना। पहली पूत्री ने जब पति को धक्का लगाया तो वह बीबी के पाँव दबाने लगा और पूछा, 'तेरे पाँव को चोट तो नहीं लगी ?" जब कन्या ने अपने पिता को यह बात कही तो पिता ने कहा तेरा पति नामर्द है । दूसरी कन्या ने भी जब पति को धक्का लगाया तो वह गर्म हो गया, दो चार गाली सुनाई, जब पत्नी रोने लगी तो उसे पुचकार कर खुश कर दिया। इस कन्या के विषय में ब्राह्मण ने कहा, "तेरा पति अर्द्ध मर्द है । जब तेरा पति गर्म हो तो तू नरम होजाना । जब पति नरम हो तब अपना काम निकाल लेना ।' तीसरी कन्या ने भी जब अपने पति को धक्का लगाया तो पति ने चोटी पकड़ कर उसे घर से निकाल दिया । कन्या के पिता ने अपने दामाद से माफी माँगी और कन्या से कहा "तेरा पति पूरा मर्द है । इसकी आज्ञा में ही रहना।"
जगत् में जीवात्मा भी तीन प्रकार के हैं । एक जो विषय भोगों के
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पांच महाव्रत की पांच भावना
दुखों को सहन करता है, फिर भी उन्हें छोड़ नहीं सकता, वह नामर्द पुरुष है । दूसरा वासना को घृणा तो करता है, फिर भी उसमें तल्लीन हो जाता है, वह अर्ध मर्द है। तीसरा वासना के वशीभूत नहीं होता, वह पूरा मर्द है।
अशुभ विचार विषय-वासना की देन है। मन में अमृत भी भरा है। और विष भी भरा है। अनादि काल से भरे विषय विष का वमन कराने के लिये शत्रुभावना रूपी औषधि का सेवन अत्यंत उपयोगी है। कहा है
___ 'जं चलं तयं चित्तं ।' जो अस्थिर है, चंचल है, वह चित्त है। चित्त के तीन भेद हैंभावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता । मैत्री आदि चार या अनित्यादि १२ भावनाएं ध्यानाभ्यास के लिये उपयोगी हैं । स्मृति ध्यान से भ्रष्ट चित्त चेष्टा अथवा गहरी विचारधारा अपनाने का प्रयत्न अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा न हो तो चिंता पाकर अपना अड्डा । जमा लेती है। अनेक प्रकार की चिंताएं मनुष्य के कलेजे को खा जाती है ।
एक सेठ का लड़का घोर जंगल में गया । ज्येष्ठ का महीना, भयंकर प्यास लगी । गंदे खड्ड में पानी देखा, पी लिया । घर पहुँचते ही पेट में भयंकर दर्द हो गया। वैद्य को दिखाया, उसने जान लिया कि पानी में जलोदर के कीटाणु होंगे जो पेट में उथल-पुथल कर रहे हैं । उसने हुक्के का पानी पिलाया, जिससे वमन होकर कीटाणु निकल गये। जलोदर कीटाणु की भाँति चिता भी प्रापके कलेजे को खाती है ।
शादी की सुहागरात थी। पति पत्नी से पूछता है, "अपनी संतान सुन्दर रूपवान होगी, उसका नाम क्या रखोगी ?" पत्नी ने कहा, 'उसका नाम शेरखाँ रखेंगे । मैं उसे बहुत संभाल कर रखूगी, कहीं नजर न लग जाय।" पति ने मजाक किया ! “क्या डाकिन खा जायगी ? कहीं शेरखां मर गया तो ?" "क्या कहा ? शेरखां मर गया, हाय ! हाय ! दोनों जोरजोर से रोने लगे
'हाय हाय रे शेर मियां स्वर्गे सिघाव्यां । शाने काजे अल्ला हे बुलाव्या ।।
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पांच महाव्रत की पांच भावना
लोगों ने समझा बड़े मियां के ससुराल में कोई मर गया है। पासपड़ोस के लोग रोते चिल्लाते इकट्ठे हो गये। किसी ने पूछा, ''कौन मर गया ?'' मियां बोले, "अाज तो सुहागरात है, होने वाला शेरखां मर गया ।'' ज्ञानी कहते हैं, भविष्य को चिता में अपना वर्तमान क्यों जला रहे हैं ?
'कार्यं च किं ते परचिंतया च ।' बिना मतलब को चिता-शोक जीव को समाधि नहीं देता। इसलिये चिंता का त्याग करना चाहिये । चिता को दूर करने के लिये भावना और अनुप्रेक्षा से चित को भक्ति करना चाहिये। उसके द्वारा एकाग्रता प्राप्त होगी। शुभ ध्यान का स्थान अन्तर में प्रखड चलता रहेगा।
स्वस्थ चित्त हो तो दुःखो अवस्था में भी मार्ग निकल जाता है । दौलत नामक एक मुनीम किसो सेठ के यहाँ कई वर्षों से नौकरी करता था, बहुत भला, नेक और संतोषी था। एक दिन सेठ ने दौलत को कहा, 'व्यापार मंदा हो गया है, इस दीपावली से तुम्हारी छुट्टी कर देंगे, दूसरी जगह नौकरी ढूढ़ लेना।'' मुनीम को भयंकर चिता हो गई । कहाँ दूसरी नौकरी ढंढगा, क्या होगा? फिर सोचा व्यर्थ चिता से क्या फायदा ? जब चिंता का त्याग कर दिया तो विचार शक्ति फिर से प्रा गई। दोपावली के दिन सेठजी लक्ष्मी पूजा कर रहे थे, तभो दौलत वहाँ पहुँचा और जोर से
आवाज लगाई, "बोलो सेठ ! दौलत रहे या जाय ?" सेठ विचार में पड़ गया, लक्ष्मी पूजा के समय कैसे कहे कि दौलत (धन) जाय ? सेठ ने कहा दौलत रहे । मुनीम ने फिर पूछा, "दौलत थोड़े दिन के लिये रहे या सदा के लिये रहे ?" सेठ ने सोचा लक्ष्मी पूजा के समय यदि कह दूं कि दौलत जाय तो अपशकुन होगा । अतः बोले, ''दौलत मेरी पेढ़ी में सदा के लिये रहेगा।" यदि दौलत चिंता में हो रहता तो मर जाता, परन्तु उसने चिता का त्याग कर दिया इसलिये सुखी हुमा ।
मैत्री आदि चार भावना ध्यान के लिये उपयोगी है। भावना के बाद अनुप्रेक्षा का नंबर पाता है। जिन तत्त्वों को आप भूल गये हैं, उनका चिंतन करके फिर से याद करे, अर्थ के विचार में गहरे उतरे, धर्म कर्म के मर्म को बराबर समझे, उसको अनुप्रेक्षा कहते हैं।
एक ही वस्तु में चित्त की स्थिरता-ध्यान अंतरमुहूर्त तक रहता है। अंतरमुहूर्त की व्याख्या इस प्रकार है:
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११४ ]
पांच महाव्रत की पांच भावना
'इह मुहूर्तः सप्त सप्तति लव प्रमाण: काल विशेषः ।'
७७ लक प्रमाण काल को एक मुहर्रा कहा जाता है। जिस काल खंड के टुकडे नहीं हो सकते उसे समय कहते हैं। समय अतिसूक्ष्म होता है, उसके भाग की कल्पना भी नहीं की जा सकती । ऐसे असंख्यात समय का एक श्वासोश्वास होता है। निरोगी हष्ट-पुष्ट व्यक्ति श्वासोश्वास लेकर छोड़े उसे प्राण कहते हैं। ७ प्राण का एक स्तोक होता है । ७ स्तोक का एक लव होता है । ७७ लव का एक मुहर्त होता है। उससे कुछ कम को अन्तमुहूत्र्त कहते हैं। छद्मस्थ जीवों का ध्यान अधिक से अधिक अंतमुहूर्त का हो सकता है। उससे ज्यादा एक साथ चित्त की स्थिरता नहीं टिक सकती।
खेद है, आज के विज्ञान-युग में जबकि मानव का मस्तिष्क अन्तरिक्ष की खोज में तत्पर है, तब वह अपने में ही विद्यमान शक्ति का अन्वेषण नहीं करता । यदि यह क्षणमात्र को भी अपनी ओर दृष्टिपात करें, अपने यथार्थ स्वरूप को देखें, तो इसका सहज ही उद्धार हो जाए।
आत्मा अनन्त वैभव का पुज है । वह अप्रतिम है। उसके समान संसार में अन्य अमूल्य पदार्थ नहीं है।
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अहिंसा
नय प्रमाद योगेन जीवितव्य परोपणम् । त्रसोनां स्थावराणां च तद्वहिंसाव्रतम् ।।
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भारतवर्ष सदैव से अहिंसावादी देश रहा है । यहां पर धर्म और अध्यात्मवाद का विशेष प्रभाव रहा है, किंतु वर्तमान में विज्ञान ने अपना पंजा इतना अधिक फैलाया कि आत्मवाद और धर्मवाद से लोगों को श्रद्धा डगमगाने लगी | आज अधिकांश लोगों की दृष्टि ग्रात्मवाद से हटकर भौतिकवाद में जा टिकी है ।
विश्व में मुख्य दो तत्त्व हैं, एक जड़ और दूसरा चेतन । जड़ भी दो प्रकार की है रूपी और ग्ररूपी । रूपी जड़ को जैन दर्शन में पुद्गल कहा जाता है, जिसमें वरणं, गंध, रस, स्पर्श होते हैं । वैज्ञानिक जो भी अनुसंधान कर रहे हैं, वह रूपी जड़ पुद्गल की कर रहे हैं, प्ररूपी की नहीं । भगवान् महावीर सर्वज्ञ थे अतः उन्हें भी जड़ का पूर्ण ज्ञान था, उन्होंने २५०० वर्ष पहले ही पुद्गल के छः प्रकार बताये थे । प्राज का विज्ञान तीन प्रकार का पुद्गल ही मानता है । सालिड, लिक्विड और गैस ( ठोस, तरल, वाष्प ) मेटर और एनर्जी ( Matter & Energy ) क्या है यह विज्ञान के समझ में नहीं आ रहा था। भगवान महावीर ने मेटर और एनर्जी: धूप, छाया, गर्मी, विद्युत और मेग्नेटिज्म आदि को पुद्गल रूप मानते हुए उनमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श का अस्तित्व बताया । इन्हें रूपी और पकड़ में आने योग्य कहा ।
अच्छा तो अब हम पहले चैतन्य की ही बात करते हैं । बारह व्रत की पूजा में कहते हैं कि "हे प्रभो ! केशर का घोल करके आपकी पूजा करूंगा । परन्तु स्थूल प्रारणातिपात व्रत के प्रतिचार से मेरा हृदय धूज रहा है । जीव हिंसा न करने का प्रत्याख्यान करू और ग्रागम में कहे हुए 'दुविहं तिविहेां' वाक्यानुसार निरंतर प्रवृत्ति करू । मन, वचन, काया से हिंसा करूं नहीं और कराऊं नहीं ।" यहां व्रती श्रावक की बात चल रही है । बारह व्रतधारी श्रावक को सम्यक्त्व का मूल कहा जाता है । इन बारह व्रतों में से प्रारम्भ के आठ प्रत्याख्यान स्वरूप हैं और अन्तिम चार आरा
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अहिसा
धना स्वरूप है । सम्यक्त्व मूल के दो विभाग हैं अणुव्रत और शिक्षाव्रत । अणुव्रत में से ही गुरगवत निकले हैं क्योंकि गुरगव्रत प्रण व्रतों का विशेष पालन करवाते हैं ।
प्रमाद के कारण से त्रस एवं स्थावर जीवों के प्राणों का नाश नहीं करने को अहिंसा व्रत माना गया है जैसे संसार में अणु परमाणु से सूक्ष्म कोई पदार्थ नहीं है और आकाश से विशाल भी कोई पदार्थ नहीं है, वैसे ही विश्व में अहिंसा के समान कोई ब्रत नहीं है ।
साधनों के पाँच महाव्रतों में पहला महाव्रत अहिंसा है और श्रावकों के बारह व्रतों में सबसे पहला स्थूल प्रारणातिपात-विरमरण (स्थूल-प्राणियों की हिंसा नहीं करना है) प्राणों का अतिपात या विनाश दो प्रकार से हो सकता है-- (१) सकल्प जन्य और (२) प्रारंभ जन्य। श्रावक को सकल्प जन्य (जान बूझ कर) हिंसा नहीं करनी चाहिये। प्रारभ जन्य हिंसा का त्याग श्रावक नहीं कर सकता क्योंकि उसे खेती व्यापार उद्योग और खाने पकाने के सभी काम करने पड़ते हैं, जिसमें प्रारभ जन्य हिंसा होती है ।
समस्त हिंसा को चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है१. संकल्पी हिसा : सकल्प पूर्वक की जाने वाली हिंसा। २. प्रारंभी हिंसा : भोजन आदि बनाने में होने वाली हिंसा । ३. उद्योगी हिंसा : असि मसि, कृषि (युद्ध, व्यापार, खेती) आदि __ में होन वाली हिंसा । ४. विरोधी हिंसा: आत्म रक्षार्थ होने वाली हिंसा ।
इन चार प्रकार की हिंसाप्रों में गृहस्थ सकल्प पूर्वक द्रव्य पौर भाव से हिंसा न करने का त्याग करता है। क्योंकि द्रव्य से हिंसा होने पर भी यदि उसका भाव हिंसा की तरफ नहीं है तो उसे पाप बंध नहीं होता।
हिसा के अन्य तीन प्रकार भी हैं -- (१) हेतु हिंसा, (२) स्वरूप हिंसा और (३) अनुबंध हिंसा ।
मैत्री भाव के अभाव के कारण जो हिंसा होती है उसे हिंसा कहा जाता है। यदि कोई मनुष्य किसी अन्य प्राणी को मारने के इरादे से
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अहिंसा
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मारने की चेष्टा करे. किंतु मारे जाने वाले प्राणी का श्रायुष्य और पुण्य प्रबल होने से मारने वाले की प्रवृत्ति सफल नहीं होती, फिर भी हृदय में मारने का संकल्प होने से और मारने की शारीरिक प्रवृत्ति होने से मारने वाले को हिंसा का पाप अवश्य लग जाता है । कभी कभी पराधीनता या शक्ति की कमी के कारण हिंसा की शारीरिक प्रवृत्ति नहीं हो पाती, किन्तु मन में हिंसा के भाव होने से प्रात्मा को हिंसा के अशुभ परिणाम बंध जाते हैं । धवल सेठ श्रीपाल को मारने गया तब पाँच पिसलने से सीढ़ी पर से गिर पड़ा और वह कटार स्वयं के पेट में लग गई, जिससे वह मर गया । बार बार आपत्ति से बचाने वाले श्रीपाल को मारने के अशुभ परिणाम स्वरूप और अशुभ प्रवृत्ति द्वारा वह नरक में गया । यहाँ प्रवृत्ति और परिणाम दोनों अशुभ थे फिर भी स्वरूप हिंसा का अभाव था क्योंकि श्रीपाल को कोई पीड़ा नहीं पहुँची थी, किन्तु हेतु का तो प्राबल्य था ही । धवल सेठ और तंदुल मच्छ दोनों के दृष्टांत में हेतु हिंसा तो है पर स्वरूप हिंसा नहीं है ।
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स्वरूप हिंसा उसे कहते हैं जिसमें पृथ्वीकाय आदि छ काय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के प्राणों का वियोग हो अथवा जीवों को थोड़ी बहुत पीड़ा हो । श्रेणिक राजा ने शिकार में गर्भवती हरिणी को तीर मारा जिससे हरिणी और उसके बच्चे की मृत्यु हो गई । इसमें हेतु हिंसा और स्वरूप हिंसा दोनों हैं । इसी कारण श्रेणिक को ८४ हजार वर्ष तक नरक में रहना पड़ेगा | कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी भी छोटे बड़े जीव को प्रकट रूप से मारने का इरादा न हो किन्तु छोटे छोटे जीवों की रक्षा का उपाय भी न किया हो तो ऐसी अवस्था में हेतु हिंसा होती है ।
शास्त्र में कहा है
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'निशल्यो व्रती'
अर्थात् शल्य रहित व्यक्ति, जिसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहता, वह ही व्रती बन सकता है । दंभ, ढोंग, धतिंग, कपट, छल वाला व्यक्ति चाहे दिखावे के लिये व्रत भले ही धारण करले, पर वह वास्तव में व्रती नहीं हो सकता । अतः दंभ और छल कपट से जीवन को बचाने की आवश्यकता है ।
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सत्य
संसार में कोई भी वस्तु या स्थान ऐसा नहीं है जहाँ सत्य न हो। जिस वस्तु में सत्य नहीं है वह वस्तु किसी काम की नहीं रहती। जैसे दूध में घी सत्य है, अग्नि में उष्णता सत्य है, सूर्य में प्रकाश सत्य है, तिल में तैल सत्य है और पुष्प में गव सत्य है । यदि दूध में से घी निकाल लिया जाय तो क्या कोई उमे दूध कहेगा ? नहीं कहेगा।
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' सत्य अनन्त ज्ञान स्वरूप है। सत्य ही ब्रह्म है ।- (उपनिषद्) व्याकरण कर्ता की दृष्टि से
'कालत्रये तिष्ठतीति सत् तस्य भावः सत्यम् ।' जो त्रिकाल में विद्यमान रहे, एक समान रहे, वह सत् कहलाता है और सत् के भाव को सत्य कहते हैं, विश्व में धर्म भिन्न भिन्न हैं, परन्तु सभी धर्मों का सत्य तो एक ही है। सभो जीवों के हित की भावना मानसिक सत्य है। विवेकपूर्ण वचन सत्य है। किसी का अहित न हो वैसी प्रवृत्ति करना कायिक सत्य है। राजा हरिश्चन्द्र, महाराणी तारा और कुमार रोहित ने सत्य के लिये क्या दुःख भोगे यह तो आप सबको विदित ही है।
भीष्म पितामह बाणों की शैय्या पर सोये हुए थे तब उन से पूछा गया कि, "इतने भयंकर युद्ध में भी जब आपको आँसू नहीं पाये तो अब आँसू क्यों ?" उन्होंने कहा, "मैं मृत्यु से नहीं डरता, किंतु मैंने कौरवों का अन्न खाया था जिससे मैं द्रोपदी की रक्षा नहीं कर सका । अब पश्चात्ताप कर रहा हूं।
पूछा, "अापके शरीर और मुह पर इतना तेज क्यों है ?'' भीष्म, 'यह सब सत्य और ब्रह्मचर्य का ही प्रभाव है।"
बचपन में भीष्म का नाम गांगेय था क्योंकि उनकी माता का नाम गंगा था । पिता का नाम राजा शान्तनु था। गांगेय राजकुमार था। एक बार राजा शान्तनु एक मच्छए की पुत्री सत्यवतो पर मोहित हो गये
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सत्य
और उससे विवाह करने को इच्छा प्रकट की । मछुए ने विवाह के लिये यह शर्त रखी कि यदि सत्यवती का पुत्र हा राजगद्दी पर बैठे तो मैं उससे आपका विवाह कर सकता हूं। गांगेय को इस बात का पता चल गया और उन्होंने सबके सामने प्रतिज्ञा की कि “मैं सहर्ष राज्य-पद छोड़ता हूँ। महारानी सत्यवती का पुत्र ही राज्याधिकारी होगा।' मछए को फिर शंका हुई कि गांगेय का पुत्र तो राज्याधिकारी हो सकता है। गांगेय ने भीष्म प्रतिज्ञा की कि मैं आजीवन ब्रह्मचारी रहूँगा। तभी से उनका नाम भीष्म हो गया । ऐसे बाल ब्रह्मचारी और सत्य के पुजारी, प्रतिज्ञा पालक भीष्म पितामह के मुखमंडल पर तेज नहीं होगा तो और किसके मुह पर होगा?
हमारा यह संसार भी बड़ा विचित्र है। जो प्रश्न हमें स्वयं अपने से पूछना चाहिये, वह हम दूसरों से पूछते हैं । जो प्रश्न दूसरे लोगों से पूछना चाहिये, वह अपने से पूछते हैं । हमें स्वयं अपने से पूछना चाहिये कि मैं कौन हूँ ? उसे हम दूसरों से पूछते हैं कि 'बताओ, मैं कौन हूँ।' इसका उत्तर हम दूसरों से चाहते हैं इसीलिये वास्तविक उत्तर नहीं मिल पाता ।
राजा सत्यवान ने अपने पापसे पूछा, 'मैं कौन हूँ ? सत्यवान हूँ।" एक समय राजा ने देशभर के चित्रकारों को एकत्रित किया और कहा, "राजमुद्रा के लिये वांग देते हुए मुर्गे का नित्र बनाना है, चित्र जीवन्त होना चाहिये । सर्वश्रेष्ठ चित्रकार को पुरस्कार दिया जायेगा। अच्छे प्रच्छे चित्रकार अपने अपने चित्र लेकर आये। राजा को कुछ पमन्द भी आये, पर इन चित्रों में सर्वश्रेष्ठ चित्र कौन सा है, इसका निणय कौन करे? परीक्षक राज्य का पुराना वृद्ध चित्रकार नियुक्त किया गया। उसने कहा, राजन् ! इनमें से एक भी चित्र जीवन्त नहीं है। मैं जीवन्त चित्र बना सकता हूँ, पर उसमें ३ वर्ष लगंगे।" राजा ने उसे चित्र बनाने की प्राज्ञा दे दी।
२ वर्ष बीतने पर राजा ने अपने सेवकों को राज्य-चित्रकार के घर भेजा यह पता लगाने के लिये कि चित्र बना ? चित्रकार घर पर नहीं था। उसको ढूढते ढूढते एक जंगल में गये वहाँ चित्रकार को एक मुर्गों के बाड़े में मुर्गा बना हुआ देखा। सभी पाश्चर्य चकित हुए। पूछा, "चित्र बन गया क्या ?" चित्रकार बोला, "नहीं, अभी एक वर्ष और लगेगा।" तीन वर्ष पूरे होने पर राजा ने चित्रकार को बुलाया और चित्र के विषय में
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सत्य
पूछा। चित्रकार ने कहा, "अभी नहीं बना है, पर अब शीघ्र ही बन जायेगा।" चित्रकार वहीं चित्र बनाने लगा। राजा बहुत अप्रसन्न हुआ, पूछा, "इतने दिन क्या कर रहे थे ?''
चित्रकार-“राजन ! मैं क्या कर रहा था ? यह अभी बताता हूँ।" राज्यसभा में चारों ओर मुर्गे की आवाज होने लगी, इधर उभर मुर्गा दौड़ने लगा, वही आवाज, वैसा ही व्यवहार, वैसा ही प्राचरण । सब चकित, यह मनुष्य है या मुर्गा ? राजा ने चित्रकार से पूछा, "यह क्या कर रहे हो ?"
चित्रकार- "राजन् ! तीन वर्ष तक मैंने क्या किया, वही तो बता रहा हूँ। मुर्गा बने बिना मुर्गे का जीवन्त चित्र नहीं बन सकता । चित्र बनाया या नहीं, इसमें कौनसी बड़ी बात है ? चित्र तो प्राधे घंटे में बनाकर दे दिया जा सकता है, परन्तु वह जीवन्त है या नहीं, इसकी परीक्षा क्या है ? सभी चित्रकारों के चित्र वहाँ रखे गये। एक मुर्गा मँगवा कर दरबार में छोड़ दिया गया । एक एक चित्र के समक्ष मुर्गा जाता, ताकता और मुह फेर लेता । जब राजचित्रकार के चित्र के सामने गया तो मुर्गा उस वित्रित मुर्गे से लड़ने लगा । यही जीवन्त चित्र है। जो स्वयं सत्यवान नहीं होता, वह सत्य की पूजा नहीं कर सकता । सत्यवान बनकर ही सत्य की पूजा की जा सकती है । इसीलिये सत्य को सत्यनारायण कहा गया है ।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा आदि पांच व्रतों का वर्णन पाता है, उसमें अन्य किसी व्रत को भगवान का पद नहीं दिया है, किन्तु सत्य को ही भगवान की उपमा दो गई है:
'सच्चं खलु भगवयं' सत्य ही भगवान् है। वैदिक धर्म में सत्यनारायण शब्द प्रचलित उसका अर्थ भी यही है। कि सत्य ही नारायण (भगवान) है। शास्त्र में और भी लिखा है:
'सच्चं लोग्रामिसारभूयं' सत्य ही समस्त लोगों में सारभूत तत्त्व है।
ठाणांगसूत्र के चौथे ठाणे में चार प्रकार का सत्य बताया गया है:-(१) काया की सरलता, (२) भाषा की सरलता, (३) भावों को सरलता और (४) इन तीनों योगों की अविसंवादिता (मन, वचन, काया की एकरूपता) । ये सत्य के चार प्रकार हैं ।
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सत्य
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आप कहेंगे कि व्यवहार में तो झूठ बोले बिना काम नहीं चलता, पर ज्ञानी पुरुष तो यही कहते हैं कि सत्य के बिना व्यवहार भी नहीं चल सकता। यदि कोई पुरुष एक दिन के लिये भी सत्य बोलना बन्द कर दे तो उसका व्यवहार बन्द हो जायगा।
'सज्जन इस झूठ के जरिये, इज्जत में फर्क आता है। भरोसा न करे कोई, झूठ नमक से खारा है ।।'
अविश्वास का मूल कारण ही असत्य भाषण है। स्टेशन पर उतर कर यदि आप रिक्शा, टैक्सी या तांगे वाले को अपने गन्तव्य स्थान का ठीक नाम नहीं बतायेंगे तो क्या आप अपने स्थान पर पहुँच सकेंगे ? आपको प्यास लगी है, किन्तु यदि आप किसी को सच-सच नहीं बतायेंगे कि आप प्यासे हैं, तो क्या आपको पानी मिलेगा? बाजार में जाकर यदि आप विक्रेता से अपनी इच्छित वस्तु को ठीक ठीक नहीं बताग्रीगे तो क्या आप इच्छित वस्तु खरीद सकेंगे ? नहीं। तो कहना होगा कि सत्य के बिना व्यवहार भी नहीं चल सकेगा।
मृषावाद (झूठ) के दो भेद हैं - (१) द्रव्य और (२) भाव । जानकर या अनजान से जो झूठ बोला जाता है, वह द्रव्य मृषावाद कहलाता है। पुद्गल आदि जड़ वस्तु को अपना कहे तथा राग द्वेष कृष्ण लेश्या प्रादि को पागम विरुद्ध प्ररुपित करे, उसे भाव मृषावाद कहते हैं।
भाषा के चार प्रकार बताये गये हैं--(१) सत्य, (२) असत्य, (३) मिश्र और (४) व्यवहार। इनमें से सत्य और व्यवहार भाषा बोलनी चाहिये। असत्य और मिश्र भाषा का त्याग करना चाहिये। क्योंकि सत्यवक्ता को बाह्य विजेता नहीं परंतु अंतरंग विजेता माना जाता है । अहिंसा आदि व्रतों में भूल हो जाये तो प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध किया जा सकता है, किंतु सत्य का त्याग एक बार भी कर देने पर फिर से शुद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि एक बार का भी असत्य अविश्वास का कारण बन जाता है ।
असत्य चार प्रकार का है (१) भूत निह्नव, सत्य को छुपाना, आत्मा पुण्य, पाप मोक्ष नहीं है ऐसी झूठी प्ररुपणा करना । (२) अभूतोद्भावन, जो नहीं है उसे है कहना और जो है उसे नहीं है कहना, आत्मा श्यामाक
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धान जैसा है, ग्रात्मा विश्वव्यापी है, ग्रात्मा तांदला जैसा है ग्रादि । (३) प्रथन्तिर हो कुछ और बताये कुछ, गाय को घोड़ा कहे और मनुष्य को ईश्वर कहे । ( ४ ) ग असत्य, जिससे पाप प्रवृत्ति हो जैसे खेत जोतो, घोड़े की खसी करो, जिससे प्रप्रीति हो जैसे कार को कारण कहना, अंधे को अंधा कहना श्रादि श्रप्रीतिकर वचन नहीं बोलना चाहिये। किसी को क्रोध से अपमानित करने वाली भाषा नहीं बोलनी चाहिये जैसे दुराचारिणी के पुत्र ! पापो ! वेश्या पुत्र ! ! आदि आदि ।
सत्य
सत्य के प्रतिचार
(१) सहसाभ्यारख्यान: बिना विचारे जल्दबाजी में किसी निर्दोष को दोषी कह देना, इससे चारित्र निर्माण में कमी आती है । कोई व्यक्ति किसी संस्था का सच्चाई से कार्य कर रहा हो और उसके विषय में यदि कोई पूछे तो गोलमाल उत्तर देना जैसे "सब ठीक है, कहने जैसा नहीं है, मैं तो इनके विचार बरावर जानता नहीं, इनकी प्रवृत्तियों से मैं परिचित नहीं, आदि आदि ।
(२) रहस्याभ्याख्यान कोई भी दो व्यक्ति एकांत में बात करते हों तब ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि ये मेरे विरूद्ध कोई षड़यंत्र रच रहे हैं | क्योंकि प्रायः वे आपसी संबंध की बात ही करते होते हैं ।
(३) स्वदारमंतभेदे : पुरुष स्त्री की और स्त्री पुरुष की गुप्त बात को प्रकट नहीं करे क्योंकि इससे कई बार गृह कलह हो जाता है। इससे घर की बात बाहर जाती है और आपसी श्रनवन भी होती है ।
(४) मृषोपदेश: किसी को गलत उपदेश, झूठी सलाह नहीं देनी चाहिये ।
( ५ ) फूट लेख : किसी के लेख में अक्षर या शब्द आगे पीछे करना, अर्थ का अनर्थ करना, दूसरे के लेख को अपने नाम से छपवाना, कोर्ट कचहरी में झूठे दस्तावेज पेश करना प्रादि । किसी को ऐसा कहना कि "मुझे तो श्रसत्य न बोलने का व्रत है, असत्य लिखने का प्रत्याख्यान तो नहीं है, अतः असत्य लिखने में कोई दोष नहीं है ।" श्रादि ।
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सत्यव्रत के आगार
गृहस्थ श्रावक को इस व्रत में छ: आगार या छः प्रकार की छूट
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सत्य
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होती है । पहला श्रागार राजा का है। श्रावक ने जीवदया पालने का व्रत तो ले लिया किन्तु राज्य अधिकारी होने से यदि उसे राजा की प्राज्ञा से किसी को दंड देना पड़े तो उसे दोष नहीं लगता । अपने प्राण संकट में हो तब तक तो शायद श्रावक सहन भी कर ले किंतु राजा को प्राज्ञा का उल्लघन करने से स्वयं उसको और उसके कुटुम्ब को अनेक कष्ट भोगने पड़ सकते हैं, अत: गृहस्थ को राजाज्ञा की छूट रहती है ।
दूसरा प्रागार जाति का है। जाति में अनेक प्रथाएँ होती हैं, जिनका धर्म से संबंध नहीं होता, परन्तु परंपरा के रूप में उनका पालन करना पड़ता है। जैन श्रावक को वे सभी सामाजिक प्राचार स्वीकार है, जिनसे उसके सम्यक्त्व को हानि नहीं होती हो और व्रतों में दूषण न लगता हो।
तीसरा प्रागार देव का है। यदि कोई देव किसी विशेष कार्य के लिये प्राज्ञा देता है तो उसे विवशता पूर्वक करना पड़ता है, क्योंकि न करने पर घोर संकट की संभावना बनी रहती है ।
चौथा बलवान पुरुष का प्रागार है। कभी कोई गुण्डा या शक्तिशाली पुरुष की पकड़ में आ जाये और उससे पीछा छडाने के लिये उसकी चापलूसी या झठी तारीफ करनी पड़े तो वह विवशता है, वर्ना चाकू, शस्त्र, गोली मार सकता है। किसी प्राणी की रक्षा के लिये भी कभी झूठ बोलना आवश्यक हो जाता है, जैसे कोई कसाई किसी गाय को मारने ले जा रहा हो और गाय रस्सी छुड़ाकर भाग गई हो, यदि वह आपसे पूछे कि "गाय किधर गई है ?" तब आप उसे उल्टी दिशा बता दे तो गाय की रक्षा हो सकती है । किसी की प्राण रक्षा के लिये झूठ भी बोलना पड़े तो गृहस्थ के लिये वह क्षम्य है ।
___पांचवां गुरुजनों का आगार है। यदि श्रावक पौषध में भी बैठा ही और गुरु या माता-पिता किसी कार्य की आज्ञा देते हैं तो उसे करना हो पड़ता है, क्योंकि गुरुजनों की प्राज्ञा अनुलंघनीय होती है।
छठा प्रागार दुभिक्ष का है। देश में अकाल पड़ रहा है, लोग दाने दाने के लिये तरस रहे हैं, ऐसी भयंकर परिस्थिति में यदि जीवन रक्षा हेतु झूठ बोलना पड़े या अखाद्य खाना पड़े तो विवशता है अतः गृहस्थ को छट है।
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सत्य
सत्य की प्रशंसा में किसी कवि ने कहा है:'कमल सेठ ए व्रत से सुखीग्रो, झूठ से नंद कलिया रे । श्री शुभ वीर वचन प्रतीते, कल्प वृक्ष फल्यो रे ।।'
कमल सेठ ने इस व्रत का पालन किया, अतः वह सुखी हुअा। सत्यव्रत की विराधना से नंद नामक बनिक पुत्र दुखी हुना। भारु नामक ब्राह्मण माँस खाने वाली चंडालिन से पूछता है कि "तू मार्ग में जल क्यों छाँट रही है ?" उसने कहा, "झूठ बोलने वाले कम चंडाल मनुष्य इस मार्ग की भूमि को स्पर्श कर इस अपवित्र कर चले गये हैं । उनको अपवित्रता को दूर करने के लिये मार्ग में जल छाँट रही हूं।' सत्यव्रत को कैसे दृढ़ करें ? कहा है
'हास्य लोभ भय क्रोध प्रत्याख्याननिरन्तरम् ।। अालोच्य भाषणेनारिण भावयेत् सून्टतव्रतम् ।।'
हास्य, भय, लोभ और क्रोध के निरंतर त्याग से और विचार पूर्वक बोलने से सत्यव्रत मजबूत होता है । सत्य किसे कहते हैं ? कहा है:--
'प्रियं पथ्यं वचस्तथ्यं सून्ट तव्रतमुच्यते । तत्तथ्यमपिनो तथ्यमप्रियं चा हितं च ।।'
दूसरों को प्रिय लगने वाला, हितकारी और मधुर वाणी से कहे गए सत्य तथ्य को सत्य नामक महाव्रत कहा गया है। यदि आप समयानुसार योग्य व्यक्ति के समक्ष उचित शब्दों में अपनी बात कहेंगे तो आपको सफलता अवश्य मिलेगी। सत्य कहना भी आना चाहिये। पाँच में से एक घटाने पर चार शेष रहेंगे। दो और दो जोड़ दें तो चार होंगे। दो को दो से गुणा करने पर भी चार होंगे और पाठ में दो का भाग देने पर भी उत्तर चार होगा । चार का अक अलग अलग पायेगा फिर भी सबका उत्तर एक ही होगा। अब असत्य के फल किसे कहते हैं:
'मन्मनत्वं काहलत्वं मूकत्व मुखरोगिता ।। दीक्षाऽसत्य फलं कन्या-लीकाध सत्यमुत्सृजेत् ।।
समझ में न पाये ऐसा मुनमुनाना, गूगापन, मुख रोग प्रादि सभी असत्य के फल हैं। अत: जानबूझ कर कन्या, भूमि, गाय, थापन आदि के बारे में झूठ नहीं बोलना चाहिये, झूठी साक्षी नहीं देनी चाहिये। 'अलियवयणं भयंकर अयसकर वेरकरणं' असत्य वचन, भय, दुःख, अपयश और वैर पैदा करने वाला है ।
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अचौर्य व्रत
जैसे तेल रहित दीपक क्षीण हो जाता है, चाबी भरे बिना घड़ी बंद हो जाती है और भोजन के बिना यह शरीर भी नहीं टिकता, वैसे ही प्रात्मा की प्रगति के लिये व्रत, नियम, संयम आवश्यक है। इनके बिना जोवन प्रगतिशील नहीं बनता किंतु पतनशील बनता है। इससे बचने के लिये अणुव्रतों और महाव्रतों की आवश्यकता है।
श्री वीर विजयजी म.सा. ने १२ व्रतों की पूजा में तीसरे अचौ व्रत के विषय में कहा है
'चित्त चोखे चोरी नविकरिये, भेद अढार परिहरिय ।'
चित्त को निर्मल रखने के लिये चोरी का सर्वथा त्याग करना चाहिये । प्रदत्तादान का अट्ठारह प्रकार से त्याग करना चाहिये ।
हमारे मन का स्वभाव हो ऐसा है कि वह प्रभाव को पकड़ता है। अपने पास क्या क्या है इस पर मन कभी नहीं सोचता, किंतु हमारे पास क्या क्या नहीं है इस विषय पर बार बार सोचता रहता है। संसार में 'है' की अपेक्षा 'नहीं' की संख्या ही अधिक है। इसो लिये असंतोष की चोरी का मूल यह नहीं' को लिस्ट ही है। प्रात्मा नोचे की गति से ज्यों ज्यों ऊपर को गति में प्रातो है, त्यों त्यों सामग्री को अावश्यकता में वृद्धि होती है। जब यह जोव एकेन्द्रिय में था, तब उस में चलने फिरने की शक्ति भी नहीं थी, कर्म सत्ता के नीचे रहना पड़ता था, जैसे वृक्ष पेड़ पौधे आदि बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय में आया तो घर (बिल) बनाने की आवश्यकता हुई, शरीर को टिकाने के लिये भोजन ढढना पड़ा। नरक में तो दुःख के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, अशुभ लेस्या में ही जीवन बिताना पड़ता है। तिर्यं च गति में मकान, भोजन, सर्दी, गर्मी, बच्चों की चिंता, मृत्यू को रोकने और जीवित रहने की चिता। मनुष्य भव में भी उपर्य क्त सभी चिताएं हैं । देव गति में जन्म के समय जितनी सामग्री प्राप्त होती है, मृत्यु तक वंसी हो रहती हैं, कम अधिक नहीं होती। परन्तु बती हई सामग्री का उपयोग मनुष्य के पास है। मनुष्य को बढ़ती में
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अचीय व्रत
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और अधिक बढ़ाने की इच्छा रहती है, जिससे संतोष और न्याय व्यवस्था को तोड़कर वह धीरे धीरे चोरो की प्रवृत्ति करने लगता है । शास्त्र में कहा है
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'अनादान मदत्तस्यास्तेयव्रतमुदीरितम्
बाह्याः प्राणाः नृणामर्थो हरता तं हवाहिते ||
बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण न करना अदत्तादान महाव्रत है । मनुष्य का बाह्य प्राण धन ही है, उसके अपहरण से ही उसके प्राणों का अपहरण हो जाता है । यचौर्य शब्द चोरी का निषेध वाचक शब्द है । अतः पहले यह जानना जरूरी है कि चोरी क्या है ? आपका १० वर्ष का पुत्र बिना पूछे प्रापकी जेब से दस रुपये निकालता है, दूसरे पुत्र को आप अपने हाथ से दस रुपये देते हो । दफ्तर का खजांची आपसे बिना पूछे रुपये ले जाता है, दूसरी ओर वह आपसे पूछ कर ले जाता है। आपका मित्र विना बताये ही आपकी टेबल से हाथ घड़ी ले जाता है, दूसरी ओर आप स्वयं उसे घड़ी देते हो | इन तीनों उदाहरणों में ग्राप चोरी उसे ही कहेंगे जो धन या वस्तु आपकी आज्ञा के बिना ली गई है। जो वस्तु पूछकर ली गई है वह चोरी नहीं है ।
योगशास्त्र में चोरी के लिये श्रदत्तादान शब्द का प्रयोग किया गया है । 'अदत्तादानमस्तेयम्' बिना दी हुई वस्तु को लेना चोरी है ।
ज्यों ज्यों वैज्ञानिक उन्नति हो रही है त्यों त्यों चोरी के भी वैज्ञानिक तरीके प्रकाश में आ रहे हैं। नौकरी दिलाने का विज्ञापन देकर, इस बहाने से लोगों से धन ऐंठना । किसी व्यक्ति ने अखबार में विज्ञापन दिया, " स्कूटर बुक कराने वालों के लिये सुनहरा अवसर । फार्म की फोस दस रुपये जो वापस नहीं होगी । इसके अतिरिक्त २५०/- रुपये बैंक ड्राफ्ट से जमा करायें जो स्कूटर देते सयय कीमत में से कट जायेंगे या बुकिंग रद्द कराने पर प्रार्थी को वापस लौटा दिये जायेंगे | धडाधड लोग बुकिंग कराने लगे । शानदार ग्रॉफीस, टेलीफोन, चार चार कर्मचारी, टाइपिस्ट, चौकीदार और मालिक का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली। तीन महीने में एक लाख से अधिक लोगों ने नाम लिखवा दिये । तीन महीने बाद फिर प्रखबार में सूचना निकली कि स्कूटर एजेंसी रद्द, बुकिंग कराने वाले अपना पैसा वापस ले जाये । उसने बैंक ड्राफ्ट का धन सबको वापस कर दिया,
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अचौर्य व्रत
[
पर फार्म के पैसे तो वापस करने ही नहीं थे, इस प्रकार दस लाख से अधिक का धन बटोर लिया। आपकी भाषा में ऐसे लोगों को व्हाइट कलर कीमिनल (सफेद चोर) कहा जाता है ।
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एक व्यक्ति शानदार कोठी में बड़ो शान शौकत से रहता था । उसके पास चोरी का बड़ा ही अनोखा तरीका था। पुलिस को भी उस पर शक नहीं होता था । उसने एक तिजोरी बनाने वाले कारखाने के मैनेजर से मित्रता गांठ रखी थी। वह मैनेजर के पास श्राता जाता ही रहता था । उससे वह पता लगा लेता कि किस नंबर की तिजोरी किस व्यापारी ने खरीदी है । बातों ही बातों में वह उस नंबर की चाबी की डिजाइन भी जान लेता था । फिर चाबी बनाकर ऐसी सफाई से अपने हाथों में दस्ताने पहन कर माल उड़ाता था कि कोई सबूत पीछे नहीं छोड़ता था । उसकी निजी डायरी में चात्रियों के नंबर डिजाइन और तिजोरियें खरीदने वाले व्यापारियों के पते लिखे थे ।
धन को चार भागों में बाँटा जा सकता है। सफेद वन, काला धन, गुप्त धन और ट्रस्ट धन । इनमें से सिर्फ सफेद धन ही नीतिपूर्वक कमाया हुआ धन है, जिसे सरकार द्वारा भी मान्यता प्राप्त है । सरकार की दृष्टि से बचाकर कमाया हुआ धन काला धन है । पत्नी या परिवार के सदस्यों की आँखों में धूल डालकर बचाया हुआ धन गुप्त धन है । धार्मिक ट्रस्ट बना बना कर उसके धन को ब्याज से प्रपने काम में लेना ट्रस्ट धन का दुरुपयोग है। सफेद धन को छोड़कर शेष तीन प्रकार के धन का उपार्जन प्रकारान्तर से चोरी द्वारा ही हो जाता है ।
साधुओं को भी अपने रहने के उपर्युक्त स्थान या उपाश्रय गृहस्थ से माँग कर उसकी प्राज्ञा प्राप्त कर रहना चाहिये । इस मकान या स्थान को नवग्रह कहते हैं । ग्रवग्रह के पाँच स्वामी होते हैं:- इन्द्र, चक्रवर्ती, राजा, गृहस्वामी, स्वधर्मी । यदि पहले से साधु किसी उपाश्रय में ठहरे हुए हों और नये साधु या जावें तो वे पहले ठहरे हुए साधुओं से पूछकर ही वहां ठहरे, वर्ना स्वधर्मी दोष लगता है ।
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चक्रवर्ती और सामान्य राजा की भी अपनी मर्यादा होती है । उस मर्यादा के बाहर चलने फिरने की सामान्य प्रजा की प्राज्ञा नहीं होती । ऐसे निषिद्ध स्थान में साधु को माना जाना नहीं चाहिये । यदि ऐसे स्थान में
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प्रचौर्य व्रत
जाये तो उसे अदत्त का दोष लगता है । किसी के घर में ठहरने के लिये गहस्वामी की आज्ञा लेनी चाहिये । उपाश्रय में रहने पर साधु ने गृहस्थ से अवग्रह माँगा था, अब नये पाने वाले साधु को पूर्व में ठहरे साधु से पूछ कर ही वहाँ ठहरना चाहिये। बिना आज्ञा ठहरने पर स्वधर्मी अदत्तादान दोष लगता है । प्राप्त किया हुअा अन्न, पानी, वस्त्र, पात्र गुरु या आचार्य को दिखाकर उपयोग में लेना चाहिये, क्योंकि वस्तु निर्दोष है या सदोष, फलदायक है या कष्टदायक यह गुरु ही जानते हैं ।
जैसे असत्य के मूल में चार कारण है, वैसे ही अदत्तादान के मूल में असंतोष है । अदत्त अर्थात् स्वामी की आज्ञा के बिना लिया हुआ। इसके भी चार प्रकार हैं:----
(१) स्वामी अदत्त : वस्त्र, पात्र, कंबल आदि उसके स्वामी की आज्ञा बिना ग्रहण करना ।
(२) जीव अदत्त : सचित्र फल, फूल, अनाज अथवा कोई भी वस्तु जो किसी जीव के शरीर के रूप में हो उसे उसकी प्राज्ञा बिना काटना, छेदना, पकाना आदि जीव अदत्त कहलाता है।
(३) तीर्थकर अदत्त : अचित्त होते हुए भी जो प्राधाकर्मादि दोष से युक्त हो, ऐसे दूषित आहार को लेना थिंकरों द्वारा निषिद्ध है । श्रावक अचित्त होते हुए भी अनंत काय, अभक्ष आदि पदार्थ खाये तो इसमें भी तीर्थंकर भगवान की प्राज्ञा नहीं है, फिर भी खाये तो तीर्थंकर अदत्तादान का दोष लगता है।
(४) गुरु प्रदत्त : ४७ दोष रहित कल्पती वस्तु हो तब भी साधु जिसकी नेत्राय (सेबा) में हो उन गुरु आदि को निमन्त्रण किये बिना, उनको दिखाये बिना, उनकी प्राज्ञा प्राप्त किये बिना यदि उपयोग में ले तो गुरु प्रदत्त दोष है।
अतिचार : आपके पाठ पुत्रिय हुई, उनके विवाह में दहेज आदि का काफी खर्चा किया, जिससे तीसरे अचौर्य व्रत के पालन में आपकी प्रवृत्ति कम हुई । चोर लुटेरों द्वारा लाया गया चोरी का माल आपने आधे दामों में खरीदा और पूरे पैसों में बेचा, इससे आपको स्नेता हृद अतिचार लगा । जब आपको
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वीर्य व्रत
चोरी का माल बार बार नहीं मिलता, तब प्राप चोरों को प्रेरणा देते हैं, "अरे निकम्मे क्यों बैठे हो ? जाओ कुछ माल पानी लाओ ।" यदि वे पकड़े जाने का भय दिखाते हैं तो आप साहस बंधाते हैं, "क्यों चिंता करते हो ? तुम्हारे परिवार का पालन मैं करूंगा। आवश्यकता हो तो अग्रिम धन ले जाओ, हिसाब में चुकता हो जायेगा ।" इससे तस्कर प्रयोग नामक दूसरा अतिचार लगा।
दो राजाओं का परस्पर युद्ध हुआ । पाँच मील के फासले पर दोनों सेनाम्रों के शिविर थे । एक राजा के पास अधिक अन्न भंडार था, दूसरे के पास समाप्त सा हो गया था। पहले राजा ने विराधी राजा को रोशन पहुँचाना निषिद्ध कर दिया था। फिर भी किसी ने धन के लोभ से गुप्त रीति से शत्रु को राशन पहुँचाया, यह विरुद्ध राज्यातिक्रम नामक तीसरा दोष लगा ।
किसी गाँव में एक व्यापारी रहता था, प्रतिदिन प्रवचन सुनता था । जी हाँ, जी हाँ कहता था । एक भेड़ पालक सेठ की दूकान पर गुड़ लेने गया । सेठ ने ५ कीलो के स्थान पर ४ ।। कीलो गुड़ तौल दिया । भेड़ पालक ने अपने घर ले जाकर गुड़ को तौला तो ४॥ किलो ही निकला । भेड़ पालक एक भेड़ को छुपाकर व्याख्यान में ले गया । जब सेठ जी हाँ कहता, भेड़ पालक भेड़ के पेट को दबाता और वह बें बें करती । लोगों ने कहा, "यह क्या बें बें मचा रखी है ?" भेड़ पालक बोला, "महाराज सेठजी की 'जी हाँ' और भेड़ की बें बें' एक बराबर ही है क्योंकि ये दोनों ही नहीं समझते कि वे क्या बोल रहे हैं । आपके सामने जो सेठ जी हाँ कहे और दूकान पर कम तोले, उसकी जी हाँ का क्या अर्थ है ?" यह कूट तौल, कूट माप का चौथा अतिचार है ।
धनिये में घोड़े की लीद मिलाना, मिर्च में इंट पीस कर मिलाना आदि मिलावट का धंधा करने से तत्प्रतिरूपक व्यवहार नामक प्रतिचार लगता है ।
सुबाहु कुमार ने विचारा कि चौदह राजू लोक में रहे हुए सभी जीवों को अभय देऊ । उसने एक बड़ा तंबू बनाया, उसके चारों तरफ चारों कोनो में चार बाँस गाडे । एक बाँस बीच में लगाया । बाँसों के ऊपर चद्दर लगादी। पाँच बाँस के चारों तरफ २७ कीलें गाड दी। तंबू
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अवार्य व्रत
हवा में उड़ न जाय इसलिये १७८२ रस्सियें लटका दी जिनसे तंबू को मजबूत बांध दिया। जिससे हवा और पानी से रक्षा हो सके । उस तंबू का नाम था संयम तंबू । उसमें बैठने के बाद विषय विकार कषाय रूपी भाव नहीं पा सकते । पाँच बाँसों के नाम थे अहिंसा, सत्य, अचीय, ब्रह्म वर्य मौर अपरिग्रह ।
सत्ताइस कीलों का नाम था अहिंसा के चार सुक्ष्म, बादर, त्रस और स्थावर । सत्य के चार क्रोध, लोभ भय और हास्य । अचौर्य के छ अल्प, बहुत्व, हल्का, भारी, सजीव, अजीव । ब्रह्मचर्य के तीन देव, मनुष्य और तिर्यच संबंधी। परिग्रह के छ थोड़ा, बहुत, हल्का, भारी, सजीव, अजीव । रात्रि भोजन त्याग के चार प्रसन (अन्न), पान (पेय, खाद्य (फल, मेवा मादि) मौर स्वाद्य (पान सुपारी आदि)।
अहिंसा की ४, सत्य की ४, अचौर्य की ६ ब्रह्म वर्य की ३, परिग्रह की ६ और रात्रिभोजन को ४ इस प्रकार कुल २७ कीलें हुई ।
अहिंसा के ४ भेद त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर इनकी हिंसा करनी सोते, जागते, दिन में रात में, अकेले या समूह में अतः ४४ ६ = २४ हुए। करु नहीं, कराऊ नहीं, अनुमोदु नहीं २४४३ = ७२ हुए । मन, वचन काया से ७२४३ = २१६ हुए । २१६ रस्सी अहिंसा को हुई ।
सत्य की क्रोध, लोभ भय, हास्य से २१६ रस्मी हुई। अचौर्य की अल्प, बहुत्व, हल्का, भारी, सजीव से ३२४ रम्सियें
ब्रह्मचर्य की देव, तिर्य च, मनुष्य से १६२ रस्सी हुई।
अपरिग्रह को थोड़ो, बहुत हल्का, भारी सजोब, अजीव से ३२४ रस्सियें हुई।
रात्रि भोजन त्याग की असन, पान, खाद्य स्वाद्य से २१६ रस्सी हुई ।
छ काय की ६, स्थावर की ५ त्रस की १ कुल ५, त्रस की १ कुल ६x६-३६x६-३२
कुल २१६+२१६ +-३२४ -१६२ ।-३२४+२१६ +-३२४ = १७८२ ६३२४ = १७ रस्सियें हुई।
_इतनी मजबूत रस्सियों से बंधे संयम के तंबू में यदि आप भी प्रवेश कर जाँय तो आपकी भी कषाय, विषय, विकारों से रक्षा हो सकेगी।
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ब्रह्मचर्य
भारतीय संस्कृति त्याग प्रधान संस्कृति है । त्याग ही उसका प्रारण है । उसकी ग्रात्मा है। जहां त्याग और वैराग्य की पूजा होती है, अर्चना होती है, सत्कार होता है और सम्मान होता है, वहां भारतीय संस्कृति है । जहाँ भोग रोग की प्रधानता है, विषय वासना की प्रबलता है, राग प्रज्वलित हो रहा है, द्वेष का दावानल धू धू कर जल रहा है, वहां भारतीय संस्कृति नहीं है !
विनय, शील, तप, नियम आदि गुणों सद्गुणों में ब्रह्मचर्य प्रधान है । वैदिक संस्कृति के महान् श्राचार्यों ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में कहा है:'ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुथाध्नत ।'
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ब्रह्मचर्य तप से देवों ने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है । ब्रह्मचर्य की साधना से शरीर स्वस्थ होता है, आत्मा शक्तिवान् बनती है और विचार निर्मल होते हैं किंतु विकार और वासनाओं से शरीर का तेज और प्रोज नष्ट हो जाता है । ग्रात्मा दुर्बल हो जाती है और विचार विकृत हो जाते हैं ।
अमेरिकन ऋषि थोरो ने कहा था, "ब्रह्मचर्य जीवन का वृक्ष है और प्रतिभा, पवित्रता, वीरता आदि अनेक उसके मनोहर फल हैं ।' व्यास के शब्दों में "ब्रह्मचर्य श्रमृत है ।" जो व्यक्ति बह्मचर्य रूपी अमृत का प्रास्वादन कर लेता है, वह सदा के लिये अमृत बन जाता है ।
इन्द्र अपनी विभूति को छोड़ सकता है, यमराज न्याय का त्याग कर सकता है अग्नि शीतल हो सकती है, चन्द्रमा अग्नि वर्षा कर सकता हैं किन्तु भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोड़ सकता । ब्रह्मचर्य के उस महान तेज के काररण ही कुरूक्षेत्र के मैदान में वह वीर बारण शैय्या पर अठारह दिन तक लेटा रहा । संपूर्ण शरीर तीक्ष्ण बाणों से बिंध जाने पर भी उसका चेहरा मुस्कराता रहा । जीवन की दार्शनिक गुत्थियों को सुलझाता रहा । धर्मराज के प्रश्नों के उत्तर देता रहा । यह है ब्रह्मचर्य के तेज का अनूठा उदाहरण ।
इंग्लैंड के सुप्रसिद्ध कवि कीट्स का नाम आपने सुना होगा । उसने
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ब्रह्मचर्य
अपनी एक कविता में भोग विलास के दुष्परिणाम की कहानी चित्रित की है। कवि एक बहादुर सिपाही से पूछता है, जो पहले स्वस्थ और मस्त था, किंतु इस समय उसकी जीवन लालिमा पीली पड़ गई थी। उसकी मुआयी सूरत देखकर कवि प्रश्न करता है, 'अरे बहादुर सिपाही ! तुम्हें क्या दुःख है, तुम्हारा चेहरा क्यों पीला पड़ गया है ? तुम ऐसे स्थान में अकेले क्यों घूम रहे हो ?" उत्तर में सिपाही बोला, "मुझे एक दिन घास के मैदान में एक सुन्दरी मिली, जिसने अपने मन मोहक हावभाव से मुझे लुभाया
और जब मैं उसके नेत्र बाणों से घायल होगया तो वह मुझे अपने निवास स्थान लें गई, जहाँ मैंने अनेक सम्राटों, सम्राट-पुत्रों और सैनिकों को देखा, जिनकी बडी दुर्दशा थी। उस बेरहम सुन्दरी ने उन सब को अपना कैदो बना रखा था। उन्होंने मुझे समझाया कि तुम्हारी भी यही दुर्दशा होने वाली है, हमारी भाँति तुम्हें भी एक दिन छोड़ जायेगी, किंतु मैंने उनकी बात नहीं मानो । अन्त में उनका कहना ठीक निकला। अब मैं यहाँ ऐसे भयानक स्थान में अकेला धूम रहा हूं।"
आप जानते हैं कि भारत के इतिहास में दो नगर प्रसिद्ध हैं, द्वारका और लंका दोनों का विनाश प्रशील से हुा । स्वामो रामतीर्थ ने अपने एक प्रवचन में कहा था, 'पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गोरी को युद्ध में १२ बार हराया था उसका कारण यह था कि जब वह युद्ध में जाता था तो ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करता था । किंतु तेरहवीं बार युद्ध में जाते समय वह वासना से घायल हो गया। उसने संयोगिता से कहा आज तु मेरी कमर बांध दे । वासना के गुलामों से कमर क्या बंधती ? वह वासना का दास बन कर युद्ध के मैदान में गया और शत्रु को पराजित न कर स्वयं पराजित हो गया।"
वाटरलू के युद्ध में नेपोलियन की हार का कारण भी यही था । कभी वह इन्द्रियों पर संयम रखने और वासना पर विजयी होने के कारण देश का प्रधान सेनापति था। जब वह अक्लोनी गाँव में एक नाई के यहाँ रहता था, नाई की चंचल स्त्री उसकी सुदरता और सुकुमारता पर मुग्ध हो गई। वह हावभाव द्वारा उसे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी, किंतु नेपोलियन को अध्ययन से ही अवकाश नहीं था। जब देखो तब वह पढ़ने में तल्लीन रहता था।
देश का प्रधान सेनापति बनने के बाद वह एक बार फिर अक्लोनी
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ब्रह्मचर्य
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गाँव गया । नाई की स्त्री दूकान पर बैठी थी । घोड़े को रोककर नेपोलियन ने पूछा "बहिन ! तुम्हारे यहाँ नेपोलियन बोनापार्ट नामक एक युवक पढ़ने के लिये रहता था, क्या तुम्हें कुछ याद है ? उस युवक का स्वभाव कैसा था ? "
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१३३
नाई की स्त्री ने झुंझला कर उत्तर दिया, "मैं ऐसे नीरस व्यक्ति की चर्चा करना नहीं चाहतो उसने कभी हंसकर बात भी नहीं की, वह तो पुस्तकों का कोडा था । "
नेपोलियन खिल खिला कर हंस पड़ा, बोला, "देवी ! तुम ठीक कहती हो । यदि बानापार्ट तुम्हारी रसिकता में उलझ गया होता तो देश का प्रधान सेनापति बनकर ग्राज तुम्हारे सामने खड़ा नहीं होता ।" इन्द्रिय संयम के कारण ही वह जहाँ भी गया विजय पताका फहराई, किंतु जीवन सांध्य वेला में इन्द्रियों का गुलाम बनकर वह अन्तिम युद्ध में पराजित हुआ ।
तुलसीकृत रामायरण का एक मधुर प्रसंग याद आ रहा है । जब महाबली मेघनाथ युद्ध के मैदान में प्राया तब वीरों में एक तहलका मच गया । कोई भी उसे जीत नहीं सका । तब राम पूछा गया, उन्होंने कहा, "उस वीर को वही जीत सकता है जिसने १२ वर्ष तक अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया हो । राम की बात सुनकर इन्द्रिय विजेता लक्ष्मरण युद्ध में उतरे । ब्रह्मचर्य के महान् तेज से मेघनाथ की शक्ति क्षीण पड़ गई । वह बलि के बकरे सा चिल्लाया और उसका जीवन दीपक एक क्षरण में बुझ गया ।
इसी प्रकार महाभारत में चित्ररथ गन्धर्व के जीवन की कहानी याद आती है, जब अर्जुन ने चित्ररथ को जीत लिया न्ध चित्ररथ ने अर्जुन से कहा, "हे अजुन ! ब्रह्मचये ही परम धर्म है, जिस परम धर्म का तुमने साधन किया है, उस ब्रह्मचर्य के कारण ही तुम मुझे युद्ध में पराजित कर सके हो ।"
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भारतीय धर्म और संस्कृति में साधना के अनेक विधान है, पर उन सब में सर्वश्रेष्ठ साधना ब्रह्मचर्य का तप ही है । ब्रह्मचर्य की साधना में विश्व की सभी साधनाएँ प्रा जाती है । कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरि ने चारित्र के चौथे भेद के रूप में ब्रह्मचर्य की निरूपरणा की ।
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'तवेसु वा उत्तम बंभचेरं । '
सभी प्रकार के तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है क्योंकि यह साधक को अत्यन्त कठिनाई से सिद्ध होता है । किसी विद्या को प्राप्त करना या किसी देव को साध लेना सरल है, परन्तु ब्रह्मचर्य का पालन प्रत्यन कठिन है । अन्य धार्मिक विधियों में आपका मन भटक सकता है, पर ब्रह्मचर्य की साधना में तो मन की एकाग्रता आवश्यक है ।
'जे चारित्र निर्मला, जे पंचानन सिंह |
विषय काय ने गजिया, ते समरू निसदिश ।। '
ब्रह्मचर्य
आपकी शंका है कि लंबे समय तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले साधु का समय कैसे व्यतीत होता होगा ? उत्तर है:
'ज्ञान ध्यान क्रिया साधना काढे पूर्वना काल ।'
'तप कर बाल कराल ले हाथ में, वरिये शिव वधु झट पट में ।'
(१) ज्ञान की साधना, (२) ध्यान का अभ्यास और ( ३ ) क्रिया में अप्रमतत्ता से वे अपने समय को आसानी से बिताते हैं ।
तप की तीक्ष्ण तलवार हाथ में लेकर मोक्ष रूपी दधु का शीघ्र वरण करें । तप की तलवार के सामने श्रासक्ति नहीं ठहर सकती । हे जीव क्या तू छः महीने का तप करेगा ? शक्ति नहीं है, परिणाम भी नहीं है । सोलहभत्त (अट्ठाई ) कर लेगा ? शक्ति है. परन्तु परिणाम नहीं है । पर्युषण का भत्त (तेला) कर लेगा ? शक्ति है, परिणाम भी है । 'तवेसु वा उत्तम बंभचेर ।'
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सभी तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है। जिसने काम मल्ल को जीत लिया है, वह आत्मा धन्य है । वन्दनीय है, तीनों लोकों में पवित्र है । आत्मा नित्य है, अनादि अनंत काल से है । मोक्ष उसकी स्वाभाविक प्रगतिशील स्थिति है । इस ध्येय की सिद्धि में दूसरे व्रतों की तरह ब्रह्मचर्य भी एक साधन है । इसीलिये ब्रह्मचर्य पालन श्रात्म धर्म है । आत्मा का जीवन है, मोक्ष का एक उपाय है ।
'ब्रह्मणी चरणमिति ब्रह्मचर्य: । '
आत्मा में विचरना ब्रह्मचर्य है । ब्रह्म अर्थात् वीर्य, विद्या या श्रात्मा
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ब्रह्मचर्य
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चर्य प्रर्थात् रक्षण, अध्ययन, चिंतन । जिस दीपक का तला टूटा होगा उसका तेल उर्ध्वगमन नहीं करेगा। उर्ध्वगमन के बिना दीपक प्रकाशित नहीं होगा. इस प्रकार वीर्य के उर्ध्वगमन के बिना श्रात्मा प्रकाशित नहीं होगी । ब्रह्म + वयं = अर्थात् वीर्य रक्षरण, विद्या प्रध्ययन एवं प्रात्मचिंतन | 'मन्त्र फले जग जस वधे, देव करे रे सानिध्य । ब्रह्मचर्य धरे जे नरा, ते पामे नव निध ।।'
ब्रह्मचर्य से मन्त्र फलता है, संसार में कीर्ति बढती है, देवता सिद्ध होते हैं, जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं, उन्हें सभी प्रकार की निधियाँ प्राप्त होती है ।
संयोग से द्रोपदी ने नवकार के स्मरणपूर्वक कायोत्सग किया जिससे सौधर्म विमान स्थिर हो गया । यह सतीत्व का प्रभाव है, शील का प्रभाव है । सेनापति नीचे आया, सती की प्राज्ञा का पालन किया, फिर विमान चला यह है मन्त्रफल ! !
साधक यश कामना से शील का पालन नहीं करता, परन्तु शील धर्म की प्रारावना उसके यश को विश्वव्यापी बनाती है । भिखारी भीख माँगता है । पतिव्रता के गोद में पति है और बालक अग्नि से खेल रहा है । भखारी कहता है कि भिक्षा न देगी तो जला दूँगा । फिर भी सती अपने पति का त्याग नहीं करती। इसी से सती की कीर्ति बढ़ती है ।
सती कहती है काजल रहित, बत्ती रहित, तेल रहित, चंचलता रहित दीपक को जो धारण करेगा. वह मेरा पति है । अन्तःकरण में माया जाल न हो। नवतत्त्व के विषय में अस्थिरता को बत्ती न हो । स्नेहभंग रूपी तेल न हो, सम्यक्त्व भंग रूपी चंचलता न हो विवेकरूपी दीपक धारण करने वाला हो, वह मेरा पति है ।
भरत चक्रवती रूप एवं शील सहित होते हैं । ब्रह्मचक्रवर्ती के रूप तो होता है पर शील नहीं होता । हरिकेशी अणगार के शील तो है पर रूप नहीं है । काल सौरिक कसाई के रूप तो है पर शील नहीं है | आपके पास क्या है ? इसका निर्णय आप ही करें ।
ए व्रत जगमां दीवो मेरे प्यारे ।'
शरीर और मन की विचित्रता को समझें । भूख लगने पर भोजन
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J
ब्रह्मचर्य
करने से पेट भर जाता है किंतु एक इच्छा के जागृत होने पर उसे पूरी करने जाओ तो अन्य १०० इच्छाएं जागृत हो जाती है, यह मन का स्वभाव है ।
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इस व्रत की प्रशंसा में कवि कहता है
'चो व्रत हवे वरवु दीपक सम जस ज्योत । केवल दीपक कारणे, दीपक नो उद्योत || '
अब मैं चौथे ब्रह्मचर्य व्रत का वर्णन करता हूं। इस व्रत की ज्योति दीपक के समान है। भाव दीपक रूपी केवल ज्ञान के लिये द्रव्य दीपक रूपी केवल ज्ञान के लिये द्रव्य दीपक द्वारा पूजा करता हूँ। यह वीर विजयजी म.सा. ने ब्रह्मचर्य व्रत पूजा में लिखा है ।
ए व्रत लग में दीवो, मेरे प्यारे ए व्रत जग में दीवो । वैतरणी नी वेदना मांहे, व्रत भांगे ते पैसे ।
विरती ने प्रणाम करी ने, इन्द्र समा में बेसे । '
जो प्राणी ब्रह्मचर्य व्रत की विराधना करता है, वह नरक की वैतरणी नदी में दुःख भोगता है । देवताओं का स्वामी इन्द्र भी 'नमो विरइए' कहकर पहले विरति को प्रणाम करता है, फिर सभा में अपने आसन पर बैठता है ।
दश में अंग आगम में शीलव्रत को ३२ उपमाएं दी गई है । लोक दृष्टि से ब्रह्मचर्य का प्रारम्भ जब बालक ७ वर्ष का हो, तब से माना जाता है | परंतु विचार करने पर मालूम होता है कि बालक जब माता के गर्भ में होता है तभी से ब्रह्मचर्य का प्रारंभ हो जाता है । आज के बोये हुए अनाज का अंकुर तीन दिन बाद दिखाई देता है इससे सिद्ध होता है कि बीज के अंकुरित होने की क्रिया तो चालू थी पर वह प्रदृश्य थी । नाखून काटने के ५-७ दिन बाद अमुक अश में नये नाखून दिखाई देते हैं, अतः नाखून प्रति क्षण थोड़े थोड़े बढते हैं । बीज रूप से अथवा कारण रूप से तो वस्तुओं का प्रारम्भ कभी का हो गया होता है, किंतु अमुक समय तक अमुक परिमाण में वह अदृश्य रूप से ही होता है । ब्रह्मचर्य के भी मूलभूत संस्कार गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाते हैं । ब्रह्नचर्य प्राणी की शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति का केन्द्र है । जिस प्रकार बिजलीघर में शक्ति केन्द्रित रहती है और वहां से अन्य स्थानों पर पहुँचाई जाती है उसी
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ब्रह्मचय
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प्रकार ब्रह्मचारी के मन मस्तिष्क में शक्ति केन्द्रित रहती है और वही शक्ति संपूर्ण शरीर को मिलती है । आज वैज्ञानिक भी कहता है कि मस्तिष्क ज्ञान का केन्द्र है । उसी में चेतना का निवास रहता है । मस्तिष्क ही सारी क्रियाओं का संचालन करता है । मस्तिष्क में छः अरब तन्तु मांसपेशियाँ और सूक्ष्म नाड़ियें हैं । उनमें से बहुत सचेतन रहती है, शेष सुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं । जितने अधिक ज्ञान-तन्तु सचेतन होंगे उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त होगा । ब्रह्मचर्य की साधना से ज्ञान-तन्तुओं को शक्ति मिलती है, वे जागृत होते | ज्यों ज्यों ब्रह्मचारो का तेज बढ़ता है, त्यों त्यों उसकी बुद्धि भी निर्मल होती है ।
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'विन्दन्ति परमं ब्रह्म यत्समालम्ब्य योगिनः ! तद् व्रतं ब्रह्मचर्य स्याद् धीर धौरेय गोचरम् ।।'
जिस व्रत का अवलबन लेकर योगी पुरुष परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करते हैं और जिसको धीर वीर पुरुष ही धारण कर सकते हैं, वह ब्रह्मचर्य नामक महाव्रत है ।
'छेदात्पुनः पुरोहति ये साधारण शारलीनां । तद्वच्छन्नानि चांगानि प्रादुर्यान्ति सुशीलतः ।।'
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जिस प्रकार अनन्तकाय वनस्पति का छेदन करने से वह फिर उग जाती है, उसी प्रकार उत्तम शील व्रत से छेदन किये हुए अंग भी वापस श्रा जाते हैं ।
'एकमेव व्रतं श्लाघ्यं ब्रह्मचर्य जगत्रये ।'
तीनों लोकों में ब्रह्मचर्य ही पूजने योग्य है। शायद हम अपने मस्तक पर उड़ते अशुभ पक्षियों को न भी उड़ा सकें पर अपने बालों में पक्षी को घोंसला तो नहीं डालने देंगे। उसी प्रकार ब्रह्मचर्य कठिन व्रत है, फिर भी जब शूरवीर इसका पालन कर सकता है तो हम क्यों नहीं कर सकते ।
जो वितराग स्वामी के दर्शन भाव- भक्ति से करता है, उसके दुःख दारिद्र्य सब मिट जाते हैं ।
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अपरिग्रह
भगवान् महावीर ने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, इन पांच महाव्रतों को उपदेश दिया। परन्तु पांच महाव्रतों में अधिक महत्त्व अहिंसा और अपरिग्रह को दिया, क्योंकि अहिंसा और अपरिग्रह दोनों ही परस्पर घनिष्ट संबंध हैं । इसीलिये उन्होंने जहाँ जहाँ हिंसा का निषेध किया वहाँ वहाँ परिग्रह का भी निषेध किया, क्योंकि प्रायः परिग्रह के लिये ही हिंसा का पाचरण किया जाता है ।
__ पाप पूछेगे कि परिग्रह क्या है ? सामान्यत: धन, दौलत, जमीन, जायदाद, स्त्री, शरीर प्रादि सब परिग्रह माने जाते हैं । आप कहेंगे कि यदि ये सब परिग्रह हैं तो इनका त्याग करके मनुष्य अपना जीवन कैसे निभा सकता है ? भगवान् ने कहा कि उपर्युक्त सभी वस्तुएँ परिग्रह हैं भी और नहीं भी हैं । वास्तव में तो ये सब परिग्रह नहीं हैं क्योंकि ये तो सब बाह्य वस्तुएँ हैं, जब कि परिग्रह तो मनुष्य की एक प्रांतरिक अशुद्ध चेतना की वृत्ति है । कहा है:
'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।' जब बाह्य वस्तुओं के प्रति मन में प्रासक्ति-मूर्छा या ममत्व पैदा होता है तब वह परिग्रह है। परिग्रह वस्तु में नहीं किन्तु भावना में है। किसी भी सिद्धांत को सही ढंग से समझने के लिये उसके मूल कारण को जानना आवश्यक है यदि मात्र वस्तु को ग्रहण करना ही परिग्रह होता, तब तो साधु सन्त भी सड़क पर चलते हैं. मकान में ठहरते हैं, बैठते हैं, तब उसे ग्रहण तो करना ही पड़ेगा, तो क्या यह परिग्रह है ? हवा, पानी, पाहार, पुस्तक, शास्त्र आदि को भी साधु सन्त ग्रहण करते हैं, तो क्या ये भी सब परिग्रह हो गये ? नहीं। शास्त्र में परिग्रह की परिभाषा इस प्रकार है:
'परिसमन्तात् मोहबुद्धया ग्रह्यते स परिग्रहः ।' अपने चारों ओर की वस्तुओं को मोह बुद्धि से ग्रहण करना परिग्रह है । हम समझते हैं कि हम अमुक वस्तु के स्वामी हैं, किंतु स्वामित्व को प्राप्त करने में वह वस्तु ही हमारी स्वामी बन जाती है।
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अपरिग्रह
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भगवान् पार्श्वनाथ के समय में चार ही महाव्रत थे। उस चौथे महाव्रत में पांचवे का समावेश कर लिया गया था क्योंकि परिग्रह में स्त्री का समावेश भी हो जाता है और सोना, चाँदी, मिल्कियत, नौकर, चाकर, खेत आदि भी परिग्रह में माने जाते हैं, अतः स्त्री से संबंधित ब्रह्मचर्य का समावेश भी परिग्रह में हो जाता है।
भगवान् महावीर के समय ब्रह्मचर्य को चौथा व्रत तथा स्त्री के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को परिग्रह में समाहित किया गया। यह परिग्रह नौ प्रकार का है । परिग्रह का मूल क्या है ? शास्त्र कहता है --.
___ 'संसार मूल मारम्मास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।' ___ संसार का मूल कारण प्रारंभ है और प्रारभ का मूल कारण परिग्रह है। जो वस्तु अपनो नहीं है उसको अपनी मानना ही प्रज्ञान दशा है, इससे तीन अवगुण पैदा होते हैं-(१) वस्तु मात्र क्षणिक सुख देने वाली है, (२) वस्तु मात्र दु:ख गभित है क्योंकि प्राप्ति के बाद वस्तु से मोह उतर जाता है और (३) उसे फिर से प्राप्त करने की इच्छा होती है। उपरोक्त दोष संसार के सभी पदार्थों में विद्यमान हैं। इसीलिये परिग्रह को त्यागने के लिये कहा गया है।
आवश्यकता और इच्छा में बहुत अन्तर है। ग्रावश्यताएं मर्यादित होती है, जबकि इच्छाएं अमर्यादित । आवश्यकता तो भिखारी की भी पूर्ण हो जाती है, पर इच्छाएं तो करोड़पति की भी पूर्ण नहीं होती। कारण यह है कि प्रावश्यकताएं प्रायः शरीर केन्द्रित होती हैं, जबकि इच्छाएं मन केन्द्रित होती हैं । शरीर की आवश्यकता कितनी ? खाने को चार रोटी, पहनने को दो कपड़े और सोने के लिये ५-६ फुट जमीन, जबकि मन की इच्छाएं तो आकाश के समान प्रनन्त होती हैं -
'इच्छा हु प्राकास समा अनन्तया ।' - नये नये फैशन के कपड़े, मसालेदार चटपटें भोजन मादि । प्राप कहेंगे कि प्रावश्यकता से अधिक संग्रह करने की इच्छा ही क्यों होती है ? इसके दो कारण हैं-(१) इस पात्मा को अपने पुण्य पर विश्वास नहीं है, उसे भय है कि उसके जीवन को आवश्यकताएं पूरी होंगी या नहीं ? (२.) भविष्य का भय सदा बना रहता है कि भविष्य में प्रावश्यकतानुसार
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अपरिग्रह
नहीं मिला तो क्या होगा? धनी लोगों की हालत कैसी होती है ? कहा है
'भक्त द्वषो जड़े प्रीतिप्रवृत्तिगुरु लंघने, मुखे च कटुता नित्यं धनिनां ज्वरिणामिव ।'
किसी विद्वान ने धनाढ्य पुरुष की तुलना किसी ज्वरग्रस्त रोगी से की है। जैसे ज्वर ग्रस्त व्यक्ति के शरीर में गर्मी होती है, वैसे ही धनवान के शरीर में धन की गर्मी होती है। जैसे ज्वरग्रस्त पुरुष को भोजन से अरूचि होती है, वैसे ही धनवान को भी प्रायः भोजन से अरूचि हो जाती ज्वरग्रस्त का मुह कडुवा होता है वैसे ही धनवान के मुह से भी हमेंशा कड़वी बात निकलती रहती है, रात दिन भूखा रहता है, बड़े लोगों की अवगणना करता है और घमंड से छाती फूली रहती है । - भूत, भविष्य और वर्तमान काल में होने वाले सभी युद्धों के मूल में संग्रहवृत्ति हैं । धनवान अपनी संपत्ति बढ़ाते गये, राजाओं ने अपने राज्य की सीमाएँ लंबी कर दी और सत्ताधारियों ने अपने सत्ता के क्षेत्र को विशाल कर दिया। सब में युद्ध का मूल परिग्रह है । परिग्रह की लालसा में भयानक से भयानक पाप और निर्दयता हो सकती है। धन की मूर्छा जीवन को निर्दय बनाये बिना नहीं रहती । आप पूछेगे कि धन के प्रति इतनी मूर्छा क्यों ? क्योंकि धन ही शक्ति का माध्यम है । धन में अनेक वस्तुएं खरीदने को शक्ति है । सुख के संपूर्ण साधन धन से ही प्राप्त होते हैं।
इच्छा प्रारंभ है तो ममत्व परिग्रह है । सर्दी की ऋतु में घी निकालते हुए एक व्यक्ति की अंगुली में घी की फांस लग गई, अंगुली दर्द करने लगी। डाक्टर के पास गया, इंजेक्शन लगवाया, दवाई ली, पट्टी बंधवाई । सेफ्टीक न हो जाय इस भय से रोज पट्टी बंधवाता । एक महीना हो गया, दर्द मिटता नहीं, पट्टी का खर्च बढ गया। अचानक डाक्टर किसी काम से दूसरे शहर को गया और उनका लड़का मरीज देखने लगा। अंगुली के दर्द वाले को भी देखा, दस मिनट अंगुली गर्म पानी में रखी, घी की कांस घी पिघलने से निकल गई और दर्द मिट गया। जब डाक्टर लौटे तो रोगी ने कहा "अापने एक महीने पट्टी बांधी तो भी दर्द नहीं मिटा, मापके लड़के ने १० मिनट में दर्द मिटा दिया।" रोगो के जाने के बाद
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अपरिग्रह
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डाक्टर ने लड़के को डाँटा, “यदि यों एक दिन में रोगी को ठीक कर दोगे तो कमाई कैसे होगी ?" यह कुहेतु अक्ल है या नहीं ? इसमें परिग्रह की कितनी लालसा है ?
चूल्हे की आग तो एक होती है किंतु असंतोषी की आग तो एक साथ ग्यारह होती है । कहावत भी है बनिये की उदासीनता कभी नहीं मिटती । अकबर बादशाह एक बार बाजार से जा रहे थे सभी झुक झुक कर सलाम करते थे। एक बनिया उदासीन होकर सिर पर हाथ रखे बैठा था। बादशाह ने बीरबल से पूछा, 'बनिया उदास क्यों है ?' बीरबल बोला "ब्रह्मा भी इसकी उदासी नहीं मिटा सकता।" बादशाह ने बनिये को बुलाया और पूछा "तुम उदासीन क्यों हो ? व्यापार में कमी हो गई या कोई उपाधि है ? बनिया बोला, ' मैंने कपड़े खरीदे, पर ग्राहकी नहीं हुई। कपड़े की १५० गाँठे पड़ी हैं, भारी रकम रुक गई है, इसी से उदास हूं।" बादशाह ने कहा, "ठीक है कल से ग्राहकी बढ़ जायेगी।"
दूसरे दिन बादशाह ने एलान किया कि "राज्य सभा में पाने वाले सभी लोग नये कपड़े पहन कर आयेंगे। वर्ना पाँच सौ रुपया दंड देना होगा।" बनिये ने सब कपड़े सौ, डेढ सौ, दो सौ रुपये के भाव से बेच दिये। अंतिम ग्राहक बीरबल पाया, उसे भी २५० में बेच दिया ।
कुछ दिन बाद बादशाह और बीरबल फिर बाजार में गये। देखा बनिया आज भी उदासीन था । बादशाह ने उससे उदासीनता का कारण पूछा । बनिया बोला, "सारे कपड़े सौ, डेढ सौ में बेच दिये, अंतिम बचा उसे २५० में बेचा । यदि समी २५० में बेचता तो कितना नफा होता ?''
देखा आपने असंतोष का खेल ? असंतोष कभी मनुष्य को सुखी नहीं रहने देता। अत: परिग्रह का त्याग कर संतोष को धारण करने में ही सच्चा सुख है।
तीर्थयात्रियों की चरण-रज से रंजित मनुष्य कर्मरज से रहित हो जाते हैं अर्थात् मोक्षसुख पाते हैं।
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विधा की शोभा
आप पढ़े हुए हो ? यदि हाँ, तो आप में नम्रता आई या नहीं ? विनय की खुशबू आपके कार्यकलापों में कितनी आ रही है ? क्या
आपकी प्रवृत्ति से भ्रमरवत् प्रत्येक व्यक्ति प्रापकी ओर आकर्षित हुआ या नहीं ? पूछिये अपने अन्तर मन को। पढ़कर के पंडित तो कोई भी हो सकता है, परन्तु पण्डितोचित गुण प्रत्येक में नहीं पा जाते। पाण्डित्य-पूर्ण जीवन की मुद्रिका (अनूठी) में विनय का हीरा जड़ा हुग्रा रहता है। विनय है, तो आप विद्वान् हैं, अन्यथा आपकी ही विद्वत्ता आपको गहरे गर्त में पटक देगी।
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