SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अहिंसा [ मारने की चेष्टा करे. किंतु मारे जाने वाले प्राणी का श्रायुष्य और पुण्य प्रबल होने से मारने वाले की प्रवृत्ति सफल नहीं होती, फिर भी हृदय में मारने का संकल्प होने से और मारने की शारीरिक प्रवृत्ति होने से मारने वाले को हिंसा का पाप अवश्य लग जाता है । कभी कभी पराधीनता या शक्ति की कमी के कारण हिंसा की शारीरिक प्रवृत्ति नहीं हो पाती, किन्तु मन में हिंसा के भाव होने से प्रात्मा को हिंसा के अशुभ परिणाम बंध जाते हैं । धवल सेठ श्रीपाल को मारने गया तब पाँच पिसलने से सीढ़ी पर से गिर पड़ा और वह कटार स्वयं के पेट में लग गई, जिससे वह मर गया । बार बार आपत्ति से बचाने वाले श्रीपाल को मारने के अशुभ परिणाम स्वरूप और अशुभ प्रवृत्ति द्वारा वह नरक में गया । यहाँ प्रवृत्ति और परिणाम दोनों अशुभ थे फिर भी स्वरूप हिंसा का अभाव था क्योंकि श्रीपाल को कोई पीड़ा नहीं पहुँची थी, किन्तु हेतु का तो प्राबल्य था ही । धवल सेठ और तंदुल मच्छ दोनों के दृष्टांत में हेतु हिंसा तो है पर स्वरूप हिंसा नहीं है । ११७ स्वरूप हिंसा उसे कहते हैं जिसमें पृथ्वीकाय आदि छ काय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के प्राणों का वियोग हो अथवा जीवों को थोड़ी बहुत पीड़ा हो । श्रेणिक राजा ने शिकार में गर्भवती हरिणी को तीर मारा जिससे हरिणी और उसके बच्चे की मृत्यु हो गई । इसमें हेतु हिंसा और स्वरूप हिंसा दोनों हैं । इसी कारण श्रेणिक को ८४ हजार वर्ष तक नरक में रहना पड़ेगा | कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी भी छोटे बड़े जीव को प्रकट रूप से मारने का इरादा न हो किन्तु छोटे छोटे जीवों की रक्षा का उपाय भी न किया हो तो ऐसी अवस्था में हेतु हिंसा होती है । शास्त्र में कहा है For Private And Personal Use Only 'निशल्यो व्रती' अर्थात् शल्य रहित व्यक्ति, जिसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहता, वह ही व्रती बन सकता है । दंभ, ढोंग, धतिंग, कपट, छल वाला व्यक्ति चाहे दिखावे के लिये व्रत भले ही धारण करले, पर वह वास्तव में व्रती नहीं हो सकता । अतः दंभ और छल कपट से जीवन को बचाने की आवश्यकता है ।
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy