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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रागादि रागादिध्वांत विध्वंसे कृते सामायिका शुना । स्वस्मिन स्वरुपं पश्यंति योगिनः परमात्मनः ।। उपरोक्त श्लोक में यह बताया गया हैं कि आप परमात्मा के स्वरूप का दर्शन कैसे कर सकते हैं । समभाव रूपो सूर्य के द्वारा रागादि अंधकार का नाश होने पर योगी पुरुष स्वयं के बल पर परमात्मा के स्वरूप को देखते हैं। भारतीय संस्कृति का लक्ष्य त्याग है, भोग नहीं। अपने परिवार में यदि आप पिता हैं तो अपने बालकों के लिये अपने सुख का त्याग करें। यदि आप पुत्र हैं तो आपने जो कुछ भी प्राप्त किया है, उसे अपने माता पिता के चरणों में अर्पण कर दाजिये । एक दूसरे के लिये यदि हम अपने सुख का त्याग नहीं करेंगे तो हमारा परिवार सुखी परिवार नहीं हो सकेगा । जब सांसारिक व्यवहार चलाने के लिये भी आपको अपने सुख का त्याग करना पड़ता है, तब प्राध्यात्मिक भूमिका में पहुँचने के लिये तो प्रापको मूल से ही राग का त्याग करना पड़ेगा। पाप पूछेगे कि राग अात्म भाव में है या पदार्थ में ? आप बाजार में जा रहे हैं, रास्ते में ग्राम पर आपकी दृष्टि पड़ी। आपने अपने मित्र से कहा, ''यार ! आम बहुत रसोले हैं, खरीदने को दिल ललचा रहा है।" इससे स्पष्ट होता है कि आप रागवृत्ति के वशीभूत है । वस्तु में राग पैदा करने की शक्ति है, ऐसा समझना आपकी मूल है। यदि वस्तु में राग पैदा करने की शक्ति हो तो वीतरागी के मन में भी राग पैदा होना चाहिये, परन्तु वीतरागी के मन में कभी भी राग उत्पन्न नहीं होता। अतः राग वस्तु में न होकर स्वयं व्यक्ति में है। भ्रमर में ऐसी शक्ति है कि कठोर से कठोर लकड़ी में छेद करके अपना घर बना लेता है। किंतु वही भ्रमर जब कमल की पंखुडियों में बंद हो जाता है तब वह बाहर नहीं निकल सकता । क्या कमल की पंखुड़ियां लकड़ी से भी अधिक सख्त हैं कि भ्रमर उसको छेद कर बाहर नहीं निकल For Private And Personal Use Only
SR No.008690
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharnendrasagar
PublisherBuddhisagarsuri Jain Gyanmandir
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size8 MB
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